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“2 हज़ार करोड़ खर्च होने पर भी गंगा उतनी ही मैली क्यों?”

गंगा

गंगा में प्रदूषण

पिछले दिनों नरेंद्र दामोदर दास मोदी की तथाकथित माँ गंगा के प्राण बचाने के लिए 112 दिनों के अनशन के बाद पर्यावरणविद जीडी अग्रवाल ने आखिरकार दम तोड़ ही दिया। 2009 में भागीरथी पर बन रहे बांध के विरोध से शुरू हुई उनकी मुहिम 11 अक्टूबर 2018 को हमेशा के लिए खत्म हो गई।

नेताओं द्वारा ‘माँ गंगा’ ज़रूर कहा जाता है लेकिन कभी किसी नेता को गंगा के लिए जान नहीं गंवानी पड़ती है। हां, बहुत संतों ने अपनी जानें ज़रूर दी हैं। उन्हीं नामों में अग्रवाल जी का नाम भी जुड़ गया है। उन्होंने अपना पूरा जीवन पर्यावरण और माँ गंगा के नाम समर्पित कर दिया लेकिन उनको बदले में मौत मिली जो कि भारत में हर ईमानदार समाजसेवी को मिलती है।

इस देश का सरकारी तंत्र अंधा है और उद्योगपतियों की जेबों में नेताओं का ईमान गिरवी रखा है। पहले काँग्रेस सरकार द्वारा और पिछले 4 सालों से भाजपा सरकार द्वारा लगातार की गई अनदेखी का परिणाम है अग्रवाल जी की मौत।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

आज उनकी मौत के बाद सब उनको महान बता रहे हैं। बीजेपी, काँग्रेस, हार्दिक पटेल और अखिलेश यादव जैसे तमाम जातिवादी नेताओं ने उनके आंदोलन में मदद नहीं की क्योंकि उस वक्त सब अपनी घटिया राजनीति में व्यस्त थे।

इस मौत को अप्रत्यक्ष रूप से हत्या भी कहा जा सकता है क्योंकि इसका स्वरूप ही ऐसा रहा है। इसके प्रमुख कारण निम्न रहे हैं।

पहला, यह कि उनके दिए गए सुझावों पर दोनो में से किसी भी सरकार द्वारा अमल ना करना, जबकि दोनों सरकारों के अनपढ़ मंत्रियों से ज़्यादा वह खुद पर्यावरण के बारे में जानते थे और शायद इसी जानकारी के कारण उनको भारत सरकार के ‘सेंट्रल पॉल्युशन कंट्रोल बोर्ड‘ का पहला मेंबर सेक्रेटरी बनाया गया था। यह सरकार के घटिया इग्नोरेंस के रवैये को दर्शाता है।

दूसरा, उनके अनशन को खत्म करने का प्रयास बहुत आखिरी दिनों में किया गया क्योंकि इससे प्रदेश सरकार या केंद्र सरकार की राजनीति को दरअसल कोई फर्क ही नहीं पड़ता था। अगर यह कोई राजनीतिक आंदोलन होता तो यकीनन सरकार अभी तक कई बार कपालभाती कर चुकी होती।

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

तीसरा, अग्रवाल जी ने हमारे प्रधानमंत्री को 3 पत्र लिखे जिनका प्रधानमंत्री की तरफ से कोई भी जवाब नहीं आया। अपने आखिरी पत्र में उन्होंने पीएम को लिखा था कि वह 22 जून से अनशन पर बैठ जाएंगे लेकिन हमारे 16 घंटे काम करने वाले पहले राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री ने इन पत्रों का कोई संज्ञान नहीं लिया।

अपने आखिरी पत्र में उन्होंने 4 मांगे रखी थीं लेकिन उन पर भी “नमामि गंगे” सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया।

  1. उन्‍होंने वर्ष 2012 में गंगा महासभा द्वारा तैयार प्रारूप पर संसद में विधेयक लाकर कानून बनाने की मांग की थी। संसद में विधेयक को जल्‍द से जल्‍द पारित ना करा पाने की स्थिति में गंगा के संरक्षण और प्रबंधन पर अध्‍यादेश लाने का सुझाव दिया था।
  2. जीडी अग्रवाल ने दूसरी मांग के तहत अलकनंदा, धौली गंगा, नंदाकिनी, पिंडर और मंदाकिनी नदियों पर बन रही जलविद्युत परियोजनाओं को अविलंब बंद करने का आदेश देने को कहा था। इसके अलावा प्रस्‍तावित परियोजनाओं को भी रद्द करने की मांग की थी।
  3. तीसरी मांग के तहत उन्‍होंने हरिद्वार कुंभ क्षेत्र में पेड़ों की कटाई, खनन और चमड़ा उद्योग-बूचड़खानों को बंद कराने की बात कही थी।
  4. चौथी मांग के तहत जीडी अग्रवाल ने जून 2019 तक गंगा भक्‍त परिषद का गठन करने की मांग की थी। उन्‍होंने परिषद के लिए 20 सदस्‍यों को मनोनीत करने का आग्रह किया था।

अग्रवाल जी को उनकी इस गंगा बचाने की मुहिम में हम हिंदुस्तान की अवाम और उनके अपने साथी संतों का भरपूर साथ नहीं मिला। हम आम हिंदुस्तानी लोग गंगा में अपने पाप धोकर पाक तो होना चाहते हैं लेकिन उसी गंगा को बचाने के लिए किसी आंदोलन में अपना योगदान नहीं देना चाहते हैं।

संत समाज जिसको राम तो बचाने हैं लेकिन अपने साथी की मौत जो कि एक हत्या सी प्रतीत हो रही है, उसके विरोध में राम के नाम पर आई सरकार से कुछ नहीं कहना। यह मेरी और मेरे समाज की कायरता ही है जो कि हम हर गलत बात पर चुप हैं।

यह कैसे संभव है कि जिस भारत देश में भगत सिंह पैदा हुए थे उसी मुल्क के लोग हत्यारे नेताओं का भक्त बन जाएं। देश के मूल मुद्दों को छोड़कर हिंदू-मुस्लिम टीवी डिबेट्स पर केंद्रित होकर यह समझने में अक्षम हो जाएं कि नेताओं को चुना जाता है काम करने के लिए ना कि पिता या भगवान बनाने के लिए।

भगत सिंह ने एक बार अपनी माँ विद्यावती कौर को लिखा था, “माँ मुझे कोई शक नहीं कि एक दिन मेरा देश आज़ाद होगा लेकिन मुझे डर है कि गोरे साहबों द्वारा छोड़ी गई कुर्सियों पर भूरे साहब बैठ जाएंगे।”

दुष्यंत कुमार ने बिल्कुल सही कहा था,

रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो।

नेताओं की अंध भक्ति के आवरण से बाहर आकर कम-से-कम माँ गंगा के नाम पर आरटीआई द्वारा आप जानकारी जुटाइए कि “नमामि गंगे” जो कि गंगा को साफ करने के लिए मोदी जी का एक तथाकथित ड्रीम प्रोजेक्ट है, उसके नाम पर कितने करोड़ रुपए बहा दिए गए।

खैर, गंगा की हालत में कोई सुधार नहीं दिखाई दिया। ऐसा क्यों हुआ? यहां तक कि गंगा में गिरने वाले सैकड़ों नालों तक का कोई समाधान नहीं निकल पाया। ऐसा में यह पूछना गलत नहीं होगा कि उस पैसे का क्या हुआ?

कौन से मंत्रियों और प्राइवेट कंपनियों द्वारा वे करोड़ों रुपए डकार लिए गए? सही जानकारी मिलने पर शायद आपकी आंखों पर पड़ा भक्ति का पर्दा हट जाए और तब आप यह जान पाएं कि यह एक ऑर्गनाइज़्ड स्कैम है।

2958 करोड़ कहां गया?

जब मोदी जी ने कहा था, “मुझे माँ गंगा ने बुलाया है” उसी दिन लोगों को समझ जाना चाहिए था कि जो व्यक्ति सिर्फ पब्लिसिटी के लिए नोटबंदी के दौरान अपनी बुढ़ी माँ को बैंक की लाइन में लगा सकते हैं, वह गंगा के साथ तो कुछ भी कर सकते हैं।

फोटो साभार: Getty Images

अंतत: उन्होंने कुछ वैसा ही किया। गंगा के पुत्र होने के लिहाज़ से ही मोदी जी को गंगा के असली पुत्र जीडी अग्रवाल जो कि नाते में उनके बड़े भाई लगे, उनकी मौत का जवाब अपनी गंगा माँ को देना चाहिए। खैर, उनके पत्र तक मोदी जी इग्नोर करते रहे।

उमा भारती जी जब मंत्री चुनी गईं तब उन्होंने बड़े जोश में कहा था कि अगर वह गंगा साफ ना कर पाईं तो वो गंगा में डूबकर जान दे देंगी लेकिन क्या हुआ, ना तो गंगा साफ हुई और ना उमा भारती जी ने उसमें डूबकर अपनी जान दी।

विपक्ष का भी वही रवैया

सरकार के साथ-साथ पूरा विपक्ष भी नाकारा हो गया है। कोई मंदिर घूम कर अपने आपको हिन्दू साबित कर रहा है, कोई अवसरवादी गठबंधन बनाने के लिए सीमेंट खोज रहा है, कोई उत्तर भारतीयों को मार रहा है और कोई लेनिन के नाम पर गांजा फूंककर कम्युनिज़्म इकठ्ठा कर रहा है।

खैर, जो है सब ठीक है। हम अवाम के सर तो टैक्स और महंगाई के ऐसे बोझ लाद दिए गए हैं कि हम उसी से नहीं उबर पा रहे हैं।

11 अक्टूबर 2018 का दिन भी एक तरीके का शहीद दिवस ही है जो माँ गंगा के तीन सपूतों के नाम लिखा जाएगा।

कवि जगदंबा प्रसाद मिश्र ने शायद इन्हीं जैसे सपूतों के लिए लिखा होगा-

ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ खंजरे कातिल,
पता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा।
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।

काँग्रेस भी इन मौतों के लिए उतनी ही ज़िम्मेदार है जितनी कि बीजेपी की मौजूदा सरकार है क्योंकि इनमें से 2 मौतें उनके वक्त हुईं और उस वक्त भी सरकार का यही नकारात्मक रवैया था।

इसका जवाब भी तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी जी को देना चाहिए और अगर ना दे सकें तो कम-से-कम अग्रवाल जी की मौत पर राजनीतिक रोटियां नहीं सेकनी चाहिए।

तमाम उम्मीदों के साथ अपनी बात खत्म करते हुए आशा करता हूं कि हम सब नेताओं की अंधभक्ति से बाहर आकर अपने असल मुद्दों और अधिकारों पर भी बात करेंगे।

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