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“गरीबी और बेरोज़गारी के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक कब होगी?”

गरीबी

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किसी भी राष्ट्र के जन्म के साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रक्रिया का आगाज़ होता है, जो राष्ट्र के जीवन में प्रत्येक पहलू से संबंधित होती है। राष्ट्रीय सुरक्षा से तात्पर्य राष्ट्र की एकता-अखंडता-संप्रभुता एवं नागरिकों के जीवन और उनकी संपत्ति की रक्षा करने से है, जिसे सशस्त्र सेनाओं द्वारा पूरा किया जाता है।

किसी भी राष्ट्र को तभी सुरक्षित कहा जा सकता है जब वह आंतरिक खतरों से भी पूर्णतः मुक्त हो। यह उस स्तर के राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया है, जहां राष्ट्रीय आकांक्षाओं के मार्ग में आने वाली समस्त बाधाओं से निपटने में राष्ट्र सक्षम हो जाता है।

फोटो साभार: Getty Images

राष्ट्र की सुरक्षा को बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार से खतरा हो सकता है। बाहर से खतरा होने पर यह पूर्ण रूप से राष्ट्रीय रक्षा के क्षेत्र में आता है। आंतरिक खतरा ‘राष्ट्रीय रक्षा’ एवं ‘सुरक्षा’ दोनों ही क्षेत्रों से संबंधित है।

गौरतलब है कि मंगलवार सुबह 3:45 बजे मिराज-2000 लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान की सीमा में हमला किया जिससे दोनों देशों के बीच तनाव और भी तेज़ हो गए हैं। इस हमले में 350 आतंकियों के मारे जाने की पुष्टि हुई है।

भारत एक विशाल संघीय राष्ट्र है, जो अनेक संस्कृतियों को अपने अंदर संजोए हुए है। यहां भिन्न-भिन्न जातियों, धर्मों और भाषाओं को बोलने वाले लोग निवास करते हैं। आज़ादी के बाद से भारत केंद्रीय सरकार द्वारा शासित एक संप्रभु सशक्त और लोकप्रिय राष्ट्र है, जहां केंद्र एवं राज्यों के मधुर संबंधों से राष्ट्र की एकता को बल मिलता है।

वहीं, राष्ट्र की विशालता एवं प्रांतों के विकास का स्तर अलग-अलग होने से मूल्यों में विभिन्नता स्वाभाविक है। ऐसे में जब राज्य एवं केंद्र की विचारधाराएं एक दूसरे का विरोध करती हैं, तब लोगों में असंतोष की भावना का जन्म होना अनिवार्य है ।

इस असंतोष को बढ़ावा देने में हमारी राजनैतिक व्यवस्था एवं चुनावी प्रक्रिया मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं। असंतोष का प्रमुख कारण सिद्धांतविहीन राजनीति भी है क्योंकि तमाम राजनेता चुनाव जीतने एवं सत्ता प्राप्त करने के लिए अदूरदर्शिता पूर्ण नीति अपनाते हैं।

नक्सलवाद बड़ी समस्या

देश की आंतरिक सुरक्षा को आज ‘नक्सलवाद’ से काफी चुनौतियां मिल रही हैं। नक्सलवाद का आगाज़ 60 के दशक में बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन के ज़रिए हुआ था। नक्सलवाड़ी गाँव में सामंतों के शोषण के खिलाफ कुछ किसानों ने सशस्त्र विद्रोह कर सामंतों को सज़ा दी, जिसके बाद से इसे नक्सलवाद के नाम से जाना गया।

नक्सलवाद का विस्तार

धीरे-धीरे चारू मजूमदार और कानू सान्याल जैसे नेताओं के नेतृत्व में नक्सलवाद का विस्तार पूरे पश्चिम बंगाल में हुआ लेकिन 70 के दशक के दमन और राज्य में वामपंथी पार्टियों के सत्तारूढ़ होने के बाद भूमि सुधार कार्यक्रम के लागू होने के साथ ही आंदोलन पड़ोसी राज्यों में भी अपने पैर पसारता चला गया। आज देश के कई राज्यों में नक्सलवादी गतिविधियां संचालित हो रही हैं, जो राष्ट्र के लिए सिरदर्द बनी हुई है।

नक्सल इलाकों में कई तरह की समितियां व टास्क फोर्स गठित जा चुकी हैं और प्रभावित राज्यों के लिए कई विकास योजनाएं प्रारम्भ की गई हैं लेकिन स्थितियां ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं।

क्षेत्रवाद भी बड़ी वजह

देश में लगातार बढ़ रही क्षेत्रवादी प्रवृत्ति की वजह से आंतरिक सुरक्षा भी बड़ी चुनौती बन गई है। क्षेत्रीयता का तात्पर्य उन प्रवृत्तियों सें है जिसके अंतर्गत विभिन्न भाषायी, जातीय व क्षेत्रीय समुदाय राजनैतिक प्रशासनिक और आर्थिक दृष्टिकोण से स्वायत्तता की मांग करते हैं।

भारत में असम, नागालैंड, मिजोरम, पंजाब तथा जम्मू-कश्मीर मुख्य रूप से क्षेत्रीय आंदोलनों में प्रभावित रहे हैं। स्वाधीनता के पश्चात सन् 1950 के प्रारम्भिक में कुछ सीमित क्षेत्रों में ही क्षेत्रीय अलगाववाद की प्रवृत्ति देखी गई है।

1960 के बाद व्यापक रूप से क्षेत्रीयता की भावनाएं बलवती होने लगीं। सर्वप्रथम पूर्वोत्तर भारत में नागा विद्रोहियों ने अलग राज्य की स्थापना हेतु विद्रोह किया, जिसके पश्चात मद्रास में विशाल आंध्रा आंदोलन तथा द्रविड़ मुनेत्र कडगम का पृथकवादी द्रविड़ आंदोलन हुआ।

इन सबके बीच अकाली दल ने इस तरह का विद्रोह किया कि स्वहित के स्थान पर राष्ट्रहित को ताक पर रख दिया गया और हमारी राष्ट्रीय अखंडता खतरे में पड़ गई।

इन आंदोलनों की चिंगारी धीरे-धीरे अन्य राज्यों में फैलती गई जिससे वहां के हालात भी बिगड़े। हरियाणा और पंजाब के बटवारे के साथ ही पूरा असम छोटे-छोटे अनेक राज्यों में विभक्त हो उठा।

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इसके बाद उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, बिहार से झारखंड और मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ को अलग राज्य दिए जाने की मांग होने लगी जिसके लिए व्यापक आंदोलन चलाए गए। लंबे संघर्ष के बाद उत्तरांचल, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य अस्तित्व में आए।

इन सबके बीच बंगाल ‘बंगालवासियों’ के लिए, महाराष्ट्र ‘महाराष्ट्रवासियों’ के लिए, गुजरात ‘गुजरातवासियों’ के लिए, उत्तराखंड ‘उत्तराखंडवासियों’ के लिए और झारखंड ‘झारखंडवासियों’ के लिए जैसे नारे गुंजने लगे।

दूसरी तरफ असम में बांग्ला शरणार्थियों की हो रही घुसपैठ ने यहां के जन-मानस को चिंतित कर रखा है कि कही वे अपने प्रदेश में अल्पसंख्यक बनकर ना रह जाएं।

जम्मू-कश्मीर की समस्या

जम्मू-कश्मीर समस्या सदाबहार बनी हुई है क्योंकि पाक समर्थित तत्वों ने आतंकवाद का सहारा लेकर इस राज्य को भारत से पृथक करने के लिए सुनियोजित अप्रत्यक्ष युद्ध छेड़ रखा है, जो भारतीय सुरक्षा के लिए कड़ी चुनौती है।

भाषावाद बड़ी चुनौती

भाषावाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्मुख एक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। भाषा व मातृभूमि दो ऐसी चीजें हैं जिससे मनुष्य का जन्मजात प्रेम होता है और इसे भूलना व छोड़ना आसान नहीं है।

भारत में हिन्दी, मराठी, गुजराती, उड़िया, असमी, राजस्थानी, बंगाली, पंजाबी, नेपाली, मणिपुरी, तेलुगू, कोंकणी, कन्नड़ और मलयालम आदि 22 भाषाएं संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल की गई हैं, जिसमें हिन्दी भाषा सर्वत्र बोली और समझी जाती है।

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वहीं, केंद्र सरकार द्वारा जब सरकारी काम-काज में हिन्दी भाषा का प्रयोग करने का आदेश जारी किया गया तब दक्षिण भारत में इसका कड़ा विरोध हुआ। ज्ञातव्य है कि तमिलनाडु में तो भाषायी प्रश्न को लेकर भारत से अलग होने की मांग भी की गई थी।

तोड़-फोड़ व आगजनी के साथ ही कुछ हिन्दी प्रेमियों को अग्नि की भेंट चढ़ा दिया गया था। इस समस्या को लेकर भारत दो भागों में विभाजित हो गया-उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत। यद्यपि भारत की राष्ट्रभाषा समिति ने तीन सूत्री फॉर्मूले को अपनाने का सुझाव दिया जिससे क्षेत्रीय भाषाओं की सुरक्षा हो सके।

इसके अलावा तमाम भाषाओं पर अंग्रेज़ी सर चढ़कर बोल रहा है। यह देखा गया है कि समय-समय पर भाषा संबंधित उलझाव राष्ट्रीय एकता एवं समृद्धि के लिए अपशकुन बन जाता है।

जातिवाद का दंश

एक अन्य समस्या जो आंतरिक सुरक्षा को समय-समय पर चुनौती देती रहती है, वह है जातिवाद। प्राचीन भारत में वृहत्तर भारत की अवधारणा एवं अनेकता में एकता की प्रवृत्ति ने धीरे-धीरे जातिवाद व क्षेत्रवाद की भावनाओं को प्रोत्साहित किया है।

सामाजिक न्याय व दलित उत्थान हेतु मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने तथा जातिगत आरक्षण हेतु देश की कई राज्य सरकारों के मध्य प्रारंभिक प्रतिस्पर्धा ने संपूर्ण भारतीय सामाजिक-व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया है।

आज देश के अंदर विभिन्न राजनीतिक पार्टियां जातिवाद के नाम पर अपनी पहचान बनाने में लगी हैं। यही नहीं, संवैधानिक चुनाव भी जातिवाद के नाम पर लड़े जा रहे हैं।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

ऐसी स्थिति में देश के अंदर अराजकता जैसी घटनाएं घटित होना स्वाभाविक हैं जिससे देश की सुरक्षा को खतरा महसूस किया जा सकता है। हाल ही में राजस्थान में हुआ गुर्जर-मीणा संघर्ष इस तथ्य को उजागर करता है ।

भारत में हज़ारों जनजातियां निवास करती हैं। जनजाति का तात्पर्य ऐसे स्थानीय आदिम समूहों से है जो एक सामान्य क्षेत्र में रहकर सामान्य भाषा बोलते और एक सामान्य संस्कृति का अनुसरण करते हैं।

इन जनजातीय समुदायों का पारस्परिक टकराव तथा इनकी दयनीय, आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक, राजनैतिक, स्वास्थ्य तथा शिक्षा जैसी मुलभूत समस्याएं राष्ट्र के आंतरिक-आयामों को किसी ना किसी रूप में प्रभावित करती हैं।

शिक्षा और रोज़गार से जीवन स्तर में सुधार की उम्मीद

इनके जीवन स्तर को उठाने के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार को बढ़ावा देने के साथ-साथ पुनर्वास के लिए सरकार को एक योजना बनानी चाहिए ताकि अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा और मणिपुर आदि क्षेत्रों की जनजातियों को कोई भड़का ना सके।

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देश की आंतरिक सुरक्षा को साप्रदायिकता का घुन भी अक्सर खोखला करता रहता है। भारत और पाकिस्तान के निर्माण के समय से ही दोनों देशों के बीच सांप्रदायिकता बनी हुई है।

गरीबी कम करने पर विचार करना होगा

भारत में निर्धनता एक बहुत बड़ी समस्या है, जिसका मुख्य कारण बेरोज़गारी, बढ़ती जनसंख्या और देश की आर्थिक स्थिति का ठीक ना होना है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में मनुष्य की तीन मुलभूत आवश्यकताएं हैं- रोटी, कपडा और मकान।

आज भी बहुत से ऐसे परिवार हैं जिनकी यह तीनों आवश्यकताएं पूरी नहीं हैं। वैसे सरकार बेरोज़गारी, अशिक्षा और गरीबी हटाने के लिए डंका पीटती रहती है लेकिन धरातल पर इसकी तस्वीर ना के बराबर है। आज भारत का युवा अपनी मुलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति और अपनी रोज़ी-रोटी के लिए दर-दर भटक रहा है।

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आज भारत शिक्षा, जनसंख्या नियंत्रण तथा सामाजिक-आर्थिक विकास में तेज़ी से पिछड़ता जा रहा है। सरकार द्वारा ‘रोज़गार गारंटी योजना’ कार्यक्रम के तहत काम देने की बात तो की जाती है लेकिन शिक्षा के स्तर में सुधार करते हुए रोज़गार की भी बात होनी चाहिए।

अतः उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जब तक देश के अंदर पनप रही कुरीतियों को पनाह मिलती रहेगी, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, तब तक देश की आंतरिक सुरक्षा किसी ना किसी प्रकार से असुरक्षित रहेगी।

देश के अंदर अमन-चैन बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी है कि लोगों को काम मिले। यदि ऐसा नहीं हुआ तो उनका शोषण कर उनके खाली दिमाग का लाभ ना जाने कितने शैतान उठाएंगे और देश के नागरिकों को ही देश का दुश्मन बना देंगे।

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