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“कई डोमेस्टिक हेल्पर को यौन शोषण की वजह से छोड़नी पड़ती है नौकरी”

घरेलू कामगार महिला

घरेलू कामगार महिला

“मैं एक घर में काम करती थी, एक दिन कमरे में झाड़ू लगाने के दौरान जब पीछे से साहब ने दरवाज़ा बंद कर दिया और मुझे पकड़ने की कोशिश की, मैं बहुत डर गई थी। मैंने उन्हें धक्का दिया और दरवाज़ा खोल कर वहां से भाग निकली। मैं उस बिल्डिंग में फिर कभी काम के लिए नहीं गई।”

उक्त बातें दिल्ली की एक घरेलू कामगार महिला ने बताई।

गुड़गाँव की एक अन्य घरेलू कामगार महिला से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि जिस घर में वह काम करती थी, उनके बड़े बेटे के बेडरूम में अश्लील किताब खुली पड़ी थी, जिसके बाद हमेशा उसे उस कमरे में जाने से डर लगता था।

‘मार्था फैरेल फाउंडेशन’ (MF Foundation Study of Domestic Workers on SHW) द्वारा यौन शोषण की स्थिति पर दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में एक सर्वे किया गया। 291 घरेलू कामगार महिलाओं के साथ हुए सर्वे में 100% महिलाओं को यह मालूम नहीं था कि यौन शोषण की स्थिति में निवारण के लिए शिकायत लेकर वे किसके पास जा सकती हैं।

29% महिलाओं ने कहा कि उनके साथ यौन शोषण हुआ है। 15% महिलाओं ने ऐसी स्थिति में अपने दोस्तों या साथ काम करने वाली महिलाओं के साथ बात की।

वहीं, 13% महिलाओं को यौन शोषण की वजह से अपना रास्ता बदलना पड़ा। लगभग 2.5% महिलाओं को यौन शोषण की वजह से काम छोड़ना पड़ा।

20% महिलाओं का कहना था कि पुलिस को की गई शिकायत का कोई नतीजा नहीं निकला। घरेलू कामगार महिलाओं के साथ हुई बातचीत में हमने जाना कि उनके साथ जो व्यवहार होता है, वह किसी शोषण से काम नहीं है।

उनके लिए अलग बर्तन रखना और उन्हें अलग खाना देना तो बहुत आम बात है। उन्हें मार-पीट और यौन शोषण तक सहन करना पड़ता है और इन सभी स्थितियों में सुनवाई नहीं होती है।

उसके ऊपर डर लगा रहता है कि एक काम कम होने की स्थिति में घर का खर्चा कैसे चलेगा? डर यह भी होता है कि उल्टा चोरी का इल्ज़ाम लगा देंगे या पुलिस द्वारा शोषण किया जाएगा। 

एक सुरक्षित और अनुकूल कार्यस्थल का अधिकार सभी के लिए होने की ज़रूरत है। किसी भी मज़दूर को किसी शोषण या डर के बिना काम करने की आज़ादी होनी चाहिए। शोषण के बारे में हम तब सोचते हैं, जब हमारी बाकी सभी ज़रूरतें पूरी हो जाएं।

असंगठित क्षेत्रों की कामगार महिलाएं ‘मीटू’ से कोसों दूर

असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले कामगारों की सबसे बड़ी चिंता यही रहती है कि उन्हें रोज़गार की सुरक्षा का कोई अंदाज़ा नहीं है। आज मीटू के संदर्भ में यह चर्चा का विषय है कि महिलाओं को शिकायत दर्ज़ कराने में इतना वक्त क्यों लगा या चीज़ों को सामने लाने के लिए किसी अभियान की ज़रूरत क्यों पड़ी?

रोज़गार की सुरक्षा एक बड़ा कारण है कि महिलाएं यौन शोषण की स्थिति में सामने नहीं आती हैं। #MeToo अभियान के कारण यौन उत्पीड़न के मुद्दे पर सबका ध्यान गया और इसे लोगों ने काफी गंभीरता से लिया।

मीटू अभियान सोशल मीडिया तक ही सीमित रहा जिसके कारण इसकी पहुंच भी संगठित क्षेत्रों में काम करने वाली युवा महिलाओं तक ही रही। एक बदलाव जो इस अभियान से आया वो यह कि संस्थाओं या संगठनों ने अपने अंदर झांकना शुरू किया और इसके लिए अपनी संस्थाओं में सशक्त प्रावधान बनाने की शुरुआत हुई।

विशाखा गाइडलाइन्स

‘विशाखा गाइडलाइन्स’ द्वारा बनी समिति और बाद में आतंरिक समिति के तौर पर प्रावधान तो पहले से था मगर इसकी कार्यशैली पर पुन: चर्चा शुरू हुई। ऑफिस जाने वाली महिलाओं को तो इन प्रावधानों के ज़रिए कुछ राहत मिली मगर यह संगठित क्षेत्रों तक ही सीमित थी।

यौन शोषण की स्थिति में कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन शोषण (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम 2013 के मुताबिक जहां संगठित क्षेत्रों में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए आतंरिक समिति के रूप में प्रावधान है, वहीं स्थानीय समिति के रूप में पूरे ज़िला स्तर पर एक व्यवस्था है।

ज़मीनी स्तर पर परेशानियां

इस कानून को अमल में लाने के लिए ‘मार्था फेरेल फाउंडेशन’ द्वारा किए गए दूसरे आरटीआई शोध में यह पता चला है कि हमारे देश की स्थानीय समितियों की स्थिति बहुत खराब है।

देश में 655 ज़िलों में से केवल 191 ज़िलों ने स्थानीय समिति का गठन किया है। कानून के मुताबिक प्रत्येक ज़िले में स्थानीय समितियों का गठन अनिवार्य है, कानून बनने के 5 साल बीतने के बाद भी इस कानून को हम अमल में नहीं ला पाए हैं।

जब हम शोषण की बात करते हैं तो हमें पोज़ीशन की भी बात करनी होगी, (हमारी सामाजिक पोज़ीशन, कार्यस्थल में हमारी पोज़ीशन या पैसे की वजह से हमारी एक पोज़ीशन बनती है) जो किसी भी प्रकार के शोषण का ज़रिया बनता है।

आरटीआई

देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्रों से जुड़ा है, जिसकी पोज़ीशन सबसे निम्न स्तर पर है। जिसे न्यूनतम मज़दूरी के सवाल पर रोज़ लड़ना पड़ता है, जिसे काम की तलाश करनी पड़ती है और जिसे रोज़गार की सुरक्षा प्राप्त नहीं है, क्या वह व्यक्ति शोषण पर सवाल खड़ा कर सकता है?

हमें यह समझना होगा कि हमारा घर भी किसी का कार्यस्थल है और जिस प्रोफेशनलिज़्म और सम्मान की हम खुद के लिए अपने कार्यस्थल से उम्मीद करते हैं, वह हमें अपने घर में काम करने वाले व्यक्ति को भी देना होगा।

प्रातिभ मिश्रा, सीनियर कार्यक्रम अधिकारी

प्रिया दिल्ली

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