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“कश्मीरियों के खिलाफ माहौल बनाकर हम किसको फायदा पहुंचा रहे हैं?”

दूध मांगों तो खीर देंगे,

कश्मीर मांगों तो चीर देंगे

बचपन से ही मैंने यह नारा बहुत सुना है। कश्मीर भारत का मुकुट है, जैसी बातें भी मैंने बचपन से सुनी है पर अचानक ऐसे कौन से हालात बन गए हैं कि कश्मीर तो हमारा है पर कश्मीरी हमारे नहीं है। बात-बात पर यह कहना आम हो गया कि वे पकिस्तान चले जाएं।

मैं उस राज्य से आता हूं, जिसने अभी कश्मीर में अपने 3 बच्चों को खोया है, जिसमें मोहन लाल रतूड़ी, मेजर चित्रेश बिष्ट और मेजर विभूति शंकर ढौंडियाल शामिल हैं। इन बलिदानों पर हमें नाज़ है कि देश की सेवा करते हुए इन तीनों ने सर्वोच्च बलिदान दिया।

किसी भी आम नागरिक की तरह मुझे भी गुस्सा है कि कैसे हमारे जवान सीमा पर अपने जान गंवा रहे हैं पर मैं गुस्से से भर जाता हूं जब मैं पाता हूं कि यह देशभक्ति कुछ चुनिंदा लोगों की जागीरदारी बन जाती है। देहरादून में कई स्कूल, कॉलेज तथा प्राइवेट यूनिवर्सिटी होने के नाते सारे भारत देश के बच्चे यहां पढ़ने आते हैं, जिसमें कश्मीरी स्टूडेंट्स भी बड़ी संख्या में हैं। एक स्टूडेंट ने जम्मू कश्मीर के पुलवामा में आतंकवादियों द्वारा हुए हमले पर एक आपत्तिजनक पोस्ट लिखी थी। संस्थान ने संज्ञान लेते हुए छात्र को निष्कासित कर दिया और पुलिस ने भी सही ढंग से मामले को संभाला।

अचानक देशभक्ति की आड़ में लोग भीड़ बनकर कॉलेज, यूनिवर्सिटी जाने लगे कि सारे कश्मीरी स्टूडेंट्स को निकालो, कुछ कॉलेज ने यह लिखकर दिया कि अगले सत्र से वे कश्मीरी छात्रों को नहीं रखेंगे। 

सोशल मीडिया पर बयान भर गया हज़ारों सवालों से कि कोई कॉलेज कैसे कर सकता है यह? सही किया कॉलेज ने निकालो सारे देशद्रोहियों को, और भी ना जाने क्या-क्या पर किसी भी कॉलेज ने यह खुशी से नहीं दिया है। यह प्रैक्टिकल बात है, हाथ में डंडे लेकर भीड़ कॉलेज के बाहर खड़ी हो तो कोई भी कॉलेज डर के मारे कुछ भी लिख सकता है। बाबा फरीद इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी के प्रधानाध्यापक असलम सिद्दीकी ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा,

संस्थान उस दिन खुला था और परिसर में कश्मीरी स्टूडेंट्स थे। हमलोग उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे इसलिए हमने कहा कि आगामी सत्र से किसी कश्मीरी स्टूडेंट्स को दाखिला नहीं दिया जाएगा।

सिद्दीकी ने आगे कहा,

भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती। भीड़ में उन्माद था, जिसमें आस-पड़ोस के गांव के लोग भी थे। वे हमें सुनने को बिल्कुल तैयार नहीं थे और उनसे तर्क-वितर्क का कोई फायदा नहीं था। वे सिर्फ हमसे कश्मीरी छात्रों को दाखिला नहीं देने को लेकर लिखित में आश्वासन चाहते थे और ऐसे हालात में हमने वही किया।

देहरादून में पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ उस घटनाक्रम में जितनी ज़िम्मेदारी के साथ पुलिस आगे आई उसकी तारीफ करनी होगी। फेसबुक पटा पड़ा था अफवाहों से और ये अफवाहें केवल आम लोग नहीं फैला रहे थे बल्कि समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले भी अफवाहों का बाज़ार गर्म कर रहे थे।

यह जो डर का माहौल बनाया जा रहा है देहरादून की शांत वादियों में इसे वक्त रहते रोकना होगा। हम जितनी आसानी से कहते हैं कि ये कश्मीरी खाते इंडिया का है, पहनते इंडिया का है फिर क्यों पाकिस्तान की तरफ जाना चाहते हैं? तो यह बात हम जितनी आसानी से कह जाते हैं उतनी आसान है नहीं यह बात। हल क्या है मुझे नहीं पता पर इतना कह सकता हूं कि अगर हम डर का यही माहौल देहरादून या देश के अन्य भागों में कश्मीरी या अन्य लोगों के लिए बनाते रहें तो डर और खौफ की राजनीति को हम बढ़ावा देंगे। शायद किसी दिन हम भी उस डर की चपेट में ना आ जाएं।

कश्मीर हमारा है तो उसके लोग भी हमारे हैं, उनकी इज्ज़त कीजिये और देशभक्ति में इतने अंधे ना हो जाइये कि उसे कोई चुनावी मुद्दा बनाकर वोट बैंक की राजनीति कर जाए। देहरादून में हुआ पिछले दिनों का घटनाक्रम अपने जवानों के सर्वोच्च बलिदान को श्रद्धांजलि देना नहीं बल्कि उनके बलिदान पर पलीता लगाने जैसा था।

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