हाल ही में खबर के माध्यम से जावेद अख्तर की एक नयी गज़ल के बारे में मालूल चला। गज़ल का मतलब है, “जो बात कहते डरते हैं सब, तू वो बात लिख, इतनी अंधेरी थी ना कभी पहले रात लिख”। मेरे हिसाब से यह बहुत ही घटिया शेर है।
खबर में यह दावा किया गया के यह गज़ल आज के शायरों/ लेखकों के लिए एक किस्म की ज़ोरदार गुज़ारिश कि वो इस अंधेरे समय में लिखें। हालांकि यह समय कितना अंधकारपूर्ण है यह चर्चा का विषय है। खबर पढ़कर ऐसा लगा कि जावेद अख्तर आज के समय के बेर्तोल ब्रेख्त हैं। यह बेहद हास्यास्पद है कि पाठक को कुछ ऐसा महसूस हो, क्योंकि यह गज़ल उस किस्म का नहीं कि इसे उस तरह की तरज़ीह दी जाए।
आज के समय की उर्दू शायरी में यह किस किस्म की गिरावट हम देख रहे हैं कि उर्दू शायरी की तरक्कीपसंद तहरीर की नुमाइंदगी के लिए हमारे पास बस एक ही चेहरा बचा है, जो जावेद अख्तर हैं। अगर ऐसा है तो यकीनन हम एक अंधकारपूर्ण समय में जी रहे हैं और हमें यह लिखना होगा कि ऐसा क्यों है कि इंकलाबी उर्दू शायरी की शानदार तारीख की नुमाइंदगी हमारे पास बस जावेद अख्तर हैं। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि हर एक अदबी जश्नों में उर्दू की नुमाइंदगी के लिए जावेद अख्तर नज़र आ जाते हैं। हमारे पास ऐसे लोग मौजूद हैं, जिन्होंने अपनी आधी ज़िन्दगी एक शायर को पढ़ने और समझने में गुज़ार दी है, जैसे कि शमसुर रेहमान फारूक़ी, शमीम हनफी, ख्वाजा तारिक महमूद आदि।
अब बात आती है गज़ल के खबर हो जाने की। आमतौर पर देखा जाए तो एक गज़ल या नज़्म का खबर हो जाना उस शायरी की गिरावट को दर्शाता है। शायरी अपने दम पर अपना मकाम तय करती है। शायरी में वह ताकत होती है कि लोगों की जुबां पर चढ़कर उनके ज़ेहन पर असर कर जाए। मुझे नहीं लगता कि हमने गालिब, जलील, दाग, मीर, फैज़, जालिब, साहिर आदि की गज़लों को खबरों के माधयम से जाना हो।
जो शायर हमारे बीच मौज़ूद नहीं उनकी शायरी को खबर होना चाहिए जैसे कि साहिर की नज़्म “ऐ शरीफ इंसानों” को खबर के माधयम से बताया जाना चाहिए कि ऐसा कोई शायर था, जिसने ऐसा कुछ कहा था और खबर के लिए हमारे पास बहुत अच्छी और जावेद अख्तर से बेहतर शायरी मौजूद हैं। जैसे कि आज के समय में दुष्यंत की शायरी बहुत प्रासंगिक है। खासतौर पर यह शेर “तेरा निज़ाम है, सिल दे ज़ुबान-ए-शायर को। यह एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।” अदम गोंडवी भी एक शायर हैं आप उनकी शायरी को खबर कीजिये। अदम गोंडवी कुछ यूं कहते हैं-
भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है
अहले हिन्दुस्तान अब तलवार के साये में है।
छा गई है जेहन की परतों पर मायूसी की धूप
आदमी गिरती हुई दीवार के साये में है।
यह लोगों को तय करना होगा कि किस शायरी का खबर होना ज़रूरी है और जावेद अख्तर तो अभी ज़िंदा हैं। अपनी शायरी की नुमाइंदगी खुद कर लेंगे उन्हें खबरों की क्या ज़रूरत है। यह जावेद अख्तर की दिक्कत नहीं है, यह लोगों की दिक्कत है कि वे अच्छी शायरी और एक मशहूर आदमी की शायरी में फर्क नहीं कर पा रहे हैं। देखिये बहुत कुछ अच्छा लिखा गया है और लिखा जा रहा है वो पढ़ा जाना चाहिए। बाकी मशहूर तो नरेंद्र मोदी भी हैं।
अदम गोंडवी के दो शेर और
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है