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पिता के धर्म को निभाती हुई फिल्म ‘दंगल’

नितेश तिवारी के निर्देशन में बनी हिंदी फीचर फिल्म “दंगल” हरियाणा की सामाजिक-रुढ़िवादी पृष्ठभूमि को सहेजने में सफल हुई जरूर दिखती है. बावजूद इसके फिल्म में आमिर खान जो रियल जिन्दगी के पहलवान महावीर फोगाट का किरदार निभाते है, वह खूब जमता है, उधर दूसरी तरफ महावीर फोगाट की बेटियों का किरदार निभाने वाली अभिनेत्रियों में जायरा वसीम (गीता फोगाट), व सुहानी भटनागर (बबिता फोगाट) के अभिनय की भूरी-भूरी प्रशंसा होनी ही चाहिए. पात्रों से हटकर अगर बात की जाये कहानी की तो वह अपनी स्त्री सम्बंधी पहचान की सम्पूर्णता को सहेजने में जरूर कामयाब हुई है साथ ही फिल्म उन मानवीय मूल्यों को भी पिरोती है जो एक व्यक्ति के जीवन का हिस्सा है. फिल्म में लड़ने की इच्छा, बाप का प्यार, हार न मानने की जिद्द तथा आधुनिकता सहित तकनीक का झांसे से परे अपने आप व अपने तरीकों का ही प्रयोग, जिसमें एक बाप के प्यार व दुआओं का  मिश्रण अधिक था, को स्थापित आदि करना आदि बहूत सी अन्य खुबिया इस फिल्म में है. पिछली कुश्ती पर आधारित फिल्म, जो सलमान खान की ‘सुलतान’ थी वह पत्नी के प्रेम पर केन्द्रित थी और ‘दंगल’ को देखें तो यह स्त्री पहचान को केन्द्रित ही ज्यादा करती है और अन्य दूसरी बात के रूप में ,वह घटना जब हम याद करते है- जिसमें गीता फोगाट नेशनल एकेडमी में कुश्ती हेतु ट्रेनिंग सेंटर जाती है और वंहा जो उसे परीक्षक मिलता है, वह जिस तरीके का प्रयोग उसे करने को कहता है और दूसरी तरफ उसके पिता ने उसे जो शिक्षा दी. गीता ने नई तकनीक को अपनाया और जंहा से वह लड़ने के काबिल बनी उसे नजरअंदाज कर दिया जिसके नतीजन उसे हार का ही मुह देखना पड़ा. वह जीवन में किसका सही चुनाव करे की सीख जरूर देता है. आखिर फिल्म में वह जितने के लिए अपने पिता के बताये रास्ते पर ही चलती है और उसे जीत हासिल हो जाती है. यह एक घटना उन तमाम मूल्यों को पिरोती है जिसे आज की युवा पीढ़ी को सिखने की जरूरत है कि क्या सही है और क्या गलत है. इस फिल्म ने पिता के कर्तव्य तथा उसकी वह इच्छा जिसने अपनी बेटियों को वह स्थान दिया जो कि हरियाणा जैसे पारम्परिक मूल्यों को पोषित करता हुआ राज्य में असम्भव सा ही जान पड़ता था दूसरी तरफ माँ की भी भूमिका कोई कम नहीं थी. जिसने अपने पति-धर्म को निभाते हुए अपने पति का साथ देते हुए अपनी बेटियों गीता व बबिता को इस लायक बनाया की वो आखिर गोल्ड लाने में सह-भागीदार जरूर बन गई. खैर फिल्म इस मामले में कई ऐसे अनछुए पहलुओ को सहेजती है, जिनको जितना बताया जाये वह कम है, इसको देखकर ही महसूस ज्यादा किया जा सकता है…..अंतिम रूप से फिल्म का जो मकसद है. पूरा हुआ दिखाई देता है….वाह आमिर वाह……..

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