बिगुल बज चुका है, रणभूमि तैयार है। और इस युद्ध के विजेता अगले 5 वर्षों तक हमारे नीति निर्माता होंगे। जो भविष्य के भारत का निर्माण करेंगे। और इस
लोकतंत्र के महापर्व में सभी दल युवाओं के भागीदारी की बात करते हैं, लेकिन ये भागीदारी सिर्फ वोट देने तक हीं सीमित रहता है। 30 से 40 वर्ष तक के वे युवा जो भ्र्ष्ट तंत्र से लड़ रहे हैं ….
संसदीय राजनीति में उनकी भागीदारी के लिए कितने राजनीतिक दल तत्पर हैं?
मुझे तो कोई नहीं दिखता।
हमारा इस्तेमाल सिर्फ शोर मचाने, विरोधियों को गाली देने के लिए हीं हो रहा है। बात अगर सिर्फ अररिया की करें तो वर्तमान सांसद अपने पिता के वारिस के तौर पर फिर से ताल ठोक रहे हैं । इनकी उपलब्धि मरहूम तस्लीम साहब के पुत्र होने के अलावा सिफर है। वो तस्लीम साहब जो सीमांचल के स्वयंभू “गांधी” कहलवाते थे। ये सीमांचल शब्द पूर्वी मिथिला के मस्तक पर कलंक की तरह स्थापित हो चुका है, वो मिथिला जो जिसका इतिहास वैदिक काल से हीं स्वर्णिम रहा है।
तो दूसरी तरफ विधायक और सांसद रह चुके एक और
माननीय। लगातार दो चुनाव हारकर भी ये पार्टी में इतने दमदार हैं कि फिर से इन्हें उम्मीदवारी मिल गयी। इनकी उपलब्धि क्या है ये सभी जानते हैं।
और इन सब के बीच जो अररिया के असली नेता हैं दो युवा प्रसेनजित कृष्ण और आशीष भारद्वाज हैं। जो जिले में कई भ्र्ष्टाचार और अनियमितता को उजागर कर चुके हैं, जिनमें कई भ्रष्ट सफेदपोश और अफसरों की संलिप्तता होने की संभावना है।
मेरा प्रश्न साफ है, युवाओं के भागीदारी की बात करनेवाले वाली पार्टी इन्हें अपना उम्मीदवार क्यों नहीं बनाती?
जिले के कई युवक इन्हें आदर्श मानकर भ्र्ष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठाते रहते हैं। अगर इन्हें संसदीय पावर मिलता है तो जरूर ये जिले के बेहतरी के लिए कार्य करेंगे। झूठे मुकदमे और बेलगाम अफसरशाही के कारण जेल जा चुके प्रसेनजित ने एक निजी बातचीत में मुझसे कहा था, अब हम पीछे हटेंगे तो कई युवकों का मनोबल टूट जाएगा। ऐसे जज्बा रखने वाले हीं हमारे प्रतिनिधि हो सकते हैं। हम किसी के बंधुआ नहीं जो आँख मूंद कर किसी को वोट दें, आज सबसे ज्यादा समस्याओं से युवा वर्ग जूझ रहा है, इसीलिए हमारा नेता ऐसा होना चाहिए जो हमारे दुख को समझे।
बांकी आप खुद समझदार हैं?।।