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“आरएसएस ने कभी भारत के संविधान और तिरंगा का सम्मान नहीं किया”

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा के नेता जनता के बीच फूट डालने और उन्माद फैलाने का काम करते हैं लेकिन संविधान को मानने का दिखावा करते हैं। भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा टी.वी. चैनलों पर संविधान की रट लगाते हैं, संविधान के अनुसार गठित सुप्रीम कोर्ट की दुहाई देते हैं मगर सच तो यह है कि आरएसएस को भारत के संविधान से नफरत है।

संघ संविधान से अपनी असहमतियां तार्किक आधार पर नहीं रखता है क्योंकि तर्क से तो संघ का छत्तीस का आँकड़ा है। अतार्किकता पर ही उसने नफरत का धंधा खड़ा किया है। संघ के संविधान विरोध का आधार उसका झूठा प्राचीनता का बहाना है जिसके अनुसार प्राचीन काल में ‘स्वर्ण युग’ था जबकि ऐतिहासिक सत्यता इस बात को कहीं भी प्रमाणित नहीं करते हैं।

जब से संविधान लागू हुआ तब से आरएसएस के प्रमुख नेताओं ने उसका विरोध ही किया है। एक तरफ संघ अतार्किक रूप से संविधान को अप्रश्नेय और पवित्र-पूज्य बनाने की मनोवृत्ति का प्रचार करता है। दूसरी तरफ उसके नेताओं के मन में एक तानाशाही पूर्ण व्यवस्था का सपना है जहां जनवाद, आधुनिक मूल्यों और समानता जैसे विचार हैं ही नहीं।

वैसे तो भारतीय संविधान के बनने की प्रक्रिया में ही जनवाद का पालन नहीं किया गया। 11.5% मताधिकार के आधार पर गठित कमिटी के द्वारा 1935 के गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट को काट-छांट कर इसे बनाया गया। आज़ाद भारत में वयस्क मताधिकार के आधार पर संविधान सभा बुलाने का वादा आज तक पूरा नहीं हुआ है।

फोटो साभार: Getty Images

एक ओर जहां भारतीय संविधान जनता को कुछ जनवादी अधिकार देने का प्रावधान रखता है वहीं दूसरे हाथ से उन्हें छीन लेने के अधिकार भी इसमें दिए गए हैं। भारत में इमरजेंसी भी संविधान के अनुसार ही लगाया गया था।

यह संविधान सम्पत्ति की सुरक्षा मुहैया करता है। पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली और श्रम के शोषण की लूट इसी संविधान के ढांचे में अविराम जारी है। निजी सम्पत्ति का रक्षक यह संविधान तमाम विचित्रताएं और अंतरविरोधपूर्ण वक्तव्यों को अपने अंदर समाए हुए है। भारतीय मेहनतकश जनता के हितों को देखते हुए यह अपर्याप्त है। लेकिन आरएसएस इससे बेहतर विकल्प सुझाने की जगह पूरे इतिहास चक्र को पीछे ले जाना चाहता है।

1949 में आरएसएस प्रमुख गोलवलकर ने अपने एक भाषण में कहा, “संविधान बनाते समय अपने ‘स्वत्व’ को, अपने हिंदूपन को विस्मृत कर दिया गया। उस कारण एक सूत्रता की वृत्तीर्ण रहने से देश में विच्छेद उत्पन्न करने वाला संविधान बनाया गया। हम में एकता का निर्माण करने वाली भावना कौन सी है, इसकी जानकारी नहीं होने से ही यह संविधान एक तत्व का पोषक नहीं बन सका। एक देश, एक राष्ट्र तथा एक ही राज्य की एकात्मक शासन रचना स्वीकार करनी होगी। एक ही संसद हो, एक ही मंत्रिमण्डल हो, जो देश की शासन सुविधा के अनुकूल विभागों में व्यवस्था कर सके।” (गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-2, पृष्ठ 144)

यहां गोलवलकर संविधान को कोसते हैं। उनको वह संविधान पसंद है जो ‘मनुस्मृति’ में है। उन्हें इस बात से आपत्ति है कि भारत में अलग-अलग राज्य क्यों हैं? गोलवलकर ने 1940 में चेन्नई में आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा,

“एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने कोने में प्रज्वलित कर रहा है।” (गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-1, पृष्ठ 11)

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गोलवलकर के सिद्धांत जनवाद-विरोधी और हिटलरी तानाशाही को मानने वाले हैं। आज एक सामान्य आदमी भी जानता है कि एक व्यक्ति की तानाशाही से बेहतर है कि लोग मिलकर फैसला लें। संघ में संघ प्रमुख का चुनाव किसी मतदान से नहीं बल्कि उत्तराधिकार के नियम के तहत पिछला सरसंघचालक तय करता है। संघ की यही मंशा है कि भारत को एक हिंदुत्ववादी तानाशाही राज्य बनाया जाए। संघ में तर्क की जगह भक्ति और जनमत की जगह तानाशाही की शिक्षा दी जाती है।

संघ में प्रतिज्ञा करवाई जाती है, “सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि अपने पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू समाज का संरक्षण कर हिन्दू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूं। संघ का कार्य मैं प्रामाणिकता से, निःस्वार्थ बुद्धि से तथा तन, मन, धन पूर्वक करूंगा। भारत माता की जय।”  

(आर एस एस, शाखा दर्शिका, ज्ञानगंगा जयपुर, 1997, पृष्ठ- 1)

यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आरएसएस के सदस्य रहे नरेन्द्र मोदी भी यही प्रतिज्ञा लेते होंगे। ऐसी स्थिति में वह भारतीय संविधान के अनुसार भारत के सभी नागरिकों के साथ एक समान व्यवहार कैसे करेंगे, जबकि भारत में अन्य धर्मों के लोग भी रहते हैं। यह सोचने का विषय है कि एक तरफ कोई हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात करे और दूसरी तरफ संविधान के अनुसार हिन्दू-मुस्लिम एकता की भी बात करे तो वह कोई सच्चा इंसान नहीं बल्कि अवसरवादी ही होगा।

क्या आरएसएस भारत के संघीय ढाँचे का सम्मान करता है?

भारत के संविधान में संघीय राज्य की कल्पना की गयी है जिसमें विभिन्न राज्यों के एक संघ के रूप में भारत को रखा गया है। कुछ अधिकार राज्यों के दायरे में हैं और कुछ अधिकार केंद्र सरकार के दायरे में है। इस संकल्पना के पीछे बहु संस्कृति, भाषा और मान्यताओं के सम्मान और अधिकार की धारणा सैद्धांतिक रूप से काम करती है। मगर संघ को तानाशाही और एक शासक का विचार ही मान्य है।

संघ-भाजपा किस तरह से संघात्मक प्रणाली के विरोधी हैं यह उनके ही मुँह से जानना बेहतर होगा। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘विचार नवनीत’ में एक शासक अनुवर्त्तिता को लागू करने के लिए कहा, “इस लक्ष्य की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम यह होगा कि हम अपने देश के विधान से संघीय ढाँचे (फेडरल) की सम्पूर्ण चर्चा को सदैव के लिए समाप्त कर दें, एक राज्य के अर्थात भारत के अंतर्गत अनेक स्वायत्त अथवा अर्ध स्वायत्त राज्यों के अस्तित्व को मिटा दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधान मण्डल, एक कार्य पालिका घोषित करें। उसमें खंडात्मक, क्षेत्रीय, सांप्रदायिक, भाषाई अथवा अन्य प्रकार के गर्व के चिन्ह को भी नहीं होना चाहिए। इन भावनाओं को हमारे एकत्व के सामंजस्य को विध्वंस करने का अवकाश नहीं मिलना चाहिए।”

(एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ -227)

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, “आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटाकर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।” (गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-3, पृष्ठ 128)

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भाषा, क्षेत्र और संस्कृति की अनेकताओं को समाप्त कर संघ हर क्षेत्र में जिस “शुद्धता” की बात करता है वह एक ऐसी “शुद्धता” है जिसमें देश की बहु संस्कृति को फासीवादी, ब्राह्मणवादी, वर्चस्वकारी तानाशाही शुद्धता में बदलना है। इसके सिवा और क्या कारण हो सकता है कि वह तमाम सांस्कृतिक विविधता को मिटा देना चाहता है? वह चाहता है कि जैसे संघ सोचता है वैसे ही लोग सोचें और बोलें। संघ लोगों के मस्तिष्क से उनके खुद के विवेक को हटाकर उन्हें मानसिक रूप से अपना गुलाम बनाना चाहता है।

तिरंगे झंडे पर राजनीति करने वाले संघ-भाजपा के तिरंगा प्रेम का सच।

किसी भी देश का ध्वज ऐतिहासिक रूप से निर्धारित होता है। जनता अपने संघर्षों के दौरान अपने ध्वज का चयन और विकास करती है। ध्वज एक प्रतीक के रूप में उनके बलिदानों, संघर्षों और लक्ष्यों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी मुल्क में ध्वज उस मुल्क की जनता का प्रतीक तभी बनता है जब उसके साथ जनता का संघर्ष और उसकी आकांक्षाएं शामिल हो।

इस रूप में संघर्षरत जनता अपने ध्वज को बदलती है और पुराने ध्वज जो शासक वर्गों के प्रतीक में बदल गए होते हैं उन्हें हटाती है। संघर्षरत जनता का अपना ध्वज चुनना एक बात है और प्रतीकों की राजनीति करना और इनके आधार पर लोगों को बाँटना दूसरी बात। यह सच है कि आज़ादी के दौरान तिरंगा स्वीकार किया गया लेकिन आने वाले समय में संघर्षरत भारतीय जनता जो मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ़ संघर्ष करती हुई खड़ी होगी, वह अपना ध्वज चुनेगी।

लेकिन आरएसएस अलग ही राग अलापता है। दूसरों से बात-बात पर देश-प्रेम, संविधान प्रेम और तिरंगा प्रेम का प्रमाण मांगने वाले संघ ने खुद क्या कभी तिरंगे झण्डे को अपनाया? इंडिया गेट पर योग दिवस पर दिखावा करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तिरंगे से अपनी नाक और पसीना पोंछते दिखे। अगर यही काम किसी गैर संघी से हो जाता तो भाजपा और संघ उसे ‘देशद्रोही’ बताने में ज़रा भी देर नहीं करते।

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दरअसल संघ के लिए हर एक भावना, हर एक विचार उनका अपना उल्लू सीधा करने का हथियार है। जब आज़ादी की लड़ाई के दौरान 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया तब आरएसएस प्रमुख डॉ. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी कर तमाम शाखाओं पर भगवा झंडा फहराने का निर्देश दिया।

आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी पत्र ऑर्गनाइज़र में 14 अगस्त 1947 वाले अंक में लिखा, “वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा ना इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा और ना ही अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हो वह बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेह होगा।”

गोलवलकर ने अपने लेख में कहा, “कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल राजनीतिक, कामचलाऊ और तात्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परंपरा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है। हमारा राष्ट्र एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब क्या हमारा कोई अपना ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे दिमाग में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?”

(एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 237)

दरअसल आरएसएस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण शासक पेशवाओं के भगवा झंडे को भारत का राष्ट्रध्वज बनाना चाहता है। गोलवलकर ने इस बारे में कहा, “हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है। इसलिए इसी परम वंदनीय ध्वज को हमने अपने गुरुस्थान में रखना उचित समझा है। यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष सारा राष्ट्र नतमस्तक होगा।”

(गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’,भारतीय विचार साधना, नागपुर, खंड-1, पृष्ठ 98)

यही आरएसएस आज पूरे देश में तिरंगे के नाम पर हिन्दू-मुस्लिम कार्ड खेलता है और सबसे बड़ा तिरंगा प्रेमी बनता है। आरएसएस का यह दो-मुँहापन दरअसल मुँह में राम और बगल में छूरी वाला हाल है जो जनता को बेवकूफ़ बनाकर उनमें आपसी झगड़ा-फसाद करवाकर पूँजीपतियों की तिजोरियां भरता है। जनता की हर भावना से खेलना एवं स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रतीकों का इस्तेमाल करना इनकी पुरानी आदत है।

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