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“प्रिय अध्यापकों, शिक्षा को व्यापार मत बनाइए क्योंकि इसी से देश का विकास है”

कोचिंग जाते छात्र

कोचिंग जाते छात्र

एक समय था जब हमारे विद्यालय के मुख्य द्वार पर लिखा होता था “शिक्षार्थ आइए-सेवार्थ जाइए” मगर आज के तथाकथित विद्यालयों में इस पंक्ति के साथ-साथ इसके भाव भी लुप्त हो गए हैं।

बिना सरकारी मान्यता और संसाधन के तमाम विद्यालय अप्रशिक्षित शिक्षकों को लेकर किराए के भवनों में कक्षाएं चला रहे हैं फिर भी ये विद्यालय सर्वांगीण विकास का दावा करते हैं।

आज हमें यह जानने की ज़रूरत है कि इन विद्यालयों से हमारी शिक्षा की गुणवत्ता किस स्तर पर जा रही है। क्या इन सभी के अंतर्मन में आज अचानक से सेवा भाव इतना प्रचंड हो गया है कि विद्यार्थिओं का भविष्य बनाने का संकल्प ही ले लिया? या यह मान कर चला जाए कि आज सरकारी विद्यालयों की कमी हो गई है?

आज जितना लाभ शिक्षा के क्षेत्र में है, उतना कहीं और देखने को नहीं मिलता है और यही कारण है कि गैर-सरकारी विद्यालयों में धन कमाने की होड़ लगी है। जैसे ही बात धनोपार्जन की आती है, वहां पर शिक्षा को ताक पर रख दिया जाता है।

आज व्यवसाय की शिक्षा देते-देते विद्यालय शिक्षा का व्यवसाय करने लगे हैं और शिक्षा विभाग से संबंधित अधिकारियों की छत्रछाया में इनका व्यवसाय काफी फल-फूल रहा है।

छात्रों से पैसों की वसूली

सबसे पहले व्यवसाय का प्रारंभ होता है दान से, जो कि विद्यालय प्रशासन द्वारा अभिभावकों अथवा परिजनों से विद्यार्थी के प्रवेश के समय विकास कार्य हेतु दान के रूप में मांगी जाती है। ऐसी चीज़ों की कोई कोई रसीद नहीं दी जाती और लेखा-जोखा भी विद्यालय प्रशासन तक ही गुप्त रखा जाता है।

इसके पश्चात बात आती है स्कूल फीस की जो पहले ही आम आदमी के लिए जुटाना बहुत बड़ी बात है। आए दिन बाहर घुमाने के नाम पर होने वाले खर्चों को जब मनमाने ढंग से अभिभावकों की जेब से निकाला जाता है फिर तो स्थितियां और भी खराब हो जाती हैं।

विद्यालय के अंदर कपड़ों और पुस्तकों का व्यापार

कपड़ों और पुस्तकों का बोझ एक माध्यम वर्गीय परिवार मुश्किल और निम्नवर्गीय परिवार के लिए असहनीय हो जाता है। विद्यालय के पहनावे के नाम पर भी विद्यालय के अन्दर ही कपड़ों का व्यापार होता है, कपड़ों और अन्य पाठ्य सामग्रियों को निम्न मूल्य पर खरीद कर अधिक मूल्य पर विधार्थियों को बेचा जाता है।

फोटो साभार: Getty Images

ठीक ऐसा ही पुस्तकों के साथ भी होता है। विद्यालय प्रशासन द्वारा केवल उन्हीं पुस्तकों को खरीदा जाता है, जो उन्हें सस्ती पड़ती हैं। विद्यालयों को पुस्तकों की शब्दावली, पाठ्यक्रम अथवा लेखक से कोई लगाव नहीं है।

इस प्रकार हर विद्यालय में अलग-अलग प्रकाशन की पुस्तकें चलाई जाती हैं, जो विद्यालयों द्वारा अधिक दरों पर बेची जाती हैं। महंगी होने के कारण इनको खरीदने के लिए अभिभावकों के माथे पर बल पड़ जाते हैं।

ट्यूशन पढ़ाने का खेल

प्रतियोगिता में बने रहने के लिए विद्यालय के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने विद्यार्थियों के परीक्षा परिणाम को सबसे अच्छा दिखाए। इसके लिए वह अधिक से अधिक विद्यार्थिओं को उन्हीं के स्कूल के शिक्षकों के घरों पर शिक्षण प्राप्त करने हेतु प्रेरित करते हैं, जहां परीक्षा में आने वाले प्रश्नों के उत्तर भी बच्चों के ज़हन में डाल दिया जाता है।

इससे जो धन अध्यापक को विद्यालय में पढ़ाने के लिए विद्यालय को देना पड़ता है, वह घर पर पढ़ाने से सीधे अभिभावकों से मिल जाता है। इस प्रकार इसका लाभ अध्यापक तथा विद्यालय दोनों को पहुंचता है। अभिभावकों पर खर्च की दोहरी मार पड़ती है और बिना असली ज्ञान लिए रट्टा लगाने से विधार्थी को जीवन पर्यंत इसका भारी मूल्य चुकाना पड़ता है।

आज आवश्यकता है सरकार द्वारा इस दिशा में कुछ कड़े कदम उठाने की ताकि भारत को विश्व गुरू बनाने का दर्ज़ा प्राप्त हो सके। वहा दौर फिर से आए जब विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए सम्पूर्ण विश्व से विद्यार्थी बेताब रहते थे।

खराब शिक्षा नीति बड़ी वजह

आज जो यह शिक्षा की दुर्दशा हुई है, उसका मुख्य कारण हमारी शिक्षा नीति का अक्षम होना है। मौजूदा दौर में जिस शिक्षा नीति की बात हम करते हैं, उनका भी पालन ढंग से नहीं किया जाता है।

इसके कारण नैतिक शिक्षा, हिंदी और हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति को शिक्षा के ठेकेदारों ने अंग्रेज़ी शिक्षा और पाश्चात्य संस्कृति के लिए कौड़ियों के भाव बेच डाला है।

इन्हीं वजहों से भारत और उसके किशोरों का भविष्य अंधेरे की ओर जा रहा है। यदि अभी भी इसमें सुधार नहीं किया गया तो वह समय दूर नहीं जब भारत अपनी पहचान खो देगा और केवल एक इंडिया बन कर रह जाएगा।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

हमारे देश में शिक्षा का महत्व जो पहले था, शायद अब नहीं रहा है क्योंकि जो अध्ययन शिक्षा के लिए होना चाहिए, वह एक व्यवसाय के लिए हो रहा है।

शिक्षा के लिए इंसान लाखों पेसे खर्च कर रहा है जो सिर्फ दिखावे की वस्तु साबित हो रही है। पहले की शिक्षा में सिर्फ शिक्षा दी जाती थी परन्तु अब जो शिक्षा दी जा रही है, वह सिर्फ दिखावटी व्यवसाय बन चुका है।

शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों को भगवान माना जाता है लेकिन वे शिक्षा को पेसौं के साथ बेच रहे हैं। कई बार जब अखबारों में शिक्षा व अध्यापक के गलत कारनामों के बारे में खबरें मिलती हैं, तब देश शर्मसार हो जाता है।

अध्यापक व विद्यार्थी का रिश्ता एक दोस्त व गुरू का होता है परन्तु आज के समय में आध्यापक ही शिक्षा के नाम व्यवसाय चला रहे हैं। मेरी शिक्षा के ठेकेदारों  से विनती है कि शिक्षा को व्यवसाय से ना जोड़ें क्योंकि शिक्षा से ही भारत का विकास है।

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