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रंग ऐसा दीजो कि छुटन न जाए…

“होली” उच्चारण से मन में हिलोरें केवल एक शब्द मात्र नहीं है, यह फाल्गुनी पूर्णिमा पर वसंत का फैलता सुवास भारतीय जन-जीवन में डूबता उतरता गंगा-जमुनी तहज़ीब के बीच में पल रहा रंग-अबीर का रंगोत्सव है। जिसमें पीले सरसों, रंग-बिरगे फूलों के रंगों के साथ मिलकर समस्त मानवता, पहली रात में होलीका के आग के साथ सारी रंजिशे जलाते-भुलाते है, दूसरे दिन मन के बचे-खुचे मैल रंगों से धोते है और शाम को खुले और धुले मन से प्रेम-प्यार के वातावरण में गुलाल के रंगों के साथ एक-दूसरे से गले मिलते है।

रंग खुशी का प्रेम भाव मन को मोह कर हर किसी को अपना अजीज बना लेता है। हम हर समय एक-दूसरे को अपने भावों के रंग से रंगते रहते है दूसरा चाहे न चाहे वह हमारे भावों, हाव-भाव, तरंगों के रंग से अछूता नहीं रह सकता। बाहरी तन पर लगने वाले इन रंगों के साथ उन रंगों को भी लगाते है जो दिखाई तो कम देते है पर असर सबसे ज्यादा और गहरा डालते है। रंगपर्व होली का उज्जवल भाव हमारे जे़हन में हरेक के जीवन को प्रभावित करता है, वह न धर्म देखता है और न ही जाति, न अमीर न ही फकीर, रंग न उम्र देखता है और न ही अवस्था। हर जगह होली, हमजोली की प्रेरणा देती है और सबों को सराबोर कर देती है। सूफी संत बुल्ले शाह के अल्फाज भारतीय संस्कृति के मिली-जुली गंगा-जमुनी तहजीब और तबीयत की गवाही देते है कि-


“होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

नाम नबी की रतन चढी, बूँद पडी इल्लल्लाह
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फ़ना-फी-अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले, सभ सखियाँ ने घूंघट खोले
क़ालू बला ही यूँ कर बोले, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह।”

 

होली के रंग अपनी धार्मिक मान्यताओं से अलग प्रेम-सौहार्द्द के सामासिक संस्कृति का वह ईश्क-रंग है जिसकी सैकड़ों कहानियां भारतीय संस्कृति में देखने को मिल जाती है। फाग, फगुआ और फागुन की मस्ती से भारतीय संस्कृति में पला-बढ़ा हर इंसान वाकिफ़ है। फाग-गीत के संग होली की मस्ती का आलम हर जगह कम-ओ-बेश एक सा होता है. चेहरे और मन की इस रंगीनी को ख़ास नज़र से देखे तो महसूस होता है रंगपर्व के रंग-अबीर के रंगोत्सव में हर इंसान हर तरह के भेदभाव और ऊंच-नीच से अलग एक इंसानी अज़मत के तराने पर मदमस्त झूमने वाला करने एक मासूम-सा बच्चा भर है।

देखा जाए तो होली के रंग बसंत में तन, मन और प्रकृति तीनों रंग-रोगन में डूबी हुई है, यानी अनेक रंगों का रंगपर्व एक ही रौ में रहती है। तन, मन और प्रकृति तीनों से एक ही तरह की रौशिनी निकलती है नवीन, नूतन, नवउमंग और मादकता। सच जानिये जीवन के वसंत में रंग इसलिए भी है कि जीवन की एकरसता दूर कर सके और इसलिए भी कि हम सादगी का जीवन-मूल्य पहचान सके। रंगपर्व का रंगोत्सव फागुनी धूप सरीखे गुनगुनेपन को महसूस कराता है कि जीवन भी रंग-रोगन का उत्सव ही तो है।

रंग-अबीर का यह रंगोत्सव केवल चंद रंग भर ही नहीं है। “होली है” की ध्वनियों का नटखट शब्द-रंग सुनने वाले के मन में तरूणाई और मधुरता का रंग घोलता है, कबीर के शब्द उधार लूं तो “ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए..”शब्द ध्वनि की शीतलता मन को रंग-विभोर कर देती है। रंग-अबीरों से मिलकर बनता रंगपर्व के दृश्य-रंग जो दूसरे हमको दिखाते है, दूसरे हमारे रंग देखते है और एक-दूसरे के मुस्कानों का भाव स्वत: खींच लेता है रंग रोगन होने के लिए।

सब निकल पड़ते है एक-दूसरे के रंग मुस्कान के छीटों से रंग घोल कर स्पर्श-रंग स्नेह की कोमल अनुभूति के साथ गले मिलने के लिए। रंग-अबीर के इस महोत्सव में कालिमा की कोई ज़गह नहीं है, इसमें जोरा-जोड़ी या हठजोड़ी नहीं है मान-मुनव्ल जरूर है जिनके चेहरे पर गुलाल रंग लगाने के पात्र है उनके चेहरे पर, जिनके चरणों पर गुलाल लगाकर आशीवार्द लेने का और जिनको स्पर्श का रंग पसंद नहीं है, उन्हें नमस्कार कर भावों का स्पर्श-रंग लगाया जाता है। होली का वसंतोत्सव स्वाद-रंग में व्यंजनों का रंग जुबान पर आने से पहले आंखे पहचानते हुए व्यंजन खाने के बाद संबंधों में नव-मधुरता का रंग घोल देता है।

रंगपर्व होली दृश्य बोली रंग, दृश्य रंग, स्पर्श रंग और स्वाद रंग मानवता के कैनवास को रंगकर उसके लिए प्रेम, स्नेह के भावों को रंग भर देता है। सभी के रंगों से लिपे-पुते चेहरे पहले सामने वाले के मन से मन को भाव से रंगता है तब ही हम उसको सब तरह के रंगों में डुबा पाएगें। साल में एक बार आने वाले रंगपर्व में मन के रंग तो हज़ार है इतने कि बाहर के रंग भी नहीं और दूसरों को त्योहार पर रंगने के लिए इनमें से अच्छे और सच्चे रंग यानी प्यार, मनुहार, मनौव्वल, मान, निश्छलता आदि के रंगों को चुनकर उल्लास, प्रसन्नता के भावों से होली खेलना जरूरी है।

यह होली मोहब्बत और अपनेपन के असली रंगों के साथ खेलें, ऐसे खेलें कि बाहरी रंग छूट जाएं पर ये रंग जिन्हें हर तरह से सामने वाले को लगाने जा रहे हैं न छूटें और न ही वह छुड़ाना चाहे।

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