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“बचपन से ही मुझे राजपूत होने पर गर्व करना सिखाया गया है”

राजपूत सभा

राजपूत सभा

विगत दो महीनों में सारी दुनिया एवं हमारे मुल्क में जो सामाजिक उथल-पुथल हो रही है, उस पर मैंने भी उन तटस्थ लोगों की जमात में शामिल होकर एक चुप्पी साध लेने का काम किया है। जबकि ऐसे भयावह हालात ने मेरे ज़हन पर बहुत गहरा असर छोड़ा है और मेरे भीतर कई प्रकार के विषाद के सृजन का कारण बना हुआ है।

मुझे बार-बार यह आत्मग्लानि महसूस हो रही थी कि क्या मैं भी उन लोगों के समकक्ष खड़ा हो रहा हूं, जिनके लिए दिनकर ने लिखा था, “जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।”

इस विचार पर इस दौरान मेरा बार-बार ध्यान गया कि मनुष्य की उस कायरता एवं चुप्पी को कैसे बौधिक पर्याय मान लिया जाता है, जब समाज में फैली व्यापक नाइंसाफी का विरोधी होते हुए व्यक्तिगत लोक लाज एवं झूठे मान प्रतिष्ठा की रक्षा करने हेतु उसे अपने सिद्धातों का गला घोटना पड़ता है।

यह भय भी होता है कि सामाजिक बैर अपना कर कहीं अपने प्रियजनों से ही अलग ना कर दिया जाए, क्योंकि बहुसंख्यक मत को बिना कोई प्रश्न किए स्वतः अपना लेने की तालीम ही हमारा समाज देता आया है। फिर इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमने हज़ारों सालों की सड़ी-गली परंपरा को बिना तर्क की कसौटी पर परखे अपना लेने में ही अपना स्वधर्म समझा है।

मसलन, मैं अगर अपना उदाहरण रखूं तो मैं एक क्षत्रिय वर्ण से आता हूं। इस कारण मेरा समाज मुझसे सदैव यह अपेछा रखता है कि मुझे अपने राजपूत कहलाने पर गर्व महसूस करना चाहिए। यकीन मानिए मुझे गर्व है मगर राजपूत कहलाने पर नहीं, इंसान कहलाने पर और मैं उस इंसानी संघर्ष का कद्र करता हूं, जो डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार हज़ारो सालों की अपनी परिस्थितियों से संघर्ष करके आदिम युग से आधुनिक युग तक का सफर तय कर पाया।

दलित समुदाय के लोग। फोटो साभार: सोशल मीडिया

इन सबके बीच जो राजपुताना विरासत मेरा सामाजिक परिवेश मुझ पर थोपता है, मैं उसे ग्रहण करने में असमर्थ हूं। अपने माथे पर मिथ्या गौरव की विभूत लगाकर इस विराट विरासत को अपने कंधों पर ढोने को भी मैं महान कार्य नहीं समझता हूं। मैं हर उस विचार से अपना अलगाव सहज समझता हूं, जो मनुष्य को कुनबों, समुदायों और मज़हबों तक सीमित रखकर उन्हें अपनी बेड़ियों का गुलाम बना ले।

जिस विचार में ऊंच-नीच और बड़े-छोटे का बोध हो, वहां मनुष्यता का लोप देखा जा सकता है। इसलिए मैं इस धार के विपरीत ही तैरने का दृढ निश्चय कर चुका हूं, जहां मेरे ही सामाजिक परिवेश से आए लोग अपने नाम के बाद राजपूत शब्द जोड़ कर गौरव महसूस करते हैं।

मैं यहां साफ कर देना चाहता हूं कि मुझे उन लोगों से कोई मतभेद नहीं, यह उनका निजी चुनाव है जिसके लिए वे स्वतंत्र हैं मगर जब वे लोग मुझे भी उस राह पर चलने को विवश करते हैं, तब मैं उन्हें साफ कहता हूं कि आपको आपका गौरव मुबारक। मुझसे इतनी महान विरासत का बोझ उठाना सम्भव नहीं है। इस जन्म में बस मनुष्य ही बना रहूं, वही मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है। मुझे कुनबों में विभाजित होने का शौक नहीं है।

मिर्ज़ा गालिब ने क्या खूब लिखा था-

बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।

इस प्रतिकिया से बहुत लोग मुझ पर वर्ण व्यवस्था का विरोधी होने का आरोप लगाते हैं। मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि मैं दुनिया में हर उस व्यवस्था का विरोधी हूं, जहां व्यवस्था किसी वर्ग को गौरव महसूस कराए और दूसरों को क्षुद्रता के गर्क में ढकेल दे।

यूरोपीय देशों में पूंजीवाद और भारत में ब्राह्मणवाद से उत्पन्न जो व्यापक समाजिक और आर्थिक व्यवस्था रही है, उसमें फर्क है। जहां यूरोपीय देशों में अगर एक वर्ग अपने संघर्ष के दम पर अपनी आर्थिक परिस्थितियां बदल सकता है, तो उसका सामजिक कद भी उस अनुसार ही तय होता है लेकिन हमारे यहां की यही रीत है कि हम एक आईएएस अफसर को भी नीच समझते हैं, जो दलित वर्ग से आता है। भारत में लोकतंत्र आने से सबसे बड़ी चोट उन्हीं वर्णो को लगी, जिनका राजतंत्र में आधिपत्य एवं प्रभुत्व था।

हज़ारों सालों के व्यवस्थागत आरक्षण से जो सत्ता एक वर्ण को मयस्सर थी, उसके छीन जाने का दु:ख तो होना ही था परंतु ऐसा नहीं हुआ कि सत्ता उनसे छीन कर दलित वर्ग को दे दी गई, बल्कि एक पूंजीवादी जनतंत्र का यूरोपीय ढांचा यहां भी स्थापित हो गया, जहां सत्ता सिर्फ पूंजीपतियों की जागीर बन गई।

इस व्यवस्था से अब तक जो वर्ण और वर्ग हमारे मुल्क में एक दूसरे के समानांतर रहते थे, उनमें अभूतपूर्व परिवर्तन होना प्रारंभ हो गया। जिससे वे वर्ण भी उसी आर्थिक दिशा को पहुंच गया जहां अभी तक कुलीन वर्ण पड़ी थी।

सबसे हैरत की बात यह है कि 90 के दशक में नवउदारवाद और भूमंडलीकरण के बाद जब सार्वजनिक संस्थानों का असमान रूप से निजीकरण पारंभ हुआ और जब सार्वजनिक क्षेत्रों में नौकरीयों की लगातार गिरावट एवं बेरोज़गारी दर की गगन चुंबी अकड़े एक विकट आर्थिक हालात पैदा कर रहे थे, तब हमने इस नवउदारवाद और निजीकरण से लड़ने के बजाए अपनी लड़ाइयां दलित वर्ग को मिलने वाले आरक्षण की ओर तीव्र कर दी।

ऐसा करने से हमारे नाक के नीचे आर्थिक असमानता की दर एक पिशाच का रूप धारण कर चुकी थी, जहां मुल्क की कुल आर्थिक संपत्ति महज़ देश की 1 प्रतिशत आबादी के हाथों में पहुंच गई और हम दलित विरोधी आंदलोन एवं मंदिर-मस्ज़िद विवाद में उलझे रहे। जिस वक्त हमें वर्ग चेतना की सबसे अधिक आवश्यकता थी, उस समय हमारे सामने साम्प्रदायिकता की प्रयोगशाला खोली जा रही थी।

हर पूंजीवादी व्यवस्था अपने गर्भ में साम्प्रदायिकता और नस्लवाद को पालता पोस्ता है, क्योंकि अगर यह फर्ज़ी मुद्दे आवाम के सामने नहीं होंगे,
तो पूंजी से उत्पन्न बेरोज़गारी, आर्थिक असमानता, कृषि समस्या और मज़दूरी की उचित दाम जैसे असली मुद्दे सामाजिक एकता बनाते हुए अपने वर्गों को शत्रुओं के खिलाफ लामबंद होकर एक व्यापक विद्रोह की संभावना उत्पन्न कर सकते हैं।

ऐसी किसी भी विद्रोह को दबाने के लिए ही इन तमाम तरह के मज़हबी विद्वेष का मौजूद रहना आवश्यक है, नहीं तो एक मुसलमान की आर्थिक समस्या किसी हिन्दू के आर्थिक समस्या से बिल्कुल भी पृथक नहीं हैं मगर लोग वर्ग चेतना के आभाव में इसे नज़रअंदाज़ कर देना पसंद करते हैं।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

बात पिछले शुक्रवार की है जब न्यूजीलैंड की दो मस्ज़िदों में एक दहशतगर्दी ने लगभग 49 निर्दोषों को मौत के घाट उतार दिया। उसने अपने इस कृत्य को यह तर्क देकर न्यायसंगत ठहराना चाहा है कि यूरोपीय देशों में बढ़ रही मुसलमान आबादी और तमाम मुल्कों में हो रहे जनसांख्यिकीय परिवर्तन उसका मूल कारण है।

यह ज्ञान हमारे मुल्क में मौजूद भक्तों के ज्ञान से बिल्कुल अलहदा नहीं है, जिन्हें साम्प्रदायिक मसीहाओं के सरपरस्ती में मौजूद संचार तंत्र को महाबोद्धि वृक्ष समझ कर उनके नीचे बैठने से उन्हें निर्वाणा की प्राप्ति महसूस होती है। जहां उनके आंखो पर पूंजीवाद और मज़हब की पट्टी बांध कर बेरोज़गारी, आर्थिक तंगी और गैर-बराबरी से उतपन्न हालात से बेहतर हालात के तलाश की संभावना में हो रही भारी पलायन को देखने से उन्हें हरदम महरूम रखता है।

उनका विवेक तब भी जवाब दे जाता है, जब सड़क पर रेडी लगाकर काजू-किशमिश बेचने वाले गुरबत में पड़े कश्मीरी पर यह भारत के तथाकथित ठेकेदार अपनी हिंसक डंडे बरसाते हैं।

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