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फीस वृद्धि समेत कई मुद्दों को लेकर जेएनयू छात्रसंघ का भूख हड़ताल

जेएनयू हड़ताल

जेएनयू हड़ताल

विगत तीन सालों से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति ने जमकर जेएनयू की आत्मा पर हमला बोला है। 9 फरवरी की घटना के बाद पूरे देश में एक विश्वविद्यालय को लेकर जो घमासान हुआ, उसे आधार बनाकर कुलपति ने जेएनयू परिसर में कई बदलाव किए, जो कैंपस से प्यार करने वाले हर इंसान के लिए नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हैं।

परिसर में 24 घंटे ढाबे खुले रहते थे, लोग बैठते थे, बातें करते थे, विचार-विमर्श और वाद-विवाद करते थे। इससे परिसर का महौल जीवंत रहता था। जेएनयू के ही एक प्रोफेसर ने किसी अकादमिक कार्यक्रम में कहा था कि जेएनयू. कक्षाओं के भीतर नहीं है, बाहर है। आपकी सीखने की प्रक्रिया में कक्षाओं की सिर्फ 30% भागीदारी होती है, बचा 70% आप कैंपस से सीखते हैं, विचारों के आदान-प्रदान से सीखते हैं।

एक बेहरतीन अध्यापक ने क्लास में पढ़ाते समय कहा, “आप सभी के लिए यह ज़रूरी है कि आप लोग यहां जो भी पढ़ते और सीखते हैं, उन्हें बाहर जाकर, ढाबों पर बैठकर अपने दोस्तों से डिस्कस कीजिए और कुछ नया खोजिए। हमारी बातों को तर्क पर तोलिये, हमसे सवाल करिए, हमारी बातों को पत्थर की लकीर मान लेना आपके लिए नुकसानदेह है।”

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: Getty Images

उन्होंने कहा, “हम गलत भी हो सकते हैं और हमारी समझ अलग भी हो सकती है। आपको हमसे इतर होकर भी सोचना होगा, अपने तर्कों की कसौटी पर सवालों के जवाब तलाशने होंगे, तभी आपका जेएनयू आना सफल होगा।”

शायद सीखने-सिखाने का इससे बेहतर तरीका कुछ नहीं हो सकता। जेएनयू का माहौल ऐसा कि हर आदमी, दूसरे आदमी से सीखता है। कुलपति साहब को यह पसंद नहीं था जिस कारण ढाबों को हर रोज़ ग्यारह बजे बंद होने का हुक्म मिल गया। चाय खत्म हुई, चर्चा भी।

जेएनयू मीडिया के निशाने पर आ गया और एक विश्वविद्यालय को राजनीति का अखाड़ा बना दिया गया। आलम यह है कि कैंपस में होने वाली छोटी से छोटी गतिविधियों पर भी मीडिया की नज़र होती है। यह छात्रों की स्वछंदता पर खतरा है।

अब यहां पढ़ने वाले गलतियां करने से डरते हैं, बहुत ही सावधानी से बोलते हैं, लिखते हैं, इस डर से कि ना जाने बाहर उनकी क्या छवि बनाई जाएगी, लोग किस तरह से उनकी बातों को लेंगे। पिछले तीन-चार सालों में देखा गया है कि जेएनयू में होने वाले छात्र आंदोलनों की तीव्रता में कमी आई है।

फोटो साभार: Getty Images

एक छात्र का मुलभूत काम पढ़ना और रिसर्च करना होता है लेकिन जेएनयू के छात्रों ने “लड़ाई-पढ़ाई ज़िंदाबाद” का नारा दिया था। अब यहां होने वाले छात्र आंदोलनों की कमर टूट गई है, क्योंकि किसी भी छात्र के लिए यह मुमकिन नहीं कि वह आए दिन 10-20 हज़ार का फाईन भरता रहे।

अपने अधिकारों के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करने वालों पर भारी-भरकम फाईन थोपने का नया ट्रेंड भी इन्हीं महाशय ने शुरू किया है। हद तो तब हो गई जब कैंपस में यौन शोषण के खिलाफ काम करने वाले जीएसकैश (जेंडर सेंसटाइजेशन कमेटी फॉर सेक्सुअल ह्रासमेंट) को खत्म कर दिया गया।

जिस संस्था ने कैंपस में अच्छे-अच्छे मनचलों की सोच बदलकर उन्हें नारीवादी बना दिया, उसे कुलपति ने एक झटके में खत्म कर दिया। आज कैंपस में जेंडर सेंसेटाईजे़शन की सख्त ज़रूरत है लेकिन ऐसी कोई संस्था नहीं जो कैंपस में आने वाले लोगों को पितृसत्ता के जाल से बाहर ला सके, बराबरी से जीना सिखा सके।

कैंपस में रहने वाली महिलाओं पर कोई पाबंदी नहीं थी और ना ही वे खुद अपने आप पर पाबंदी लगाती थी, क्योंकि वे जीएसकैश पर भरोसा करती थीं। अब ऐसा कुछ नहीं जिसपर वे भरोसा कर सके, नतीजा महिलाओं और दूसरे लैंगिक अल्पसंख्यकों की स्वछंदता पर पहरा।

कुलपति को लगता है कि यहां लोग पढ़ते नहीं है, रिसर्च नहीं करते हैं इसलिए वे सभी पढ़ने वालों और पढ़ाने वालों के लिए “अनिवार्य हाजिरी” का नया शिफूगा ले आए। ऊपरी तौर पर देखने वालों को लगता है कि इसमें गलत कुछ नहीं है लेकिन जेएनयू का इतिहास है कि उसे इस व्यवस्था की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी।

जब हाजिरी का प्रावधान नहीं था तब भी कक्षाएं खचाखच भरी रहती थी। किसी पर कोई पाबंदी नहीं होती थी। जिसे जो विषय, जो प्रोफेसर पसंद हो उसकी कक्षा में जाकर बैठ जाएं। जहां से जितना ज्ञान लेना चाहते हैं, ले लीजिएगा। जेएनयू को दुनियाभर में अपनी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और रिसर्च के लिए जाना जाता है।

इस गुणवत्ता की नींव इसी में छिपी है कि किसी पर कोई पाबंदी नहीं है, कोई दबाव नहीं है, सब लोग अपनी रूचि और अपनी इच्छा से पढ़ते, सीखते और काम करते हैं, जिसका परिणाम सभी के सामने है लेकिन साहब को कौन समझाए कि इतनी बेहतरीन व्यवस्था को खत्म करना किसी ईमानदार बुद्धिजीवी का काम नहीं हो सकता।

शायद कुलपति ईमानदार नहीं हैं, ना जेएनयू के लिए, ना शिक्षा के लिए और ना ही रिसर्च के लिए। शायद उनकी श्रद्धा और जवाबदेही किसी और संस्था के प्रति है, जिसे पढ़ने-लिखने से, खुले विचारों और स्वछंद दिमागों से सख्त नफरत है। अगर मोहब्बत है तो सिर्फ दिमागी गुलामों से।

जेएनयू हड़ताल

जेएनयू के ताबूत में आखिरी कील ठोकने का काम कुलपति ने हाल ही में किया। देशभर में मशहूर जेएनयू एडमिशन प्रॉसेस की धज्जियां उड़ा दी। सामाजिक विज्ञान को चाहिए कि उसे पढ़ने वाला स्वतंत्र रूप से विश्लेषण करना जाने, बक्से से बाहर निकलकर सोचे, सवाल उठाए और उनके जवाब खोजे इसलिए जेएनयू में प्रवेश के लिए होने वाली परीक्षा लिखित-निबंधात्मक होती थी।

इसमें ज़रूरी भी नहीं था कि अंग्रेज़ी में ही लिखा जाए, जो भाषा आपको आती है आप उसमें अपना उत्तर लिख सकते थे। इससे अंग्रेज़ी का वर्चस्व कम हो जाता था और दूसरी क्षेत्रीय भाषाएं बोलने-लिखने वालों के लिए दरवाज़े खुल जाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं होगा क्योंकि अब लिखित परीक्षा नहीं होगी, ऑनलाइन होगी जिसमें वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछे जाएंगे और चार विकल्पों में से चुनना होगा।

इससे सुदूर गाँवों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को पहले ही इस प्रक्रिया से अलग कर दिया जाएगा। प्रवेश परीक्षा के बारे में लिए गए सारे निर्णयों के बिना छात्र प्रतिनिधियों और अध्यापकों को एकतरफा तौर पर पास कर दिया गया। छात्रसंघ पदाधिकारियों को बार-बार ‘स्वघोषित नेता’ कहा गया है।

प्रवेश परीक्षा का ‘ठेका’ बाहरी एजेंसी को दे दिया गया, इससे परीक्षा की पारदर्शिता पर खतरा है। क्या इतना सब होने के बाद चुप रहना संभव है? शायद अब चुप रहने, सहने और इंतज़ार करने का समय चला गया है।

कल रात से जेएनयू छात्रसंघ ने अनिश्चितकालीन भूृख हड़ताल का आवाहन करते हुए कहा है कि यह लड़ाई जेएनयू की आत्मा को बचाने की लड़ाई है। जेएनयू एक विचार है, जिसे खत्म करने की तमाम कोशिशें करने के बावजूद भी ना ही संघ परिवार, ना ही बीजेपी और ना कुलपति अपने इरादों में कामयाब हुए हैं।

अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल का आवाहन कर एक बार फिर शिक्षा को बचाने के लिए, जेएनयू ने सत्ता को आंख दिखाई है। यह हमला सिर्फ जेएनयू पर नहीं है बल्कि शिक्षा पर है।

देशभर के तमाम विश्वविद्यालयों को तरह-तरह से तबाह किया जा रहा है। उच्च शिक्षा को बचाने की लड़ाई का केंद्र बिंदु जेएनयू हो सकता है लेकिन इस लड़ाई को सभी विश्वविद्यालयों में लड़े जाने की ज़रूरत है। जेएनयू की आत्मा को बचाने की इस लड़ाई में आप सभी का सहयोग चाहिए।

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