राहुल गाँधी ने अभी हाल ही में एक बयान देते हुए कहा है कि अगर उनकी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में जीतती है, तो वह 20 फीसदी लोगों को सालाना 72000 रुपये मुहैया कराएंगे। राहुल गाँधी के इस बयान को लेकर हर तरफ चर्चा का बाज़ार काफी गर्म है।
अभी राहुल गाँधी के बयान पर चर्चाएं पूरी हुई ही नहीं थी कि मोदी के सरप्राइज़ ने नई चर्चाओं को जन्म दे दे दिया है। राजनीतिक माहौल में भी वही गर्मी और ज़ोर देखा जा सकता है, जो कि किसी मोबाइल फोन के लॉन्च होने में आजकल देखा जाता है। भारतीय राजनीति का ऐसा बाज़ार शायद ही कभी सजा हो।
इन चर्चाओं में कुछ लोग काँग्रेस पार्टी पर यह आरोप लगाते नज़र आ रहे हैं कि वह केवल जुमलेबाज़ी कर रही है। कुछ लोगों का मानना है कि काँग्रेस पार्टी के लिए भारतीय राजनीतिक में अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए यही आखरी विकल्प बचा है।
वहीं, कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि दोनों राजनीतिक दलों द्वारा वोट खरीदने का यह नया तरीका भारतीय राजनीति के पतन की ओर इशारा करता है। इस तरह की बात बोलने वाले लोग उदाहरण के तौर पर शराब, पैसे और मिठाइयों द्वारा वोटों को खरीदे जाने के उदाहरण दे रहे हैं, जो अक्सर गाँवो-देहातों में देखने को मिलती हैं।
ऐसे में क्या पैसे की यह राजनीति केवल यही तक सीमित है? अगर नहीं, तो इसके सामाजिक पहलू क्या हो सकते हैं और उनका क्या प्रभाव होगा? इस सवाल को समझने के लिए हमें पिछले 5-10 सालों में आए, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलावों पर एक नज़र अवश्य डाल लेनी चाहिए।
जुमलेबाज़ी ने ज़रूरी मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाया है
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चुनावों के दौरान ऐलान कर रहे थे, तो आमतौर पर उनके द्वारा अपने भाषणों में करोड़ों रुपये पब्लिक को देने की बातों की खूब आलोचना होती थी। लोग बोलते थे कि लोकतंत्र कोई ठेकेदारी या खैरात बांटना नहीं है और केवल यह बोल देना कि हम उन्हें 100000 करोड़ रुपये देंगे, बिना यह बताए कि वह 100000 करोड़ रुपया किस प्रणाली से, किन लोगों तक और किन उद्देश्यों के लिए दिया जाएगा। सीधा-सीधा एक जुमला ही नहीं बल्कि खतरे की घंटी का संकेत था।
कई अपोज़िशन पार्टियों के प्रवक्ताओं ने नरेंद्र मोदी के इन भाषणों की जमकर आलोचना की। वह सीधा-सीधा कहते थे कि नरेंद्र मोदी ने राजनीति के मायनों को केवल लेन-देन की राजनीति में बदल दिया है। इस तरह की भाषणबाज़ी ने बेहतर और आज़ाद ज़िंदगी, तमाम भेदभाव एवं सामाजिक सुरक्षा से लेकर चिकित्सा जैसे मुद्दों को खत्म कर दिया है।
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि जिस समय जेएनयू विवाद का केंद्र बन गया था, उस समय भारतीय मीडिया एवं सामाजिक तर्कों में एक बात काफी चर्चा में रही कि टैक्स देने वाले लोगों का “पैसा” देश विरोधी कामों में इस्तेमाल करने हो रहा है। दूसरी तरफ रिज़र्वेशन को जाति आधार से हटाकर आर्थिक आधार पर लेकर आने के पीछे भी पैसे की बड़ी अहमियत दिखाई देती है।
डिजिटल बैंकों में सरकार की दिलचस्पी
इनमें एक अहम आर्थिक तथ्य यह भी रहा है कि भारत ने स्थाई बैंक में इन्वेस्ट करने की बजाय डिजिटल बैंकों को खूब सहारा दिया क्योंकि भारत के पास स्थाई बैंक विकसित करने के लिए पैसा नहीं है और जब डिजिटल बैंकों से काम चल सकता है, तो स्थाई बैंक पर इन्वेस्टमेंट करना भी सही नहीं समझा गया। डिजिटल बैंक से तमाम वर्ग के लोगों को बहुत ही तेजी से जोड़ा गया है।
आज गरीब से गरीब मज़दूर, किसान और महिलाएं द्वारा मोबाइल बैंकिंग का फायदा उठाया जा रहा है। इन सब बातों के बीच यह आश्वासन देना कि आपके खाते में एक निश्चित राशि आएगी, बहुत उचित महसूस होता है क्योंकि “गूगल पे” और “पेटीएम” जैसी डिजिटल बैंकों ने मुफ्त पैसे कैशबैक के रूप में तमाम लोगों को मुहैया कराए हैं।
ऐसे में फ्री में पैसे मिलना कहीं ना कहीं एक असली संकेत मालूम हुआ है। अगर कोई डिजिटल बैंक जैसा विकल्प हमारे पास मौजूद नहीं होता तो शायद भारतीय राजनीति में यह नारे कि पैसे बैंक खातों में मुहैया करा दिए जाएंगे नहीं उठते।
राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में पैसों की अहमियत बढ़ी है
कुल मिलाकर कहा जाए तो पिछले इन 10-15 सालों में हमने देखा है कि पैसा ने राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में अपनी एक गहरी अहमियत बनाई है। लोग पैसे को लेकर आज बहुत ही सचेत हो चुके हैं। यह वह समय बिल्कुल नहीं है जब आदर्शों के लिए पैसे को त्यागा जा सकता था।
पैसा हमारी राजनीति ही नहीं सामाजिक मान्यताओं और ढांचो को भी तब्दील कर रहा है। जहां पैसे को लेकर लोगों की बढ़ती चेतना एक तरफ भयानक तेजी से बढ़ते पूंजीवाद की ओर इशारा करती है। वहीं, दूसरी और दलित और पिछड़ी जातियों द्वारा जातीय जंज़ीरों को पैसों के माध्यम से दौड़ने का तरीका खोजा जा रहा है।
आज के दौर में मुझे बेहतर इलाज मिले और मैं बेहतर जगह रहूं, यह सब चीजें जाति नहीं बल्कि पैसे के आधार पर तय होगी। भारत का हर किस्म का इंसान यह बात बखूबी समझ रहा है कि आने वाले समाज में पैसा ही शक्ति प्रदान करेगा और जीवन का महत्व भी तय करेगा।
इसलिए जनता पैसे के अलावा शायद दूसरा कोई विकल्प नहीं सुनना चाहती है। नरेंद्र मोदी सरकार के आरक्षण पर हमलों के बावजूद भी अन्य पिछड़े वर्ग और दलितों ने बीजेपी का साथ नहीं छोड़ा। इसकी एक वजह यह भी रही है कि यह वर्ग अब पैसे को ज़्यादा अहमियत देता है बजाए कि अपनी जाति और वर्ण व्यवस्था में विश्वास के संदर्भ में।
पैसा और राजनीति बहुत लंबे समय से एक दूसरे के साथ रहे हैं यह बात सबको मालूम है कि पैसे देकर वोट खरीदे जाते रहे हैं लेकिन काँग्रेस और बीजेपी सरकार के इन वादो में जो नया है, वह वोट खरीदने की इस प्रणाली को राजनैतिक वैधता प्रदान करता है।
वोट खरीदना अब अवैध काम नहीं
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वोट खरीदना अब कोई अवैध काम नहीं रहेगा बल्कि समाज को राजनीतिक एवं आर्थिक बल प्रदान करेगा। मैं अगर अपना वोट पैसे देकर बेच रहा हूं, तो यह कोई गलत काम नहीं होगा बल्कि मेरा सरकार से सीधा अपनी सामाजिक सुरक्षा मांगना होगा।
जिस तरह संविधान के लागू होने के बाद जाति एक कलंक ना होकर एक राजनीतिक हथियार बन गई, उसी तरह पैसों में वोट बेचना अब तक राजनीतिक गुनाह था मगर अब एक राजनीतिक हथियार बनने को तैयार है।
हालांकि जनता पैसे की अहमियत तो समझ रही है लेकिन इस पैसे का मोल सही नहीं आंक पा रही है। मसलन, 72000 रुपये तो सरकार दे देगी परंतु अगर शिक्षा इन्हीं राशि को स्वास्थ्य और अन्य ज़रूरी चीज़ों पर खर्च करने में सरकार लगाए तो अधिक बेहतर होगा।
किसी भी गंभीर बीमारी को ठीक करने में पांच लाख से लेकर 30 लाख तक पैसे खर्च हो जाते हैं। ऐसे में सरकार के दिए हुए चंद रुपयों का क्या मूल्य होगा? क्योंकि पूंजीवाद पर रोक लगाती कोई भी सरकार नहीं दिख रही है। सरकारी अस्पताल, सरकारी संस्थान, सरकारी विश्वविद्यालय और तमाम सरकारी तंत्र बुरी हालत में दिख रहे हैं।
सरकारी दफ्तरों में जहां चपरासी 50000 और साहब एक लाख रुपये कमाते हैं, वहीं प्राइवेट संस्थानों में चपरासी 10 से 15000 और साहब एक से डेढ़ लाख रुपये तक कमा लेते हैं। ऐसे में यह कहना उचित नहीं होगा कि बढ़ते पूंजीवाद ने समाज को खतरे की ओर खींचा है।
पैसे की अहमियत और पैसे के लिए बढ़ती यह चेतना, एक जागरूक समाज की ओर इशारा कर रही है। एक ऐसा समाज जो इस पूंजीवादी ढांचे को समझने की कोशिश करते हुए अपना हक मांगना चाहता है। माहौल यह है कि चुनाव का मुख्य मुद्दा ही पैसा बन गया है। ऐसे में यह कहना कि चुनाव में पैसों का आ जाना राजनीतिक पतन है, बहुत गलत होगा।
इसे ऐसे समझें जैसे कि वर्ण व्यवस्था में जाति आपके जीवन की तमाम सच्चाईयों को निर्धारित करता था और आपका उच्च जाति में होना आपके जीवन के साधनों को तय करता था। उसी तरह आज पैसा आपके जीवन को निर्धारित करेगा। इसमें फर्क सिर्फ इतना है कि पहले आप मुश्किल से ही अपनी जाति बदल सकते थे लेकिन यहां हर कोई, जो वोट की ताकत रखता है और लेन-देन में सम्मिलित हो सकता है, वह इस काम को अंजाम दे सकता है।
जातीय व्यवस्था की तरह ही समाज की कठिनाइयां कम नहीं होंगी परंतु लोगों के पास जाति के अलावा पैसा भी एक विकल्प बनकर उभरेगा। सरकारों को पैसे के साथ-साथ सरकारी संस्थानों को भी मज़बूत करना होगा ताकि गरीब, पिछड़ी महिलाएं और अन्य लोगों तक कम दाम में फायदे पहुंचे।