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‘मुस्लिम गुट में वोट देते हैं’ जैसे और भी मिथक जो मुस्लिम वोटर्स के लिए बने हैं

मुस्लिम वोटर्स

भारतीय चुनावी राजनीति में मुस्लिम मतदाताओं का ‘वोट राजनीति’ वह मिथक है, जिसको समझने की कोशिश सभी राजनीतिक दलों के साथ-साथ मुख्यधारा की मीडिया सबसे अधिक करती है। खासकर तब जब सांप्रदायिक-सेक्युलर राजनीति उफान पर हो।

आज़ादी के कई दशक बीत जाने के बाद भी राजनीतिक दल ना तो मुस्लिम समाज की समस्याओं को समझते हुए उनको गुरबत से बाहर निकाल सकी और ना ही मुख्यधारा की मीडिया, जिसे लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा गया है। मुस्लिम समाज की समस्याओं को वर्ग, जाति, भाषा, प्रदेश और यहां तक कि धर्म की पहचान के आधार पर समझ सकी।

यह एक आम धारणा ज़रूर बन गई है कि मुस्लिम समाज में गज़ब की आतंरिक एकता है, जिसके चलते सभी मुस्लिम मतदाता आमतौर पर एक ही पार्टी को वोट करते हैं, जो एक आंशिक सच ही है।

चुनावी राजनीति में कमोबेश हर राजनीतिक दल यह कोशिश ज़रूर करता है कि वह चुनावी वादे, जो अब चुनावी जुमले से परिभाषित हो रहे हैं, मुस्लिम मतदाता को अपनी तरफ आकर्षित करें। ज़ाहिर है देश या राज्य में सरकार बनाने के लिए मुस्लिम मतदाताओं का वोट सत्ता की दहलीज़ तक पहुंचने की अहम कुंजी है, जिसके दम पर सरकारें बन भी सकती हैं और गिर भी सकती हैं।

आज़ादी के बाद हुक्मरानों, मुस्लिम नेताओं और मौलवियों ने गठबंधन कर मुसलमानों को सियासत के बाज़ार में बेचकर मुस्लिम वोटरों का फायदा उठाया, तुष्टीकरण की नीति और सेक्युलरवाद की राजनीति के बाद कट्टरपंथ विचारधारा पर भी अपना भरोसा मुसलमान समाज के विकास की उम्मीद में करके देख लिया।

फोटो साभार: Getty Images

भारतीय चुनावी इतिहास में राजनीतिक सियासत में यह स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि मुस्लिम समाज के खुदमुख्तारी का दावा करने के अफसाने में कुछ हीरो बने हैं, तो कुछ विलेन भी बने हैं। गंगा-जमुनी तहज़ीब की दुहाई देने वाली काँग्रेसी, मुसलमानों के संवैधानिक अधिकारों का सबसे बड़ा रक्षक जताने वाले वामपंथी दल और साम्प्रदायिकता से लड़ने वाले घोषित योद्धा के रूप में समाजवादी-बहुजन धड़े (मुलायम-लालू, अखिलेष-तेजस्वी और नीतिश-मयावती या अन्य) जहां इस अफसाने के हीरो हैं।

इन जमातों ने बार-बार यह याद दिलाया कि हिंदुत्व को मूल विचारधारा मानने वाली ताकतें (भाजपा जिनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व करती है), इस अफसाने में विलेन हैं। भाजपा अपनी पार्टी के मुसलमान चेहरों की मदद से सच्चा राष्ट्रवादी मुसलमान और सच्चा सेक्युलरवादी मुसलमान का चेहरा सामने लाती रही है।

इन यथास्थितियों के साथ मुसलमान वोटों  के राजनीतिक रुझान का क्रिया-चरित्र समझने के लिए उसे एक एकीकृत आंतरिक वोट बैंक के रूप में नहीं, बल्कि मुस्लिम समाज की सामाजिक-जातिगत विविधता या विभाजन को समझना अधिक ज़रूरी है।

यह सही है कि मुसलमान समाज में इस्लाम की व्याख्या के अनुसार जातिगत भेदभाव की कोई जगह नहीं है मगर भारतीय संरचना में यह पूर्ण सत्य नहीं है। हिंदुस्तानी मुसलमान समुदाय में जातिगत असमानता जातिय-वर्गीय आधार पर मौजूद हैं, जिसे राजनीतिक पार्टियां भी स्वीकार करने से कतराती हैं मगर इसकी चर्चा काका कालेकर समिति, मंडल कमीशन और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में ब्यौरावार तरीके से देखने को मिलती हैं।

अशराफ, अज़लाफ और अरजाल श्रेणियों में बंटा हिंदुस्तानी मुसलमान वोटर के रूप में अपनी प्राथमिकता कैसे तय करता है, इसे लेकर कोई स्पष्ट व्याख्या ना तो समाजशास्त्रियों के पास और ना ही चुनावी विश्लेषक पंडितों के पास है।

सामाजिक-जातिगत विविधता में बंटा मुस्लिम समाज के वोटरों की प्राथमिकता कई जटिलताओं में उलझी हुई हैं। सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि मुसलमानों  के राजनीतिक रुझान सिर्फ एक मुसलमान समुदाय भर नहीं हैं, बल्कि वर्ग, जाति, प्रदेश, भाषा और यहां तक कि धर्म के आधार पर विभाजित असंख्य समुदाय अपने आप को मुसलमान मानते हैं।

इन समुदायों की पहचान एक गतिमान पेंडुलम की तरह है, जिसके एक सिरे पर इस्लाम की विविध धार्मिक परम्पराएं हैं, तो दूसरे सिरे पर भाषा, जाति और प्रदेश जैसी बुनियादी अस्मिताएं हैं। जिन समस्याओं को मुसलमानों के मुद्दे कहे जाते हैं, वे अलग-अलग स्तरों से निकलने वाली सामाजिक मांगे हैं, जो उनके ज़हन में अधिक होती हैं।

मुसलमान आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी और पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। लिहाज़ा इनकी समस्याएं गरीबी और पिछड़े वर्ग से जुड़ी हुई है। मुसलमानों का एक बड़ा तबका धार्मिक अल्पसंख्यक भी है। इनकी समस्या अलग तरह की है। केवल मुसलमान होने से मस्ज़िदों और कब्रिस्तान के नियंत्रण का सवाल या पाकिस्तानी/बांग्लादेशी समर्थक होने के आरोप मुसलमानों को उसकी धार्मिक पहचान के कारण पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है।

फोटो साभार: Getty Images

मसलन, पूर्वाग्रहों पर आधारित सूचना और संचार के माध्यमों में प्रसारित छवियां उसके अस्मिता को बराबर चुनौती देती रही है। इन सबों के साथ-साथ पूरा मुसलमान समुदाय सांप्रदायिक राजनीति के उफान से घबराता है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। इन समस्याओं से जूझते हुए मुसलमान समुदाय अपनी राजनीतिक प्रतिक्रिया क्षेत्रीय/स्थानीय स्तर परअपनी मांगों के आधार पर तय करता है।

जाति, वर्ग और क्षेत्रीय राजनीति के संदर्भ में मुसलमान समुदाय अपने मतदान का रूख तय करते हैं। उनका वास्ता कभी भी राष्ट्रीय सवाल के मुद्दों से होता ही नहीं है। उम्मीदवार कौन है, उसकी सामाजिक-जातिगत स्थिति क्या है और समुदाय विशेष के समस्याओं के प्रति उसा रूख क्या है, यह सारे सवाल मुस्लिम मतदाताओं के लिए विशेष मायने रखती हैं।

इन सवालों में बेरोज़गारी और गुरुबत का सवाल भी उनकी चिताओं में जुड़ जाता है। ज़ाहिर है उम्मीदवार की स्थानीय लोकप्रियता उसकी पार्टी की राष्ट्रीय विचारधारा पर हावी हो जाता है क्योंकि मुसलमान समुदाय अपने चुनावी गणित में राष्ट्रीय या प्रांतीय स्तर पर तय नहीं होता, बल्कि यह स्थानीय स्तर की पूर्ण जटिलताओं के बीच निर्मित होता है।

मुस्लिम आवाम द्वारा कतई उस नेता का चुनाव नहीं किया जाता है, जिसका आम मुसलमान की तकलीफों से कोई वास्ता नहीं है। स्थानीय स्तर की जटिलताओं से परिभाषित राजनीतिक समीकरण इस तरह परिभाषित होते हैं कि इसमें सांप्रदायिकता बनाना और सेक्युलरवाद जैसी राष्ट्रीय बहसों की कोई जगह नहीं है।

भारतीय राजनीति में मुसलमान समाज के वोटरों का रूझान ऊपर से नीचे की बजाए नीचे से ऊपर की दिशा में देखना ज़रूरी है, तभी मुसलमान पहचान की राजनीतिक बहुलता और बहुआयामी राजनीति के चरित्र को रेखांकित किया जा सकता है।

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