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“सर्फ एक्सेल के ऐड को ट्रोल करने वाले सिर्फ मज़हबी मोहब्बत के खिलाफ हैं”

सर्फ एक्सेल एड

सर्फ एक्सेल एड

हिंदुस्तान यूनिलीवर का उत्पाद सर्फ एक्सेल का नया विज्ञापन #RangLaayeSang सर के बल सोचने वाले लोगों के निशाने पर आ गया है। सालों से “दाग अच्छे हैं” के पंचलाइन से मानवीय संवेदनाओं का ताना-बाना बुनकर अपने उत्पाद के प्रति लोगों को आकर्षित करने की हिंदुस्तान यूनिलीवर की कोशिश इस बार उनको भाड़ी पड़ रही है।

निशाने पर केवल विज्ञापन ही नहीं हैं, देश की सांस्कृतिक आस्था को बुतपरस्ती ना मानने वाले वामपंथ के तरफ झुकाव रखने वाले लोग भी हैं। ज़ाहिर है विरोध करने वाले लोग ना ही भारतीय संस्कृति में घुले-मिले वामपंथ के बारे में कुछ जानते हैं और ना ही भारतीय सामासिक संस्कृति के ककहरा का पाठ उन्होंने पढ़ा है।

सर्फ एक्सेल के विज्ञापन वाले वीडियो में दिखाया गया है कि कैसे एक हिंदू लड़की होली के दिन अपने मुस्लिम दोस्त को अन्य बच्चों से बचा कर साइकिल पर विठाकर मस्जिद तक छोड़ती हैं, फिर नमाज़ के लिए मस्जिद की सीढ़ियों तक पहुंचाती हैं।

इसके बाद लड़का कहता है कि नमाज़ पढ़कर आता हूं तो लड़की जवाब देती है, ‘बाद में रंग पड़ेगा’ तभी लड़का सहमती से सिर हिलाता है और मुस्कुरा कर नमाज़ के लिए चल देता है।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

‘अपनेपन के रंग से औरों को रंगने में दाग लग जाएं तो दाग अच्छे हैं’ लिखे संदेश के साथ वीडियो खत्म हो जाता है। दरअसल, यह वीडियो वाशिंग पाउडर सर्फ एक्सेल का विज्ञापन है, जिसे नाम दिया गया है #RangLaayeSang.

सोशल मीडिया पर विरोध करने वाले लोगों ने एक नहीं कई तर्क गढ़े हैं। किसी ने इस विज्ञापन का यह मतलब निकाल दिया कि होली के पवित्र रंगों को “दांग” कहने की चेष्ठा की गई है, वह भी अन्य मज़हब के लिए।

इसके साथ-साथ मासूम बचपन के दोस्ती में “लव-जिहाद” का बीज भी दिख गया है और इसे बौद्धिक आतंकवाद कहा जा रहा है। विज्ञापन वायरल होने पर #BoycottsufExcel की मुहिम भी चल रही है कि विज्ञापन ने हिंदुओं के पवित्र आस्था को बड़ी चालकी के साथ दूषित किया है।

विरोध करने वालों का तर्क जिसे बौद्धिक आतंकवाद कहा जा रहा है, दरअसल वह शुद्ध रूप से बौद्धिक और मानसिक दिवालियापन के अलावा और कुछ भी नहीं है। बौद्धिक दिवालियापन इसलिए क्योंकि आपके दिमागी फितूर जिसमें सबकुछ केवल हिंदू-मुस्लिम डिबेट है।

इन लोगों ने अपने दिमागी ज़हालत में भारतीय संस्कृति के गौरवशाली पर्व-त्यौहारों को भी हिंदु-मुस्लिम में बांट रखा है। होली-दिवाली-ईद-मुहर्रम-छठ-लोहड़ी और गुडफ्राइडे भले ही एक पंथ के संस्कॄति के रूप में अस्तित्व में आए होंगे मगर यह अब भारतीय आस्था के पर्व हैं, जिसमें खुद को भारतीय कहने वाला हर एक इंसान शामिल है।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

विरोध करने का आपका तर्क यही दिखाता है कि आप होलिका के आग के साथ ना ही सारी रंज़िशे जलाना-भुलाना चाहते हैं, ना ही होली के दिन मन के बचे-खुचे मैल रंगों से धोना चाहते हैं और ना ही शाम को खुले और धुले मन से प्रेम-प्यार के वातावरण में गुलाल के रंगों के साथ एक-दूसरे से गले मिलने की तमन्ना रखते हैं।

आप सिर्फ मज़हबी जुनून का बोझ अपने ज़हन और अपने कपड़ों पर मज़हबी हिंसा के धब्बे सजाए रखना चाहते हैं। जिस होली को हिंदुओं के आस्था का पर्व कहकर प्रचारित कर रहे हैं, वह “होली” उच्चारण से मन में हिलोरे केवल एक शब्द मात्र नहीं हैं, यह फाल्गुनी पूर्णिमा पर वसंत का फैलता सुवास भारतीय जन-जीवन में डूबता उतरता गंगा-जमुनी तहज़ीब के बीच में पल रहा रंग-अबीर का रंगोत्सव है।

वह ना धर्म देखता है, ना ही जाति, ना अमीर ना ही फकीर, रंग ना उम्र देखता है और ना ही अवस्था। हर जगह होली, हमजोली की प्रेरणा देती है और सबों को सराबोर कर देती है। सूफी संत बुल्ले शाह के अल्फाज़ भारतीय संस्कृति की मिली-जुली गंगा-जमुनी तहज़ीब और तबीयत की गवाही देते हैं-

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

नाम नबी की रतन चढी, बूंद पड़ी इल्लल्लाह
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फना-फी-अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह।

अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले, सभ सखियां ने घूंघट खोले
कालू बला ही यूं कर बोले, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह।

इसलिए होली मोहब्बत और अपनेपन के असली रंगों के साथ खेलने की ज़रूरत है। ऐसे खेलें कि बाहरी रंग छूट जाएं मगर यह रंग जिन्हें हर तरह से सामने वाले को लगाने जा रहे हैं, ना छूटे और ना ही वह छुड़ाना चाहें क्योंकि रंग-ए-मोहब्बत के यह दाग अच्छे हैं।

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