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“अच्छे दिन की असली तस्वीर दिखा रहा है यह प्रतिरोध गीत”

थोड़ा सा अजीब होगा एक प्रतिरोध के गीत को शोक गीत कह दिया जाना। यह भी उतना ही सही है कि शोक गीत हमेशा प्रतिरोध के स्वर में गाया जाता रहा है।

जब सत्ता की तमाम चालाकियां आवाम के खिलाफ साज़िश में लगी हों, तब आम आदमी के पास शोक गीत रह जाता है। एक ऐसा हथियार जिसके सहारे वो गोला बारूद उगलते तोप के सामने भी निर्भिक खड़ा हो सकता है। शायद यही वजह है कि सत्ता प्रतिष्ठान को सबसे ज़्यादा खौफ शोक गीत गाने वालों से होता रहा है। एक ऐसा गीत, जो हमारे दरम्यान पनपते सड़ांध को सामने ला रखता है, जो ललकारता है आला हुज़ूर को। बेखौफ हो कहता है, तुम्हारा निज़ाम फरेब है और तुम्हारे लोग दोगले हैं।

हमारे आस-पास ऐसे तमाम लोग हैं, जो दरबारी हुकूमत की आवाज़ पर चीखते हैं, ना कहना मंज़ूर करते हैं। भरी महफिल के उत्सव में कर्कश हो उठते हैं। ये लोग खिलाफ होकर हसते हैं, खिलखिलाते हैं और अपनी धुन में जनता की आह का गीत गाते हैं। इसके बावजूद कि तानाशाह सरकार के पास दमन के तमाम उपाय मौजूद हैं।

इन दिनों देश की फासीवादी हुकूमत के खिलाफ एक और ऐसी ही आवाज़ उठ खड़ी हुई है। एक शोक गीत गाने वाला, जिसका वीडियो अभी कुछ दिन पहले ही सोशल मीडिया पर चस्पा हुआ है, वह काफी तेज़ी से लोगों की नज़रों में आ रहा है। वीडियो है, “अच्छे दिन ब्लूज़ बाइ आमिर अजीज़”।

मैं इस प्रतिरोध के गीत, जो इस दौर का शोक गीत है को लेकर बहुत ज़्यादा कहना नहीं चाहता। बस इतना कहा जाना चाहिए कि इसके शब्दों की तल्खियां ज़ुल्म में शामिल जमात और उनके सरदार के कानों से खून बहा देने की ताकत रखती हैं।

पांच साल गुज़रने को हैं, अच्छे दिन का वादा लेकर बीजेपी सत्ता में आई थी, ना जाने क्या-क्या ख्वाब हिन्दुस्तान की आवाम को दिखलाये गए थे। आखिर में हम सबको मिला क्या? एक बंटा हुआ समाज, जिसके चिथड़े पर खून के छींटे हर दम सुर्ख हैं।

शोक गीत गाने वाला अपने इस गीत में कतरा-कतरा मरता देश की तस्वीर उकेरता है। भारत के नाम पर एक ऐसा नक्शा नुमाया होता है, जिसमें भगवत रावत के सपने के देश का राग नहीं राष्ट्रवाद का शोर बरपा होता है। सम्प्रदायिकता की लपटें दिखती हैं, जो सबकुछ भस्म कर देना चाहती हैं। शब्दों का रेल गुज़रता जाता है और सुनने वाले के दिलों-दिमाग में लाशों का पहाड़, डर का अंतहीन गुफा और इन सब पर गफलत, झूठ, फरेब, का राज उभरता जाता है।

शोक गीत गाने वाले को इसमें कोई हैरानी मालूम नहीं पड़ती है। आखिर यह कारोबार इन दिनों जो हर दम फलता-फूलता जा रहा है। वह एकदम संजीदगी से अपने हाथों में एक गीटार थामे, शायद रेल की पटरियों को लांघता हुआ फूटओवर ब्रिज पर आ खड़ा होता है। खामोशी को भेदती एक आवाज़ गूंजती है। शोकगीत गाने वाला कुछ यूं बड़बड़ाता है।

कल सुबह मैं निकला मॉर्निंग वाक पे, लिए एक चाय बैठा चौक पे, गीत का टुकड़ा आगे बढ़ता जाता है, शोक गीत आगे बढ़ता है और हम खुद को तितलियों के किसी जिबह्खाने में पाते हैं।

पूरा गीत सुनने के लिए यहां क्लिक करें-

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