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लंबी चुनावी प्रक्रिया क्षेत्रीय दलों का पलड़ा कमज़ोर कर देती है

हेमंत सोरेन, अखिलेश यादव, मायावती और ममता बनर्जी

हेमंत सोरेन, अखिलेश यादव, मायावती और ममता बनर्जी

आमतौर पर छुट्टी का दिन कहे जाने वाले रविवार को भारतीय निर्वाचन आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त ने परंपरा से हटकर विज्ञान भवन में 17वीं लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान किया।

भारतीय लोकतंत्र के महाउत्सव के लिए यह एक खास मौका है, जिसमें चुनाव आयोग ने “फ्री एंड फेयर इलेक्शन” करवाने पर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है।

चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद विवाद भी शुरू हुआ। यह कहा जाने लगा कि रमज़ान के दिनों में मतदान रखने से मुस्लिम समुदाय को मतदान करने में असुविधा होगी, जिसे लेकर राजनीतिक दलों के बयान भी आए जिसके बाद चुनाव आयोग ने भी अपनी सफाई दे दी।

दो महीने तक चुनाव क्यों?

इस बहस में किसी ने चुनाव आयोग से यह नहीं पूछा कि डिजिटल इंडिया के दौर में जब हम लगातार तरक्की कर रहे हैं, हमारी अर्थव्यवस्था निरंतर मज़बूत हो रही है, देश में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का इस्तेमाल किया जा रहा है और मतदाता व राजनीतिक पार्टियों की शंकाओं को दूर करने के लिए वीवीपैट तक का प्रयोग किया जा रहा है, फिर पूरी चुनावी प्रक्रिया दो महीने लंबी क्यों है?

चुनावी प्रक्रिया में पूरे देश का दो महीने तक उलझे रहना किसी को परेशान क्यों नहीं करता है? हमसे बड़े लोकतंत्र वाले देशों में जहां इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को खारिज़ करके पुन: बैलेट पेपर का इस्तेमाल  होने लगा है, उन देशों में भी चुनावी प्रक्रिया दो महीने तक नहीं चलती है।

माओवाद को वजह बताना आश्चर्यनजक

चुनाव आयोग ने माओवाद और आतंकवाद को इससे पीछे की वजह बताते हुए सुरक्षा कारणों का हवाला दिया, जिससे यह साबित होता है कि मौजूदा सरकार का नोटबंदी का फैसला कम-से-कम माओवाद और आतंकवाद की कमर तोड़ने में असफल सिद्ध हुआ है।

इन सबों के साथ अहम मसला यह भी है कि कमोबेश उत्तर भारत का पूरा का पूरा चुनाव सात चरणों में है, जहां क्षेत्रीय दल ही चुनावी प्रतिस्पर्धा में हैं।

क्या लंबे वक्त तक चुनावी प्रक्रियाओं को जारी रखने से उन सभी दलों के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं होंगी, जिनके संसाधन बहुत सीमित हैं? फिर अब तक यह भी देखा गया है कि लंबे चुनाव में स्थानीय मुद्दे हावी होते जाते हैं, कभी-कभी स्थानीय मुद्दे सामाजिक महौल के सदभाव को भी प्रभावित करने लगते हैं।

वीवीपैट का इस्तेमाल सराहनीय

इन सभी बातों के बीच जिस बात के लिए चुनाव आयोग प्रशंसा का पात्र है, वो यह है कि हर मतदान केंद्र पर वीवीपैट का इस्तेमाल होगा। खैर, सवाल यह भी उठ रहेे हैं कि इन मशीनों में दर्ज कितने प्रतिशत मतों का पर्ची से मिलान होगा? चुनाव आयोग ने यह साफ नहीं किया है।

चुनाव आयोग ने जनमानस में ईवीएम को लेकर उठ रहे सवालों और चिताओं को दूर करने की कोशिश की है। वीवीपैट से निकली पर्ची की गिनती से संभव है कि अब ईवीएम पर लगे हर लांछन दूर हो सके।

चुनाव आयोग के समक्ष चुनौतियां

इन सबके बीच चुनाव आयोग के समक्ष कई चुनातियां हैं और एक मज़बूत लोकतंत्र में चुनाव आयोग को इसपर आज नहीं तो कल विचार करना चाहिए। क्या चुनाव आयोग सत्ताधारी दल को नियंत्रण में रख पाएगा?

मौजूदा वक्त सोशल मीडिया के ज़रिये प्रचार-प्रसार का है। ऐसे में आदर्श आचार संहिता का पालन कैसे हो सकेगा? क्योंकि हेट स्पीच और फेक न्यूज़ का पूरा का पूरा प्रचारतंत्र इस चुनाव में अपनी महत्ती भूमिका निभाने वाला है।

सुनील अरोड़ा, मुख्य चुनाव आयुक्त। फोटो साभार: Getty Images

फिलहाल, देश के मतदाताओं से हम यह उम्मीद करके थोड़ा आशावादी हो सकते हैं कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के गठजोड़ से बने चुनावी महौल में किसान, मज़दूर, महिलाएं और पहली बार मत डालने वाले करीब डेढ़ करोड़ युवा मतदाता, जो नई लोकसभा बनाने के लिए मतदान केंद्रों पर जब अपना मतदान करेगे, वे लोक चिंतन की प्रक्रिया से कहीं अधिक जुड़ी होगी और लोकतंत्र में संवाद की प्रक्रिया कायम रहेगी।

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