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“जन-प्रतिनिधियों से सवाल पूछते रहें ताकि यह लोकतंत्र ज़िंदा रहे”

राजनीतिक रैली

राजनीतिक रैली

देश जब आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ रहा था तब देश के तमाम नेताओं ने देश की जनता का नेतृत्व किया और उनका भरपूर साथ दिया, तब जाकर देश को आज़ादी मिली। आज हम आसानी से उंगलियों पर नेताओं और क्रांतिकारियों के नाम गिन लेते हैं। उन नेताओं के साथ लाखों जनता भी आहुति में जली है लेकिन महत्त्व हमेशा नेतृत्व का होता है और नाम भी उसी का लिया जाता है।

जनता अगर किसी नेता के पीछे चलती है और उसकी कही बातों को दोहराती है, तो इसका मतलब है कि वह उस नेता पर विश्वास करती है और अपने हित और अधिकार को बचाने और सुरक्षित करने की ज़िम्मेदारी उस नेता को देती है।

आज़ादी के समय और उसके बाद कुछ समय तक तो कम-से-कम ऐसा ही था लेकिन अब लोग नेताओं के भक्त बन रहे हैं और उनके लाव-लशकर से प्रभावित होकर ज़्यादातर जनता नेताओं के पीछे जाती है, क्योंकि अब नेता अगुआ कम सेलिब्रिटी ज़्यादा होता है।

यह सब कहने का मकसद सिर्फ यह था कि पहले के नेताओं के पास देश और जनता के लिए एक विचार होता था, एक विज़न होता था और एक जीवन दर्शन होता था, इस नाते जनता का विश्वास था कि वे उनके हित के लिए काम करेंगे और नेता भी सेवा करने के लिहाज़ से राजनीति में दाखिल होते थे।

पैसों का खेल बन गई राजनीति

धीरे-धीरे देश के प्रति नेताओं की शिद्दत इतिहास का विषय बनकर रह गई और राजनीति भी शौकिया, पैसे कमाने का ज़रिया और करियर ऑप्शन की तरह हो गया, क्योंकि राजनीति से ज़्यादा सम्मान, साख और पैसा कहीं नहीं है लेकिन जनता की नेताओं के पीछे जाने और उनपर विश्वास करने की आदत वही पुरानी वाली ही रही है।

इसका नुकसान यह हुआ है कि जनता, भक्त और बेचारी जनता में परिवर्तित होती रही और नेता, जननेता और मार्गदर्शक से सेलिब्रिटी बनते चले गए। यहां तक भी अधिक बुराई नहीं थी लेकिन समस्या तब ज़्यादा बढ़ने लगी जब नेताओं ने तर्कपूर्ण बातें करना और जनता की वास्तविक समस्याओं पर बात करना बंद कर दिए और प्रोपोगेंडा के तहत ऐसे मुद्दे उछाले जाने लगे जिससे जनता का हित कम और नेताओं का हित ज़्यादा था।

ऐसी बातें करना शुरू किए जिससे किसी खास समुदाय, क्षेत्र, जाति या खास विचार के लोगों को समेटकर उन्हें अपना भक्त बनाया जा सके और जब वे भक्त बन जाएं, तो उन्हें अपने फायदे के मुताबिक मोड़ दिया जाए। ज़ाहिर है कि भक्त सवाल नहीं करते, वे सिर्फ पूजा करते हैं।

सवालों की कमी से जूझता लोकतंत्र

लोकतंत्र मरना तब शुरू हो जाता है जब वहां सवालों की कमी हो जाती है और जो कुछ सवाल आते हैं, उनका उल्टा-सीधा जवाब दिया जाता है या सवाल करने वाले की ज़ुबान बंद कर दी जाती है। विडम्बना यह है कि इस बात को जनता ही खुद नहीं समझ पा रही है। जबकि यह बहुत आसान सी बात है कि नेता; समाज, जनता और देश की सेवा के लिए होते हैं और उन्हीं के नाम पर आते हैं।

ऐसे में उनसे सवाल पूछा जाएगा, उनसे जवाब मांगा जाएगा और अगर उनके पास जवाब नहीं होगा, तो उनको पद छोड़ना पड़ेगा लेकिन जब जनता खुद सवाल करना बंद कर दे और आत्ममुग्ध होकर उनकी पूजा करने लगे, तब सबसे खतरनाक स्थित पैदा हो जाती है।

फोटो साभार: Getty Images

अब के नेता सवाल से डरने लगे हैं, नकार से डरने लगे हैं, एक कोना पकड़कर पूरी ज़िन्दगी ऐश से काटने की फिराक में राजनीति में आते हैं। ज़्यादातर नेताओं को देखेंगे तो वे सालों से एक ही सीट से लड़ रहे हैं या अपने पहले के परिवार के सदस्य की सीट पर लड़ते आ रहे हैं और उसे वे छोड़ना भी नहीं चाहते हैं।

अब सवाल यह है कि अगर किसी एक विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र में 4, 5, 8 और 9 बार से एक ही व्यक्ति या उसी परिवार का व्यक्ति जीतने हुए संसद में उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता आ रहा है, तो अब भी उस क्षेत्र का उतना विकास क्यों नहीं हो पाया, यह तो उस नेतृत्व पर सवाल है। ऐसे में जनता उसे नकार क्यों नहीं रही है?

नेता द्वारा जनता को बरगलाया जाता है

अगर जनता ऐसे नेताओं को नकारना चाहती भी है, तो उसे अन्य तरीकों से बरगला दिया जाता है। पहले विपक्ष का मतलब हुआ करता था सरकार को याद दिलाते रहना कि वे सत्ता में इसलिए हैं कि जनहित के काम करें, लोगों की समस्याएं सुलझाएं और देश को आगे ले जाए और इस विपक्ष का मतलब सिर्फ विपक्षी पार्टियां ही नहीं थीं, देश की जनता भी थी।

अब पक्ष और विपक्ष बस एक दूसरे को गरियाने में ही सारी ऊर्जा खर्च करते हैं और जनता से कहते हैं कि हमें सत्ता में लाओ हम तुम्हारा उद्धार कर देंगे और जनता जब ऐसा करती है, तो वे सत्तापक्ष बनकर रह जाते हैं।

विपक्ष का मतलब केवल विरोध नहीं है

आज की राजनीति में यही देखने को मिलता है कि विपक्ष, सत्तापक्ष का अंधा विरोध करता है, चाहे सरकार की नीतियां अच्छी हों या बुरी। अब विपक्ष आलोचना के लिए नहीं बल्कि बुराई और गरियाने का काम ही करता है और सत्तापक्ष जब सत्ता में आता है, तो सबसे पहले अपने पहले की सरकार द्वारा अपने लोगों पर की गई कार्रवाई का बदला लेता है। शहरों, संस्थानों और जगहों का नाम बदलता है।

यहां तक कि अपने विचारों के हिसाब से संस्थानों का रंग-रोगन किया जाता है। उसके बाद अगर वक्त बचे तो जनता का काम, नहीं तो अगली बार काम करने का वादा करके वोट मांगना शुरू हो जाता है। तो कुल मिलाकर राजनीति अब एक-दूसरे पर छींटाकशी और बदला लेने का माध्यम बनकर रह गई है, ईमानदारी नाम की चीज़ नहीं रह गई।

फोटो साभार: Getty Images

नेता अगर हारने और सवालों से ना डरें तो बेहतर हो। इसमें हमें यानि जनता को ही आगे आना होगा और अपने और समाज के हित के सवाल पूछने होंगे। उनके जवाब मांगने होंगे और जवाब ना देने पर उनको नकारना भी सीखना होगा, नहीं तो हम जिसे अपने ऊपर राज़ करने और अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने का अधिकार दे रहे हैं, वे अपनी मनमानी करेंगे और हम हाथ मलते रह जाएंगे।

आजकल नेता सही मुद्दों पर बात करने से भी डरते हैं। आज लोग संप्रदाय की बात में बह जाते हैं और नेता सिर्फ उनसे यही बातें करते हैं कि उस क्षेत्र में इस जाति के ज़्यादा लोग हैं, तो उनकी बात करो और लोग भी इस बात से खुश रहते हैं।

ऐसे में नेता, नेता नहीं बल्कि किसी जाति, समुदाय, धर्म और क्षेत्र का मुखिया बनकर रह जाता है। आम चुनाव में प्रदूषण, पर्यावरण, आदिवासी और पढ़ाई जैसे वैचारिक मुद्दे आते ही नहीं हैं।

वह उनके लिए ना तो समस्या है और ना ही उसपर बात करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि ये बातें कोई नहीं सुनेगा और ना ही इससे उनको वोट ही मिलेगा इसलिए वह बात क्यों की जाए। बात मंदिर, आरक्षण और बेरोज़गारी भत्ते की करो।

हमारी कमी यह है कि हम भी इन्हीं बातों पर खुश रहते हैं, हम नहीं पूछते कि क्षेत्र रहने लायक ही नहीं रह जाएगा, तो हम अन्य सुविधाओं का करेंगे क्या। जब ये प्रकृति ही नहीं रहेगी तो सुविधाओं का क्या करेंगे।

हम अपने उन लाखों भाइयों-बहनों के बारे में नहीं पूछना चाहते जो सड़क किनारे पेड़ के नीचे अपना पूरा जीवन काट देते हैं। सवाल हमें ही पूछना होगा और उन्हें जवाब भी देना होगा। अगर आज के दौर के नेता जनता के सवालों का जवाब नहीं देंगे, तो नकारे भी जाएंगे। आप सवाल करना और जवाब ना मिलने पर नकारना भी सीखिए।

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