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“काँग्रेस के सेक्युलरिज़्म के दावे पर सांप्रदायिक दाग है सिख विरोधी दंगे”

सिख दंगा

31 अक्टूबर 1984 के दिन इंदिरा गाँधी की हत्या कर दी गई थी। उनकी मौत को सार्वजनिक करने के महज़ कुछ समय बाद 31 अक्टूबर 1984 की शाम को राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री बना दिया गया था जिसकी रस्मी कार्यवाही तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने खुद की थी।

01 नवंबर 1984 के दिन सुबह से ही दिल्ली में सिखों के कत्ले-आम की शुरुआत हो चुकी थी, जो 03 नवंबर 1984 तक बिना रोक-टोक चलती रही। इस कत्ले-आम में हज़ारों सिखों को बेरहमी से मारा गया था। पीड़ितों और चश्मदीदों का यह कहना था कि यह कत्ले-आम सरकारी संरक्षण में अंजाम दिए गए थे।

प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने दिखाई असंवेदनशीलता

सिख कत्ले-आम के संदर्भ में यह तथ्य बताने में हमारा मीडिया असफल ही रहता है कि सिख कत्ले-आम के समय राजीव गाँधी की बतौर प्रधानमंत्री यह मौलिक जवाबदेही थी कि वह देश के हर नागरिक को सुरक्षा प्रदान करें। दु:ख की बात यह है कि 15 नवंबर 1984 के दिन एक सार्वजनिक सभा में राजीव गाँधी ने सिख कत्ले-आम पर असंवेदनशीलता दिखाते हुए कहा कि जब एक बड़ा पेड़ ज़मीन पर गिरता है, तब ज़मीन में हलचल होती है।

एक प्रधानमंत्री का दंगों को जस्टिफाई करना डरावना होता है। उनके इस बयान से यह सार्वजनिक कयास लगाए जाने लगे कि काँग्रेस की केंद्र सरकार 1984 के सिख कत्ले-आम को अंजाम देने के लिए पूर्ण रूप से ज़िम्मेदार है।

इस कत्ले-आम के तुरंत बाद हुए आम चुनाव में राजीव गाँधी काँग्रेस का चेहरा बन कर उभरे और चुनाव में ऐतिहासिक जीत के बाद साल 1989 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। उनके कार्यकाल में 1984 के सिख कत्ले-आम की जांच के लिए कई कमीशन बनाए गए लेकिन किसी भी आरोपी को कानूनी सज़ा नहीं हुई।

बुद्धिजीवियों ने दंगों की जांच के लिए बनाया सिटीज़न कमीशन

सिख कत्ले-आम के तुरंत बाद कई बुद्धिजीवियों ने मिलकर अपने दम पर जांच की पहल की और इनकी छानबीन के बाद सार्वजनिक किए गए दस्तावेज़ सिख कत्ले-आम को सरकारी संरक्षण में हुए नरसंहार की भूमिका में पेश करने में बहुत हद तक कामयाब रहे।

इसी के अंतर्गत भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश एस.एम सीकरी, भूतपूर्व कॉमनवेल्थ सचिव और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर बदर उर दिन त्याब्जी, भूतपूर्व विदेश सचिव राजेश्वर दयाल, कर्नाटक के भूतपूर्व गवर्नर, गृह और रक्षा सचिव गोविंद नारायण और भूतपूर्व गृह सचिव टी.सी.ए श्रीनिवस्वरदान द्वारा सिटीज़न कमिशन बनाया गया। इन सभी बुद्धिजीवियों ने बिना किसी सरकारी तंत्र और मानव अधिकार संस्था की सहायता के स्वतंत्र रूप से सिख कत्ले-आम के संदर्भ में अपनी जांच को अंजाम दिया।

भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश के रूप में श्री एस.एम सीकरी और बाकी सारे बुद्धिजीवियों ने सिख कत्ले-आम के दौरान सरकार के अधीन दूरदर्शन, ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली पुलिस, काँग्रेस के कई वरिष्ठ नेता, दिल्ली के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर और पूरी सरकारी व्यवस्था को ही आपराधिक कठघरे में खड़ा कर दिया था। इन सभी बुद्धिजीवियों का किसी भी राजनीतिक या धार्मिक संस्था से किसी भी तरह का कोई संबंध नहीं होने से इनके द्वारा की गई जांच पर प्रामाणिकता की मोहर अपने आप लग जाती है।

सिटीज़न कमिशन के अनुसार 31 अक्टूबर 1984 के दिन की सारी घटनाओं का क्रम:

सुबह 9:15 पर श्रीमती इंदिरा गांधी को उनके ही अंग रक्षकों ने गोली मारकर गंभीर रूप से जख़्मी कर दिया। सुबह दस बजे सबसे पहले बी.बी.सी. पर इस हमले की जानकारी सार्वजनिक की गई। 11 बजे ऑल इंडिया रेडियो पर श्रीमती इंदिरा गाँधी पर हुए हमले की खबर को सार्वजनिक किया गया। यहां उन पर हमला करने वाले उनके अंग रक्षकों की धार्मिक जानकारी यानी उनके सिख होने की पुष्टि भी कर दी गई। दोपहर के वक्त प्रकाशित होने वाले अखबारों ने इस खबर को अपने मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित किया।

शाम को पांच बजे तत्कालीन राष्ट्रपति श्री ज्ञानी जैल सिंह अपनी विदेश यात्रा को बीच में ही छोड़ कर ऐम्स अस्पताल पहुंचे जहां भीड़ द्वारा श्री ज्ञानी जैल सिंह की गाड़ी पर पथराव किया गया। शाम के छः बजे ऑल इंडिया रेडियो के माध्यम से श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या की खबर को प्रकाशित किया गया।

शाम 6:05 पर श्री राजीव गाँधी को देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। इसके बाद दिल्ली के कई इलाकों से सिख समुदाय के प्रति हिंसा की खबरें आने लगी। सिख समुदाय के लोगों को कार, बस से खींच कर मार पीट की जाने लगी और सिख पगड़ी को उछाल कर अपमानित किए जाने की खबरें दिल्ली के विभिन्न इलाकों से आनी शुरू हो गई। सिख के दुकानों और व्यावसायिक संस्थाओं को लूटा गया लेकिन इस वक्त तक किसी भी सिख के कत्ल की खबर नहीं आई थी।

राजीव गाँधी। फोटो साभार: सोशल मीडिया

इसी के अंतर्गत 31 अक्टूबर 1984 की रात को ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन के माध्यम से दिल्ली में धारा 144 लागू होने की खबर को प्रकाशित किया गया जहां किसी भी तरह से पांच या पांच से ज़्यादा लोगों को साथ खड़े होने पर, गुट बनाने पर और हथियारों को सार्वजनिक रूप से रखने पर पूर्ण रूप से रोक लगा दी गई। इसी रात को श्री राजीव गांधी ने तत्कालीन देश के प्रधानमंत्री के रूप में देश को संबोधित करते हुए शांति बनाने की अपील की थी।

01 नवंबर 1984 के दिन सुबह से ही दिल्ली के कई इलाकों में भीड़ द्वारा सिख समुदाय पर हो रहे कातिलाना हमलों की खबरों के आने का सिलसिला शुरू हो गया। इन खबरों के अनुसार दिल्ली के त्रिलोकपुरी, कल्याणपुरी, गाँधी नगर, सुल्तानपुरी, मंगोलपुरी, जनकपुरी और पालम कॉलोनी में सिख समुदाय का कत्ले-आम शुरू हो गया था।

इसी दिन त्रिलोकपुरी जहां श्रीमती इंदिरा गाँधी को सार्वजनिक दर्शन के लिए रखा गया था, वहां भारी संख्या में नागरिक और काँग्रेस कार्यकर्ता जुड़ रहे थे। यहां आम लोगों से हो रही बातचीत दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो के माध्यम से सार्वजनिक रूप से प्रकाशित किए जा रहे थे, जहां खून के बदले खून और सरदार गद्दार के नारे सार्वजनिक रूप से आम जनता को सुनाई दे रहे थे।

इसी दिन कई विशिष्ट लोकसभा सांसद, राज्यसभा सासंद और कई विशिष्ट नागरिकों ने दिल्ली पुलिस से सिख समुदाय की रक्षा के लिए अपील की थी लेकिन खाकी वर्दी सुरक्षा कर्मियों की कमी का हवाला देकर खुद को अपनी जवाबदेही से मुक्त कर रही थी। इसी दिन शाम तक फौज को बुलाया गया था और किसी भी तरह के दंगाई को देखते ही गोली मारने का आदेश दे दिया गया था।

इसी शाम को तत्कालीन गृह सचिव यह कहते हुए सुने गए कि स्थिति पूर्ण रूप से सरकार के नियंत्रण में है और 02 नवंबर को भी गृह सचिव यह कह रहे थे कि कुछ मामूली घटना को छोड़ कर स्थिति पूर्ण रूप से नियंत्रण में है। 01 नवंबर 1984 को दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने कहा था कि किसी भी तरह के सरकारी राहत कार्य के लिए किसी भी तरह के कैम्प की कोई ज़रूरत नहीं है जहां पीड़ितों को रखा जाए। उन्होंने आगे कहा था कि मौजूदा हालात में सेना की उपस्थिति की कोई ज़रूरत नहीं है।

1984 के सिख कत्ले-आम को सरकारी व्यवस्था पूर्ण रूप से नकार रही थी। यह कितना अमानवीय था कि सिख कत्ले-आम पीड़ितों को सरकार किसी भी तरह का संरक्षण देने से साफ तौर पर मना कर रही थी।

सिखों से मुलाकात में सामने आया खौफनाक सच

मैं एक बार दिल्ली की सड़क पर एक अजनबी बुज़ुर्ग सिख से मिला था। जब दो तीन बातों के बाद 1984 की बात चली तो उन्होंने अपने सामने वाली ज़मीन की तरफ हाथ से इशारा करके कहा कि यह सारी ज़मीन सिख समुदाय की थी लेकिन दंगाइयों ने पहले इसे लूटा फिर जलाया और बाद में या तो कब्ज़ा कर लिया या बहुत सस्ते दामों में सिख समुदाय से खरीद ली। इस तरह के कई उदाहरण पत्रकार जरनैल सिंह की 1984 के संदर्भ में लिखी गई किताब में भी मिल जाते हैं।

1984 सिख कत्ले-आम के बाद बहुत बड़ी तादाद में सिख परिवार दिल्ली छोड़ने के लिए मजबूर हो गए थे क्योंकि दिल्ली में इन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं मिल रही थी। सज्जन कुमार के केस में मुख्य गवाह रही श्रीमती जगदीश कौर और श्रीमती निरप्रीत कौर इस सिख कत्ले-आम में अपने परिजनों को खो चुकी थी। इनका बाकी का परिवार आज पंजाब में रह रहा है।

एक और अजनबी सिख से मुलाकात हुई जो कि खुद दिल्ली से हैं। उनका भी यही कहना था कि जहां सिख समुदाय एकत्रित हो गए वहां जान माल के नुकसान से बचाव हो गया था मगर जहां पुलिस कर्फ्यू का हवाला देकर सिख समुदाय को घरों में वापस जाने के लिए मजबूर कर रही थी वहां बहुत ज़्यादा नुकसान हुआ था। इसका मतलब जो कर्फ्यू लगाया गया था वह सिख समुदाय के लिए था क्योंकि हथियारबंद दंगाई तो बिना रोक टोक के आज़ाद घूम रहे थे।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

इस अजनबी सिख ने मुझे आगे बताया कि जिन व्यावसायिक दुकानों, दफ्तरों, फैक्ट्रियों, घरों को जलाया गया उनमें से जिनका बीमा करवा के रखा गया था उनको बीमा कंपनी ने यह कहकर भुगतान देने से मना कर दिया था कि बीमा की शर्तों में दंगे और कत्ले-आम शामिल नहीं थे। सरकार की तरफ से भी किसी भी तरह से सिख व्यापारियों को आर्थिक मदद नहीं दी गई। इस तथ्य का ज़िक्र अमिया रॉय की रिपोर्ट में भी देखने को मिलता है।

वही सिटीज़न कमीशन की रिपोर्ट में 02 नवंबर 1984 के संदर्भ में बताया गया है कि अब सिख कत्ले-आम अपने चरम पर थी जहां सिख समुदाय के लोगों को घरों से, बस से, कार से बाहर निकालकर मारा जा रहा था। अब दंगाइयों के हौसले इतने बुलंद हो गए थे कि वे दिल्ली से बाहर ट्रेनें रोक कर उनमें से सिख यात्रियों को बाहर निकालकर आग लगाकर मार रहे थे। मेरे ही शहर में एक सिख परिवार को ट्रेन की यात्रा के दौरान मारा गया था। पंजाब में एक फौजी ने बताया था कि उसने अपने बालों को कटवा कर अपनी जान बचाई थी।

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी और विपक्ष के कुल मिलाकर 15 नेताओं ने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की थी। इसी दिन श्री राजीव गांधी ने इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राष्ट्र के नाम दूसरी बार संबोधन किया जहां उन्होंने शांति बनाए रखने की अपील की। उन्होंने शांति बहाल करने के लिए हर तरह की सरकारी मदद का भरोसा दिलाया। इसी दिन शाम को श्री राजीव गाँधी ने खुद कत्ले-आम प्रभावित स्थलों का दौरा किया।

एक सफर के दौरान एक सिख से मुलाकात हो गई जो एक ट्रक ड्राइवर था और इससे पहले कलकत्ता में बतौर टैक्सी ड्राइवर काम किया करता था। उन्होंने मुझे बताया कि सिख कत्ले-आम 1984 के दौरान पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री ज्योति बसु ने तुरंत संज्ञान लेते हुए फौज को बुला लिया था। समय पर फौज द्वारा शहर में गश्त लगाए जाने से कलकत्ता में सिख समुदाय किसी भी तरह के नुकसान से बच गये थे। उन्होंने मुझे आगे बताया कि इसी दिन तुरंत श्री ज्योति बसु ने गुरुद्वारा साहिब की रक्षा के लिए भी पुलिस को लगा दिया था। श्री ज्योति बसु का इसी सिलसिले में अमिया रॉय की रिपोर्ट में भी कथन मिलता है।

देश की राजधानी में इतनी कड़ी सुरक्षा के बीच सिखों का कत्ले-आम कैसे चलता रहा?

देश की राजधानी दिल्ली में फौज और बाकी सभी सुरक्षा संस्थाओं के मुख्य दफ्तर हैं। यहां पल-पल की खबर इंटेलिजेंस विभाग से सरकार को मिलती रहती है। दिल्ली की पुलिस केंद्र सरकार के अधीन है। ऐसे में वहां किस तरह तीन दिन तक लगातार सिख कत्ले-आम चलता रहा यह सवाल परेशान करने वाला है। जहां फौज शहर के दूसरे कोने में थी वही सिख कत्ले-आम शहर के अलग कोने में हो रहा था। सरकार के मुख्य विभागों के आपस के इस गैर ज़िम्मेदाराना बर्ताव से सिख कत्ले-आम में सरकारी संस्थाओं में आपसी तालमेल की कमी से ज़्यादा एक सोची समझी साज़िश का एहसास ज़रूर होता है।

यहां तक कि 02 नवंबर 1984 तक किसी भी तरह से सिख कत्ले-आम के पीड़ितों के लिए सरकार ने किसी भी तरह की कोई मदद नहीं की थी। जो कैम्प लगाए गए थे वे कई गैर सरकारी संस्थानों द्वारा लगाए गए थे। सरकार द्वारा किसी भी तरह से पीड़ितों की मदद नहीं करना सिख कत्ले-आम को सरकारी संरक्षण की ओर इशारा करता है।

सिटीज़न कमीशन 03 नवंबर 1984 का हवाला देकर लिखती है कि इस दिन श्रीमती इंदिरा गाँधी का दाह संस्कार करना था और इससे ठीक पहले दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर को छुट्टी पर भेज दिया गया। अब गृह सचिव को इस पद की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई थी। इंदिरा गाँधी के दाह संस्कार के संबंध में फौज और पुलिस को विदेशी मेहमानों की सुरक्षा के इंतज़ाम में लगाया गया। फौज द्वारा शहर में गश्त लगाने से जहां स्थिति में सुधार हो रहा था वहीं नई दिल्ली के सिवा सभी स्थानों पर कर्फ्यू में ढील दी जाने लगी।

02 नवंबर 1984 की रात को श्री राजीव गाँधी का सिख कत्ले-आम प्रभावित इलाकों का दौरा किए जाने और 03 नवंबर 1984 के दिन फौज की गश्त को शहर में घुमाने से स्थिति काबू में आती दिखाई दी लेकिन उनका सिख कत्ले-आम से अंजान बनना और किसी भी तरह से सिख पीड़ितों की मदद के लिए आगे ना आना उन्हें दोषियों की कतार में सबसे आगे खड़ा करता है।

सिटीज़न कमीशन ने मीडिया, पुलिस और सरकार को सिखों के कत्ले-आम का ज़िम्मेदार माना

सिटीज़न कमीशन ने कई सिख पीड़ितों से बातचीत की और अपनी जांच के आधार पर कई घटनाओं का वर्णन किया। अपने निष्कर्ष में कमीशन ने यह लिखा कि सिख कत्ले-आम को इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद अंजाम देना इस बात की ओर इशारा करता है कि यह सिख समुदाय को सबक सिखाने के इरादे से किया गया। अपने अनुभव से कमीशन ने आगे लिखा कि इस कत्ले-आम में लोकसभा सांसद से लेकर पार्षद तक की भागीदारी को पीड़ितों ने अपने बयानों में दर्ज करवाया है।

रिपोर्ट में दिल्ली पुलिस और सरकारी तंत्र पर भी गैर जवाबदेही का आरोप लगाया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि श्रीमती इंदिरा गाँधी पर हुए हमले और उनकी मौत की खबर को सार्वजनिक करने के बीच करीब आठ घंटे से ज़्यादा का समय था। इस दौरान प्रशासन और पुलिस विभाग चौकसी दिखाकर किसी भी अप्रिय घटना को रोकने के लिए सक्षम कार्यवाही कर सकते थे।

धारा 144 लागू करके कर्फ्यू के दौरान किस तरह भीड़ सिख समुदाय के घरों को चुन-चुन कर निशाना बनाने में कामयाब हो रही थी यह एक बड़ा सवाल है। जहां भी हिंसा हुई वहां किसी भी तरह के पुलिस प्रशासन की उपस्थिति का कोई ब्यौरा नहीं मिलता। सरकारी प्रशासन और पुलिस गैर ज़िम्मेदार थी या किसी दबाव के नीचे काम कर रही थी इसका जवाब संजय सूरी की 1984 के संदर्भ में लिखी गई किताब में भी मिलता है जहां कांग्रेस के एक बड़े नेता पुलिस थाने में पुलिस अफसर की मौजूदगी में सिख कत्ले-आम में लूट के आरोप में पकड़े गए लोगों की पैरवी करते हुए दिखाई दे रहे हैं।

संजय सूरी। फोटो साभार: सोशल मीडिया

कमीशन का सबसे बड़ा आरोप सरकारी मीडिया संस्थानों दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो पर था कि क्यों और किस तरह से श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या करने वाले उनके अंग रक्षकों की पहचान सिख अंग रक्षक के रूप में सार्वजनिक की गई। लोगों द्वारा लगाया जा रहा नारा “खून के बदले खून” को राष्ट्रीय मीडिया क्यों दिखा रहा था?

शुरुआत में सिख कत्ले-आम को इस तरह दिखाया गया कि दो समुदाय के बीच बंदूक की गोलियां चली जिसके बाद सिख कत्ले-आम शुरू हो गया जो कि बिल्कुल गलत बात थी। सज्जन कुमार के केस में अहम गवाह रही श्रीमती जगदीश कौर ने फिल्म जगत के बड़े अभिनेता अमिताभ बच्चन पर भी आरोप लगाया कि वह टीवी पर “खून के बदले खून” के नारे लगाते हुए दिखे थे। यह समझा जा सकता है कि एक लोकप्रिय कलाकार द्वारा इस तरह के नारे लगाने पर इसका असर आम जनता पर हो सकता है।

हर तरह के घटनाक्रम को एक दस्तावेज़ का रूप देकर सिटीज़न कमीशन ने 1984 के सिख कत्ले-आम के संदर्भ में बहुत सी जानकारी आम जनता के लिए सार्वजनिक की है। कमीशन ने श्री राजीव गाँधी और श्री पी.वी. नरसिम्हा राव से भी मिलने का अनुरोध किया था लेकिन वे कभी भी सिटीज़न कमीशन के सामने पेश नहीं हुए।

मीडिया, पुलिस, सरकारी प्रशासन इन सबकी भूमिका 1984 के सिख कत्ले-आम में शक के घेरे में आती है। अगर सरकार इस पर निष्पक्ष जांच करवाती तो सभी दंगाई कानून की गिरफ्त में होते। 1984 के सिख कत्ले-आम के बाद भी इसके प्रति सरकार का बहुत गैर ज़िम्मेदाराना रवैया श्री राजीव गाँधी की सरकार और कांग्रेस पार्टी की सिख कत्ले-आम में भागीदार होने पर एक तरह से मोहर लगा देता है।

आज जब माननीय दिल्ली हाई कोर्ट ने कांग्रेस के नेता सज्जन कुमार को सिख कत्ले-आम के संदर्भ में उम्रकैद की सज़ा सुनाई है, तब इस तथ्य को और बल मिलता है कि सिख कत्ले-आम एक सुनियोजित सरकारी कत्ले-आम था और उस समय के प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी और कांग्रेस पार्टी की सरकार 1984 सिख कत्ले-आम के लिए पूरी तरह से ज़िम्मेदार है।

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