Site icon Youth Ki Awaaz

“क्रोशिया आर्ट के शौक ने मुझे बिज़नेस वुमेन की पहचान दिलाई”

Vibha Shrivastva, crosia designer

मैं विभा श्रीवास्तव, सारण ज़िले के मकेर गाँव की रहने वाली हूं। मेरा जन्मस्थल बाल्मीकी नगर है। मेरी मैट्रिक तक की पढ़ाई वाल्मिकी नगर (पश्चिमी चंपारण) में हुई है। मेरे चार भाई हैं, मैं उन सबमें बड़ी हूं। बचपन से ही मेरी रुचि पढ़ाई के साथ-साथ खेलकुद एवं आर्ट क्राफ्ट में रही है। मैं अपनी माँ एवं आस-परोस से बहुत कुछ सीखा करती थी लेकिन मेरे स्कूल में इस हूनर की कोई मान्यता नहीं थी। वजह, यह हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं हुआ करता था।

अक्सर मेरी चाहत हुआ करती थी कि मेरे द्वारा बनाई गई चीज़ों की तारीफ हमारे स्कूल में हो या उन्हें मेरे स्कूल में एक हिस्सा बनाकर शामिल किया जाये लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाया।

बचपन से क्रोशिया और धागे का यह प्यार एक दिन इतना रंग बिखेरेगा ऐसा मुझे अंदाज़ा भी नहीं था। बचपन के इस प्यार को नज़रअंदाज़ नहीं करते हुए मैंने अपने आस-पास की महिलाओं और लड़कियों को ट्रेनिंग देना शुरू किया और देखते ही देखते स्किल डेवलपमेंट का एक हिस्सा बन गया है, अब क्रोशिया ट्रेनिंग।

शायद अगर इस क्रोशिया और धागे के महत्व को स्कूल के टाइम से ही थोड़ा सा समझा जाता, तो मेरे जैसी बहुत सारी लड़कियां अपनी पहचान बनाकर खुद को एक उदाहरण के रूप में सामने ला सकती थीं।

पढ़ाई का मौका नहीं मिलने पर मैंने क्रोशिया को बनाया साथी

विभा श्रीवास्तव

मैं 1984 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पायी। वाल्मिकी नगर में कॉलेज नहीं था और मेरे परिवार वालों की मानसिकता कुछ ऐसी थी कि लड़कियां बाहर जाकर पढ़ाई पूरी नहीं कर सकती। पढ़ाई नहीं करने की वजह मेरे पास समय खूब हुआ करता था, अब मुझे स्कूल नहीं जाना होता था।

इस खाली समय में मैंने क्रोशिया से अपने प्यार को और गहरा होने दिया। दिन प्रतिदिन क्रोशिया और धागे से यह प्यार एक आदत के रूप में परिवर्तित होता गया। अब क्रोशिया के माध्यम से मेरे द्वारा कई प्रकार के हस्तनिर्मित सजावट की सामाग्री बनकर तैयार होने लगी। बेडशीट, टेबलक्लॉथ, तोड़न, फ्लावरपौट, वॉल हैंगिंग इत्यादि कई प्रकार के प्रोडक्ट बनकर सामने आने लगे, जो मेरे द्वारा हस्तनिर्मित हुआ करते थे।

1989, छपरा ज़िले के मकेर गाँव में मेरी शादी हो गयी। आलम कुछ ऐसा था कि मुझे मिट्टी तले दबा हुआ सा महसूस होने लगा हो। जैसे आज़ादी छिन सी गयी हो लेकिन एक कहावत है ना कि आदत से मजबूर इंसान कहीं भी अपनी पहचान छोड़ने मे पीछे नहीं रहता। मैं भी कुछ वैसे ही लोगों में थी।

ससुराल में सबकी सेवा करने के साथ-साथ मैंने आस-पास की लड़कियों को उनके ही माध्यम से अपने घर पर इकट्ठा करके उन्हें क्रोशिया सीखाना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों मे छपरा ज़िले के एक छोटे से गाँव मकेर से मैंने करीब-करीब 10 हुनरमंद लड़कियों को खुद के बल बूते जीने को तैयार कर दिया था। कारवां बढ़ता गया और मंज़िल की ओर अग्रसर यह हाथ फिर भी नहीं रुके और लड़कियों के कौशल के विकास का दौड़ वहां से मेरे द्वारा शुरू हो गया।

पटना आने के फैसले ने लाया बदलाव

विभा श्रीवास्तव

इस दौड़ान कुछ सालों में मैं 3 बच्चों की माँ बन चुकी थी। गाँव में ना कोई बाहर निकलने का रास्ता, ना ही कोई आर्थिक स्थिति का समाधान नज़र आ रहा था। चिंताओं से घिरती जा रही मैं अब यह सोच रही थी कि क्या अब मैं इतनी सीमित रह जाने वाली हूं या फिर कोई और रास्ता निकाल पाऊंगी?

मेरे पति भी प्राइवेट जॉब में थे, मेरे लिए मेरे बच्चों का भविष्य भी बहुत महत्वपूर्ण था। मैं यह सोच रही थी कि कैसे मैं अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिला पाऊंगी? क्या कोई रास्ता सामने निकल कर आएगा? जन्म देना तो फिर भी आसान था लेकिन क्या भविष्य बनाना भी उतना ही आसान है?

इसके लिए ज़रूरी था अब घर से बाहर निकलना, तब मैंने ठानी कि मुझे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए शहर का रास्ता देखना ही होगा। मैट्रिक तक की पढ़ाई बच्चों की गाँव से पूर्ण करवा कर मैं बच्चों को लेकर पटना आ गयी, जहां मुझे साथ मिला बिहार महिला उद्योग संघ की तत्कालीक सचिव श्रीमती उषा झा जी का। अपने पति के साथ साथ मुझे उषा आंटी जैसे अभिभावक सह मार्गदर्शक का आशीर्वाद मिला और शुरू हुआ मेरा खुले गगन में पैर रखकर अपने सपनों को जीने का सफर।

मुझे विभिन्न प्रकार के मंच मिलने लगे, जहां से मैं फ्रॉक, स्वेटर, टॉप, स्कर्ट, मफलर इत्यादि कई प्रकार के कपड़े हस्तशिल्प के रूप में बनाकर बेच पाती थी और उसी के माध्यम से कुछ कमाई भी हो जाती थी।

अब दूसरों को भी रोज़गार दे रही हूं मैं

कुछ ही दिनों मे ऑर्डर इतना बढ़ गया कि 400-500 पीस तक का ऑर्डर मुझे मिलने लगा। फिर मैंने वहां के आस-पास की लड़कियों को इकट्ठा किया और कुछ संस्थान, जिनमें मिथिला विकास केंद्र जैसे संस्थान शामिल थे उन सबके द्वारा गरीब लड़कियों को इस क्रोशिया कला की ट्रेनिंग देने लगी। साथ ही उन्हें रोज़गार के अवसर भी देने लगी, क्योंकि मेरे पास अच्छे खासे ऑर्डर हुआ करते थे। कभी मैं 10 रुपए के लिए भी भटकती थी और अब दिन ऐसा था कि 10 महिलाओं को रोज़गार प्रदान करने लायक खुद बन चुकी थी।

विभा श्रीवास्तव द्वारा क्रोशिया से निर्मित आभूषण।

इसके बाद मैं रेनबो होम जैसे संस्थानों में मुफ्त में अनाथ और गरीब बच्चियों को भी ट्रेनिंग देने जाने लगी, ताकि एक दिन वो भी अपने इस हुनर से रोज़गार ले सके और अपने पैरों पर खड़ा हो सके। कुछ सालों पहले से मैंने एक नया नवाचार भी प्रयोग में लाना शुरू किया है और वह है आभूषण का निर्माण। हां, क्रोशिया और धागे की मदद से अद्वितीय अद्भूत डिज़ाइन के आभूषण का निर्माण करना भी संभव था, जिसका आइडिया मुझे आया और मैंने इसे एक रूप दे दिया।

हाल ही में हमारे आभूषणों ने मार्केट में अपनी एक ज़बरदस्त धमक पेश की है और आभूषणों की डिमांड इतनी संख्या में बढ़ गई है कि अब मुझे उसके लिए विशेष तौर पर एक अलग टीम बनानी पड़ गयी है। अब कई अलग-अलग एक्सपोर्ट चैनल के माध्यम से मेरे द्वारा बनाई गए आभूषण विदेशों में भी भेजे जाने लगे हैं।

मेरे काम के मुझे कई जगह किया गया सम्मानित

क्रोशिया आभूषण निर्माण में कदम रखने के बाद मेरी पहचान एक अलग सामाजिक उद्यमी के रूप में स्थापित हो पायी है। अब जड़ी, रेशम और जुट इत्यादि से भी आभूषण बनने लगे हैं और मैं काफी लोकप्रिय होने लगी हूं। हाल ही में हमारे द्वारा किए गए कार्यों के लिए मुझे कई अलग-अलग संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया, जिनमें एहसास प्रेरक सम्मान, सारण की बेटी सम्मान, सुरेन्द्र सिन्हा मेमोरियल अवॉर्ड फॉर आर्ट एंड क्राफ्ट इत्यादि शामिल हैं।

Exit mobile version