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“होली के रंगों से बुना है भारत का सामाजिक तानाबाना”

रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण

रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण

होली के त्यौहार पर हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देता हुआ सर्फ एक्सेल ने एक विज्ञापन बनाया लेकिन कट्टरपंथियों ने इस विज्ञापन को नापसंद करते हुए सोशल मीडिया पर सर्फ पाउडर के बहिष्कार का अभियान चला दिया। यह अभियान #boycottSurfexcel और #BoycottHindustanUnilever जैसे हैशटैग के साथ शुरू किया गया।

ये वही लोग हैं जो दीपावली पर चाइनीज़ मोबाईल से चाइनीज़ सामानों का विरोध तो करते हैं लेकिन पड़ोस के कुम्हार से दीया खरीदने के बजाय रात के अंधेरों में चाइनीज़ झालर से अपने मकानों को सजा कर सोशल मीडिया पर औरों को ख्याली पुलाव बांटते हैं।

ऐसा क्या है विज्ञापन में

सर्फ एक्सेल के विज्ञापन में एक मुस्लिम बच्चा नमाज़ पढ़ने के लिए घर से निकलना चाहता है मगर गली के मकानों में बच्चे पिचकारी और रंग भरे गुब्बारे लिए खड़े हैं। उसे डर इस बात का है कि नमाज़ पढ़ने से पहले उसका सफेद कुर्ता खराब ना हो जाए।

इसी बीच एक हिंदू बच्ची साइकिल से आती है और गली के सारे बच्चों से होली के रंग अपने ऊपर फेंकने को कहती हैं। बच्चे रंग फेंकते हैं, जब बच्चों का सारा रंग खत्म हो जाता है, तब बच्ची मुस्लिम बच्चे को अपनी साइकिल पर बैठा कर मस्जिद तक छोड़ कर आती है।

फोट साभार: सोशल मीडिया

ऐसा करने के पीछे बच्ची का मकसद होता है कि मुस्लिम बच्चे को नमाज़ पढ़ने जाने के रास्ते में रंग ना पड़े। हां, जब मस्जिद में जाते समय बच्चा उस से कहता है, नमाज़ पढ़कर आता हूं तो बच्ची जवाब देती है, बाद में रंग पड़ेगा।

दो मज़हबों के बीच की यह गंगा जमुनी सदभाव कट्टरपंथी लोगों को भला कैसे रास आती, क्योंकि सदभावना यदि पूरे देश में फैल जाय तो उनकी दुकानदारी जो बंद हो जाएगी।

क्या है आपत्ति

विज्ञापन की टैगलाइन है, “अपनेपन के रंग से औरों को रंगने में दाग लग जाएं तो दाग अच्छे हैं।” विज्ञापन में सौहार्द के सन्देश की सराहना करने के बजाय कट्टरपंथियों द्वारा आपत्ति इस बात की बताई जा रही है कि विज्ञापन में बच्ची हिंदू और बच्चा मुस्लिम क्यों दिखाया गया?

कहा जाने लगा कि ऐसे विज्ञापनों से लव जिहाद बढ़ेगा और बच्चों के मन पर दकियानूसी परंपराओं के दाग गहरा असर डालेंगे। यह भी कहा जा रहा है कि विज्ञापन देखकर बच्चे पूछेंगे कि इस बच्चे ने टोपी क्यों पहन रखी है? होली के रंग से बच्चा बच क्यों रहा है?

क्या कट्टरपंथी इस बात से अंजान हैं या अंजान बनने का ढोंग कर रहें हैं कि इंसानों को बांटने वाला प्रतीक तिलक, चोटी, दाढ़ी, टोपी और धोती पहले से ही हमारे समाज में मौजूद हैं।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

गुरुकुल, मदरसा और मिशनरी स्कूलों में बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है? बच्चों को धार्मिक शिक्षा कौन दे रहा है? धार्मिक जुलूस कौन निकलता है और क्यों निकाला जाता है?

तब ऐसे ज्ञानी विरोध करने के बाजय मौन धारण कर किस कोने में दुबक जाते हैं? दरअसल, नफरत और घृणा के सौदागरों के धंधे की जड़ें सौहार्द के हल्के से झोंके से हिलने लगती हैं। ऐसे विज्ञापनों से समाज में सौहार्द और लोगों के बीच आपसी भाईचारा बढ़ेगा।

कट्टरपंथियों के आपत्ति का मुख्य कारण यही है। होली की रंगतें देश की गंगा जमुनी संस्कृति में रची बसी है। मान्यता और मिथक कुछ भी हों लेकिन भारत का सामाजिक तानाबाना तो मानो होली की मस्ती और रंग के रेशों से बुना-गुंथा हुआ है।

बेशक इसे तोड़ने वाले भी यही हैं और वे हर किस्म के सौहार्द को शक और क्रोध से देखते आए हैं लेकिन पर्व की खासियत ही कुछ ऐसी है कि कोई एकरंगा रह ही नहीं सकता है।

तभी तो ‘होली खेले रघुवीरा अवध में’ और राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर आज ‘रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री होली’ गाई जाती है।

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