Site icon Youth Ki Awaaz

“पहले मतपेटियों पर कब्ज़ा होता था, अब सीधे जनता के दिमाग पर कब्ज़ा होता है”

बहुत पहले दीवारों पर ब्लैक पेंट से उम्मीदवार का नाम लिखा होता था और उसके नीचे लिखा होता था कर्मठ, योग्य, जुझारू एवं ईमानदार “फलाने सिंह” या “ढिमकेराम” को वोट देकर सफल बनाए।  इनकी सफलता आपकी अपनी सफलता होगी। इसके बाद चुनाव के दौरान गॉंव में एक दो एम्बेसडर कार आती थी, जिसमें लाउडस्पीकर लगे होते थे, जो उम्मीदवार का गुणगान करती, धूल उड़ाती गलियों से गुज़र जाती थी। उनके पीछे बच्चे दौड़ते थे, वो पांच-सात पम्पलेट फेंक देते थे। लकड़ी के बने दरवाज़ों के बीच से या छोटी दीवारों से उचककर आधा घुंघट कर महिलाओं के लिए सब देखना किसी विस्मय से कम नहीं होता था।

इसके बाद जैसे-जैसे मतदान का समय निकट आता था उम्मीदवार भी गाँव की चौपाल आदि में एक छोटा भाषण देकर अपने लिए वोट मांगता था। गाँव के बड़े बुजुर्ग भी कह देते थे नेताजी पूरा गाँव आपके साथ है। हालाँकि यह सिर्फ उम्मीदवार को खुश करने की बात होती थी।

यह अस्सी के दशक का भारत था। फिर नब्बे के दशक का भारत आया, उसमें दीवारों पर पोस्टर चिपकने लगे। रेहड़ी या रिक्शा वाले जो चुनाव से पहले या बाद में चूरण बेचते थे, वो चुनाव के दिनों में रेहड़ी पर छोटा सा लाउडस्पीकर लगाकर एक दो महीना भावी उम्मीदवार की ईमानदारी, कर्मठता उसकी सज्जनता बेचकर मतदाताओं को लुभाते थे।

अधिकांश चुनाव मुद्दों पर आधारित होते थे। कोई गरीबी हटाता था, कोई किसान मज़दूर की पैरवी करता, कोई फसल का दाम मांगता तो कहीं सिंचाई की बात करते नेता हुआ करते थे। उस समय धर्म-कर्म में साधु लीन थे, तो राजनीति में नेता।

इसके बाद हाड़तोड़ मेहनत करते मतदाता किसान मज़दूर थे। हां, फटे पुराने कुर्तों या कमीज़ों पर बच्चे पार्टी के बिल्ले लगाते, बिना बात उम्मीदवारों के पक्ष में नारे लगाते। इक्का-दुक्का छत पर टीवी एंटीना के साथ आड़े तिरछे डंडे पर किसी पार्टी का झंडा देखने को मिल जाता था। चुनाव के बाद दूरदर्शन या आकशवाणी पर पता चलता था कि देश में किसकी सरकार बनी है।

बदल गया है चुनाव प्रचार का तरीका

आज ऐसा नहीं है, आज छोटे से छोटे नेता के काफिले में भी दस-बीस से कम गाड़ियां नहीं होती हैं। पहले ही बड़े-बड़े होर्डिंग लग जाते हैं। कारण आज चुनाव मुद्दों की बजाय व्यक्ति और विचारधारा पर आधारित है। आज मुद्दे कहां हैं? भले ही हम उस ज़माने से राजनीति और भाषण लेकर बेशक आगे बढ़े हो लेकिन 90 के दशक के मुद्दे तो वहीं रह गये। खुद सोचिए मुद्दा क्या है? आज महागठबंधन का एक ही नारा है ‘मोदी हटाओ’ और एनडीए का ‘फिर एक बार मोदी सरकार’।

सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से प्रचार जारी है। पक्ष और विपक्ष में हज़ारों वीडियो रोज़ अपलोड किए जाते हैं। गूगल से नेताओं के फोटो उठाकर उनपर अपनी मन मर्ज़ी मीम्स बनाकर पोस्ट शेयर किए जा रहे हैं।

किसान मज़दूर के लिए बजट में कुछ घोषणाएं कर दी जाती हैं। मध्यम, उच्च वर्ग और नौकरी पेशा लोगों को भी बजट से लुभाया जाता है। इसके बाद चुनाव में वे मुद्दे पैदा किये जाते हैं, जिनका आमजन से कोई लेना देना नहीं होता है। नेताओं की पोस्ट देखकर लगता है मानो देश सेवा की भावना तो इन नेताओं में ऐसे कूट-कूटकर भरी हुई है कि टिकट ना मिले तो पार्टी बदल लेंगे पर देश सेवा करके ही मानेंगे।

यदि सौभाग्य से पांच साल सरकार चलती है तो साल में एक बार तो मीडिया चैनल्स चुनावी सर्वे कर ही देते हैं। इसके बाद एग्ज़िट पोल तो ऐसा हो गया मानो कोई खेल हो। उंगुली पर कोई भी कोई किसी को मनमर्ज़ी सीट देकर चुनावी माहौल बना देता है और नीचे लिखा होता है देश का सबसे बड़ा चुनावी सर्वे।

आज का भारत एकदम नया भारत है। एक किस्म से कहे तो आज जनमत 24 घंटे तैयार है। मतदान चाहे आज हो जाए या तीन महीने बाद किसी विश्लेषण में जाने की ज़रूरत नहीं। धार्मिक एजेंडे और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति ज्यों की त्यों है। राहुल गाँधी राफेल पर अटके रह गए। लोग सोच रहे थे प्रियंका गाँधी राजनीति में आएंगी कुछ नया होगा लेकिन वह भी घर से निकलते ही मंदिर-मस्जिद और गंगा दर्शन पर अटक गईं।

कोई लिखकर दे रहा है कि सन् 2025 में आप कहीं, कराची, लाहौर, रावलपिंडी और सियालकोट में मकान खरीदेंगे। चुनावी घोषणापत्रों और धार्मिक घोषणापत्रों में अंतर दिखाई नहीं दे रहा है। इसके बाद भविष्यवाणी की जा रही है कि देश में 2024 के बाद चुनाव ही नहीं होंगे। यानी आज के चुनाव और पिछले चुनावों में बस यही अंतर देखने को आया कि पहले कुछ दबंगों द्वारा मतपेटियों पर कब्ज़ा होता था, आज तो सीधे दिमागों पर कब्ज़ा किया रहा है। बस हम मतदाताओं को याद यह रखना चाहिए लोकतंत्र निडर मतदान से आता है ना कि माँ के पेट से।

Exit mobile version