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#MainBhiChowkidar के दौर में मेरे गाँव के चौकीदार श्रीदेव की याद आ गई

बुज़ुर्ग व्यक्ति

बुज़ुर्ग व्यक्ति

“में भी चौकीदार हूं” का कोई नारा चल पड़ा है, यह बात मालूम हुई। ‘चौकीदार’ शब्द सुनते ही अचानक बीस साल पुरानी यादों ने आ घेरा।उन्हीं यादों के बीच एका-एक, लंगड़ाता हुआ पतली कद काठी का उम्र-दराज़ व्यक्ति मेरी यादों में ऐसे ही छा गया जैसे यह नारा भारतीय राजनीति के अम्बर पर छाया हुआ है।

श्रीदेव हमारे मोहल्ले का एक चौकीदार हुआ करता था, उम्र का कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता मगर इतना कहा जा सकता था कि वह बूढ़ा हो चुका है लेकिन चाल-ढाल देखकर उसको बूढ़ा मामने में थोड़ा सकोंच होता है।

श्रीदेव था तो पैदाइशी मुसलमान लेकिन कुछ लोग उसे गरीब ब्राह्मण भी मानते थे जो कि मुसलमानों के मोहल्ले में रहता था। यह भी सुनने को मिलता था कि उसका दिल रसीना दायी पर अटका था।

खैर, मोहल्ले वाले उसे श्रीदेव ही बुलाते थे। श्रीदेव का असली नाम तो किसी को नहीं पता था लेकिन उसका नाम श्रीदेव क्यों पड़ा, यह मोहल्ले के बच्चे-बच्चे को पता था।

कमज़ोर आंखें मगर हौसले बुलंद

श्रीदेव की आंंखों में परेशानी थी, क्योंकि वह बात करते वक्त जब आंखे मिलाता तो एहसास होता कि किसी और को ही घूर रहा है। इसके कारण कई दफा लोग उसका मज़ाक भी बना लिया करते थे।

शायद मोतियाबिंद की वजह से दोनों आंखों में एक दूधिया रंग की गहरी परत जम चुकी थी, जिससे रौशनी इतनी कम पड़ गई कि लोग उसकी नज़रों पर सवाल करते। कुछ लोग तो यह पूरी दृढ़ता के साथ कहते थे कि साले को रात में ज़रा भी नहीं दिखाई देता है।

सबूत के तौर पर गाँव के लोग अनेक कहानियां बताते थे। लोग बताते थे, “श्रीदेव रात को एक बीमार दिखने वाली टॉर्च के साथ रास्ते फाख्ता फिरता था। चौकीदारी उसका जन्म से पेशा नहीं था, बल्कि कुछ ही सालों से उसको रात में गश्त लगाते देखा जाता था। कुछ लोग तो यह भी कहते कि वह चौकीदार नहीं है। रात में घूमना उसका शौक है, साला शौक से रात-भर घूमता है। दिमाग फिर गया है उसका।”

श्रीदेव की कद-काठी 6 फिट से कम ना होगी और पतला इतना कि जब कुर्ता पहनकर चलता तो अधेड़ उम्र की महिलाएं भी पल्लू निचे कर के हंसती, दूर से तेज़ हवा में आता श्रीदेव ऐसा लगता जैसे मध्यम वर्गीय इंसान अपने जीवन की क्रूर समस्याओं से लड़ रहा हो।

रात को बैखौफ रहता था श्रीदेव

हमारा मोहल्ला पीछे की ओर से छपरिया, छुर जैसे गाँवों से सटा हुआ था और मेरठ महानगर को जाने वाली बड़ी सड़क से निकली एक छोटी सड़क के सहारे अस्तित्व में था। यूं तो रात भर चहल-पहल रहती मगर एक-डेढ़ बजे के बाद मुसलमानों के जिन्न और हिन्दुओं के छलावे, भूत-प्रेत इतयादि और उनसे ना डरने वाले चोर-उचक्के सड़क पर निकल आते थे।

यह बात सबके लिए सही हो या ना लेकिन मोहल्ले के बच्चों के लिए तो जीवन का यही सच था। इसलिए 7-8 बजे के बाद घर से निकलने वाले बच्चे को बच्चा नहीं व्यस्क की सूचि में रख दिया जाता था।

जागते रहो…

श्रीदेव इन्हीं आपदाओं से सभी को अकेला ही सुरक्षा प्रदान करता था। उसके पास लोहे की एक लंबी और जंग खाई खोखली रड थी, जिसे वह सड़क पर मारता तो देर रात तक ना सोने वाले लोगों को पता लग जाता कि श्रीदेव गश्त पर है। रात में जब भी श्रीदेव गश्त लगाकर निकलता था, तब उसके ये शब्द ‘जागते रहो’ काफी चर्चा में रहते थे।

श्रीदेव की शिद्दत का बनाया जाता था फूहड़ मज़ाक

इन सबके बीच मोहल्ले के तमाम मास्टरों से लेकर महिलाओं, व्यस्को, और बदमाश बच्चों के बीच श्रीदेव का यह शब्द मज़ाक और फूहड़पन का केंद्र बन गया था।

मास्टरों का मानना था कि श्रीदेव केवल डंडा ही नहीं पीटता बल्कि वह लोगों को जागते रहने के सुझाव भी देता था। श्रीदेव के शब्द को सांसकृतिक तरीके से देखा जाए तो वेदों में भी लिखा है कि नींद कुत्ते के समान होनी चाहिए।

महिलाएं आमतौर पर कहती थीं, “अगर हम ही जागते रहेंगे फिर ये क्या करेगा? वैसे भी ऐसे आदमी से कोई क्या ही डरेगा! बगल से चोरों का जत्था भी निकल जाए तो उन्हें भी हाथ माथे पर रखकर साहब समझ कर सालम ठोक देगा।”

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: pixabay

मोहल्ले के आवारा कहे जाने वाले नव-पुरुष उसके इस नारे के अनेकों फूहड़ मतलब गढ़ते और मोहल्ले के नुक्कड़ों पर बैठकर जवानी की प्रमुख अवस्था को फूहड़पन में लपटते।

उन आवारा लड़कों के लिए श्रीदेव का यह नारा फूहड़पन और छिछोरपंती की नई मिसाल के रूप में समझा जाता था। कोई एक आवारा लड़का बोलता, “अबे श्रीदेव सबको यह हिदायत दे रहा है कि रात-भर जागकर @#$% करो।” यह बोलकर सब खूब हस्ते थे।”

एक आवारा लड़के ने कहा, “इस @#$%^& को कुछ दिखती तो है नहीं, फिर साला रात भर कहां @#$%^ है?” इस अहम सवाल का जवाब ही श्रीदेव के नाम का स्रोत बताया जाता रहा है। उत्तर में एक आध्यात्मिक उपाधि के एक लड़के ने कहा, “साले को भोले की तीसरी आंख वरदान में मिली है।”

श्रीदेव के विचार सराहनीय थे

कुल मिलकर कहा जाए तो श्रीदेव की अहमियत एक चौकीदार से कहीं ज़्यादा थी। वह हमारे मोहल्ले के लोगों के जीवन का केंद्र ना सही तो केंद्र के पास वाला स्थान ज़रूर लेता था। चंद सालों में ही श्रीदेव ने समाज के बहुत से विचारों को अपनी मौजूदगी से गढ़ा था। सबके जीवन में श्रीदेव चौकीदार उतर आया था। लोग उसके उदाहरण देते और तमाम तरह की बौद्धिक से लेकर फूहड़ बातों का सृजन करते थे।

रात में अक्सर श्रीदेव मेरे दादा जी के पास आ बैठता, दोनों चाय-बीड़ी पीते और बहुत बार दोनों गश्त पर निकल जाते। हफ्ते में दो-चार बार मेरे दादा को निरंतर ही कहता, “प्रधान जी, रात तो चार चोर थे। एक मुठ, सबके हत्थों में कुछ था। वे एक साथ पीछे उतर रहे थे और मैंने जैसे ही टॉर्च मारी और डंडा पटका, सभी भाग गए।”

गाँव के लोग

मोहल्ले के लोग बोलते कि श्रीदेव अक्सर ऐसी कहानियां गढ़ता और किसी ना किसी को पकड़ कर सुना डालता। एक बार जब मोहल्ले में असल में चोरी हुई, लोगों ने नुकसान का अंदाज़ा लगाते हुए कहा कि यह काम कम-से-कम 6 लोगों का होगा, तब श्रीदेव मेरे दादा से बोला, “प्रधान जी, चोर तो दो ही थे। मेरे सामने से निकले और मुझे राम-राम कर के गए।”

श्रीदेव ने आगे कहा, “मुझसे पूछा कि सब ठीक-ठाक है, ताऊ!। मालिक झूठ नहीं कहूंगा, क्योंकि मैंने कहा भी, बाई लाला ठीक हूं।” मुझे तो जान पड़ा कि मास्टरसाहब और बनिये का बड़ा लौंडा है। मैं कुछ और समझ पाता कि इतने ही में मोहल्ले में लोग चोर-चोर चिल्लाने लगे।

इन्हीं कहानियों के ज़रिये श्रीदेव की यह मीठी याद दिल में उतर गई। दिल तो कहता है शायद आज भी मोतियाबिंद से परेशान श्रीदेव कांच के पतले गिलास की चुस्की से किसी नुक्कड़ पर बदन को गरमा रहा होगा और शायद देखते ही पहचान भी लेगा।

खैर, मुझे अंदाज़ा हुआ कि श्रीदेव लोगों के जहन में कहीं दफन हो गया है। आज बहुत दिनों बाद लग रहा है कि शायद वह उठेगा और  उसकी आवाज़ कानों में आते ही पुरानी यादें फिर से ताज़ा हो जाएंगी।

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