बीजेपी ने पारंपरिक मुद्दों को दरकिनार कर विकास का राग अपना लिया। काँग्रेस का कॉरपोरेट प्रेम अब किसान प्रेम में तबदील हो गया। संघ, स्वदेशी छोड़ मोदी की राह अपनाने लगी है। चीन के साथ जिस तरह मोदी प्रेम जागा है, उससे ज़ाहिर तौर पर संघ परिवार को परेशानी हो रही होगी। इन सबके बीच 2019 लोकसभा चुनाव में सभी मुद्दे एक बार फिर उखड़ेंगे और सत्ता में आने के बाद पार्टी मौन होकर बैठ जाएगी।
असल मुद्दा युवा भारत
तमाम मुद्दों के बीच असल मुद्दा युवा भारत का है, जिसे वोटर की मान्यता तो दी जा रही है लेकिन बिना रोज़गार उनकी त्रासदी राजनीति का हिस्सा नहीं बन पा रही है।
राजनीति की त्रासदी यह है कि बेरोज़गार युवाओं के सामने राजनीति से जुड़ने और नेताओं की कुर्सी के पीछे खड़े रहने के अलावा कोई उपाय नहीं है।
राजनीति का शोर युवाओं के लिए मौन
संसद के आखिरी सत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रोज़गार संबंधित आंकड़ों को रखा। सड़क और चौराहों पर काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी भी बेरोज़गारी का मुद्दा जोर-शोर से उठाते हैं और प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़े करने की कोशिश करते हैं।
राजनीति का यह शोर बताता है कि 2019 में बेरोज़गारी सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरेगा क्योंकि युवा भारत की तस्वीर बेरोज़गार युवा में बदल चुकी है।
राजस्थान में वर्ष 2017 में ग्रुप डी के 35 पदों के आवेदन निकलते हैं और 60,000 लोग आवेदन कर देते हैं। छत्तीसगढ़ में वर्ष 2016 में ग्रुप डी 247 आवेदन निकलते हैं और 2 लाख 30 हज़ार आवेदन आ जाते हैं।
वहीं, पश्चिम बंगाल मे 2017 में ग्रुप डी की 6 हज़ार वैकेंसी निकलती है और 25 लाख आवेदन आ जाते हैं। राजस्थान में चपरासी पद के लिए 18 वैकेंसी निकलती है और 12,453 आवेदन आ जाते हैं।
मुम्बई में महिला पुलिस के लिए 1137 वैकेंसी निकलती है और 9 लाख आवेदन आ जाते हैं। मध्यप्रदेश में 2016 में ग्रुप डी के 125 पदों के लिए आवेदन आते हैं और 1 लाख 90 हज़ार आवेदन आ जाते हैं।
वहीं, रेलवे ने तो इतिहास ही रच दिया। रेलवे ने ग्रुप डी के 90 हज़ार पदों में ट्रैकमैन, स्विचमैन और केबिनमैन जैसे विभिन्न पदों के लिए वैकेंसी निकलते ही कुछ दिनों में 2 करोड़ 80 लाख आवेदन आ गए।
इस भीड़ में 7,767 इंजीनियर, 3,985 एमबीए, 6,980 पीएचडी, 991 बीबीए, लगभग 5 बीएससी और 198 एलएलबी की डिग्री लिए युवा भी शामिल थे।
नीतियों के अभाव में बढ़ती बेरोज़गारी
बेरोज़गारी व्यापक रूप ले रही है। अगर आने वाले दिनों में कोई व्यापक नीति नहीं बनाई गई, तो हालात बिगड़ते जाएंगे क्योंकि नीतियों के नहीं होने से रोज़गार भी खत्म हो जाएगा।
मोदी सत्ता के दौर की त्रासदी यही रही तो अतिरिक्त रोज़गार तो दूर, जो रोज़गार चल रहे हैं उनमें भी कमी आ जाएगी। केंद्रीय लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग और रेलवे भर्ती बोर्ड में जितनी नौकरियां थीं, वह भी साल-दर-साल कम हो रही हैं।
मनमोहन सिंह के दौर में सवा सौ पदों की बहाली हुई तो 2014-15 में 11,908 की कमी आ गई। इसी तरह 2015-16 में 1717 बहाली कम हुई और 2016-17 में 10,874 नौकरियां ही निकलीं।
नौकरी के नाम पर युवाओं को झटका
बेरोज़गारी का दर्द यही नहीं ठहरता है। झटका तो केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रम में नौकरी करने वालों की तादाद में कमी आने से भी लगा है। मोदी के सत्ता में आते ही 2013-14 के मुकाबले 2014-15 में 40,000 नौकरियां कम हो गई और 2016-17 में 66,000 नौकरियां और खत्म हो गई।
दो वर्ष में ही एक लाख से ज़्यादा नौकरियां समाप्त हो गईं। हालांकि 2016-17 में हालात सुधारने की कोशिश में मात्र 2000 ही नई बहाली हो पाई है।
सबसे बड़ा झटका नोटबंदी से लगा है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर 2017 में देश के 40 करोड़ 97 लाख लोगों के पास काम था और एक साल बाद दिसंबर 2018 में घटकर 39 करोड़ 7 लाख पर आ गया।
आखिर यह सवाल अनसुलझा-सा है कि सरकार रोज़गार को लेकर सजग क्यों नहीं है? सियासत ने युवावों को अगर अपना हथियार बना लिया है फिर युवा भी राजनीति को अपना हथियार बनाने में सक्षम क्यों नहीं हैं?
नोट: लेख में प्रयोग किए गए आंकड़े यहां उपलब्ध हैं।