लाल कृष्ण आडवाणी का समय अब बीजेपी से आधिकारिक तौर पर समाप्त हो गया है। आडवाणी के साथ बीजेपी ने जो किया है, उससे इस बात को बल मिलता है कि हमारे देश की संस्कृति में पितृपुरुषों का ढलता हुआ वक्त ऐसा ही होता है।
खुद के खून पसीने से बनाकर तराशी गई ईमारत से उसे एक दिन बाहर होना ही पड़ता है। फिर वह घर की देहरी पर बैठकर मरते दम तक अपने बनाए घर को निहारते रहता है। वही घर जिसके ईंट उसने भूखे रहकर जोड़े थे। आडवाणी को अब उसी देहरी पर बैठा दिया गया है।
भारतीय जनता पार्टी आज जिस शिखर को छू रही है, उसे वहां तक ले जाने में लाखों कार्यकर्ताओं की जी तोड़ मेहनत शामिल है लेकिन सही मायनों में अटल बिहारी वाजपेई और भाजपा के आयरन मैन कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने ही कार्यकर्ताओं की उर्जा का सही उपयोग और उनका नेत्रृत्व किया है।
राम मंदिर को बीजेपी के लिए मुद्दा बनाने वाले आडवाणी
चुनाव का ऐलान हो चुका है। इस बार का चुनाव भी राम मंदिर विवाद के इर्द-गिर्द ही चक्कर काट रहा है। हालांकी अदालत ने मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थों की टीम का गठन कर दिया है लेकिन इससे पहले भी वीपी सिंह की सरकार में इस विवाद को मध्यस्थों के ज़रिये सुलझाने की कोशिश हुई थी। तब बीजेपी में आज के मोदी-शाह की जोड़ी की तरह तब अटल-आडवाणी की जोड़ी का जलवा पूरे देश ने देखा था।
91 साल के आडवाणी को पीएम इन वेटिंग कहा जाता है लेकिन आज से करीब 30 साल पहले वह आडवाणी ही थे, जिन्होंने अयोध्या राम मंदिर विवाद को पूरे देश के साथ बीजेपी के लिए भी एक चुनावी मुद्दा बना दिया था, जो आज भी बीजेपी के लिए चुनावों में दुधारु गाय की तरह काम करती है।
बीजेपी के शीर्ष नेता भी मिलने से बचते हैं
ज़ाहिर है आज की बीजेपी से आडवाणी का तालमेल ठीक नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं “एक वक्त हुआ करता था जब आडवाणी संसद में सदन से निकलकर अपने कमरे की ओर बढ़ते थे, तो दर्जनों नेता उनके आगे-पीछे होते थें। उन दिनों उनकी पार्टी और सरकार में तूंती बोलती थी लेकिन अब बीजेपी के शीर्ष नेता भी उनसे मिलने से बचते हैं। पिछले दिनों एक सत्र की रिपोर्टिंग के लिए संसद गया था, तो देखा कि आडवाणी सदन से अकेले ही बाहर निकल रहे हैं।”
आडवाणी का राजनीतिक सफर
कराची में जन्में आडवाणी अपने शुरुआती दिनों में जनसंघ में वाजपेयी के सहायक के तौर पर उनका राजनीतिक काम देखा करते थे। आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार में वह सूचना एंव प्रसारण मंत्री बने। बाद में अटल और मुरली मनोहर जोशी के साथ भारतीय जनता पार्टी का गठन किया।
आडवाणी के सियासी सफर में गाँधीनगर का अहम योगदान है। आडवाणी लगातार छ: बार यहां से जीतकर संसद पहुंचते रहे हैं। इससे पहले वह 1970 से लेकर 1989 तक राज्यसभा के रास्ते सांसद चुने जाते रहे हैं।
1989 में नौंवी लोकसभा का चुनाव उन्होंने पहली बार नई दिल्ली से लड़ा और जीतकर लोकसभा पहुंचे। 1991 में गाँधीनगर से पहली बार आम चुनाव लड़ा, फिर 1999 के बाद से अबतक वह गाँधीनगर से चुनकर ही संसद पहुंचते रहे हैं। “जैन हवाला कांड” में नाम आने की वजह से आडवाणी ने 1996 का चुनाव नहीं लड़ा था।
अब तक सुलझ गया होता राम मंदिर मसला
विजय त्रिवेदी की किताब ‘यदा-यदा ही योगी’ के मुताबिक, लंबे समय से बीजेपी के महासचिव और आडवाणी के करीबी रहे गोविंदाचार्य की बात माने तो राम मंदिर का मुद्दा वीपी सिंह की सरकार के कार्यकाल में सुलझ गया होता। वीपी सिंह ने इसके लिए एक प्रस्ताव रखा था कि इस मुद्दे से राजनीतिक दल खुद को दूर रखें और दोनो समुदायों के लोग गैर-राजनीतिक लोगों के साथ मिलकर इसका हल निकालने की कोशिश करें।
वीपी सिंह का प्रस्ताव था कि विवादित ढांचा और स्थान एक नए हिंदु ट्रस्ट को दे दिया जाए, ताकि वह विवादित ढांचें में बिना किसी छेड़छाड़ के राम मंदिर का निर्माण कराए और और विवादित ढांचे के बीच एक दीवार बनाई जाए। वीपी सिंह ने तब इसकी ज़िम्मेदारी आंध्र प्रदेश के राज्यपाल कृष्णाकांत को सौंपी थी कि वह इस प्रस्ताव के लिए समर्थन जुटाएं।
कृष्णकांत ने तब ‘कांची कामकोटी पीठ’ के स्वामी जयेन्द्र सरस्वती को नए ट्रस्ट का मुखिया बनाने का सुझाव दिया था और साथ ही उन्होनें स्वामी जयेन्द्र और मंदिर विवाद के मुख्य याचिकाकर्ता अली मियां की आपस में मुलाकात भी कराई थी।
दूसरी तरफ पीएम ने संघ समर्थक एस. गुरुमुर्ती को इस बातचीत का मध्यस्थ बनाया था। गुरुमुर्ती ने तीन सुत्री फॉर्मूला इज़ाद किया। इसके बाद वह प्रधानमंत्री के दूत के तौर पर वरिष्ठ मंत्री जार्ज फर्नाडिंस और पी. उपेन्द्र से दिल्ली में मुलाकत कर बताया कि सरकार राम मंदिर विवाद पर अध्यादेश लाने को तैयार है।
सरकार के अध्यादेश तैयार करने के बाद एक बैठक हुई फिर सब कुछ उलझ गया। दरअसल, अध्यादेश में सरकार द्वारा यह शर्त रखी गई कि राममंदिर के एवज में ‘विश्व हिंदु परिषद’ को काशी और मथुरा के मंदिर विवाद को त्याग देना पड़ेगा। मुस्लिम पक्ष ने मंदिर निर्णाण के लिए हामी भर दी थी लेकिन बाद में ‘विश्व हिंदु परिषद’ ने जब अपने कदम वापस खींच लिए थे, तब यह नारा, “अयोध्या तो झांकी है, काशी मथुरा बाकी है” बुलंदियों के साथ गुंज उठा था।
आडवाणी की रथ यात्रा
आडवाणी की रथ यात्रा 25 सितंबर को सोमनाथ से शुरू होकर 30 अक्टूबर को अयोध्या में खत्म होने वाली थी। जैसै-जैसे रथ यात्रा आगे बढ़ने लगी, जनता दल की सरकार और बीजेपी के बीच खटास भी बढ़ने लगी। हालात आडवाणी के गिरफ्तारी तक पहुंचने लगे और अंतत: बिहार के समस्तीपुर में आडवाणी को लालू यादव के आदेश पर गिरफ्तार कर लिया गया। वो अलग बात है कि वीपी सिंह चाहते थे, आडवाणी की गिरफ्तारी का श्रेय किसी भी कीमत पर तब के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव के हाथ नहीं लग सके।
कुल मिलाकर 90 के दशक में आडवाणी ने राम मंदिर आंदोलन के ज़रिये भाजपा को पूरे देश में पहचान दिलाई थी। यहीं से भाजपा मज़बूती के साथ उभरी और आज देश पर शासन कर रही है लेकिन आडवाणी इस सत्ता के सुख से बहुत दूर रह गए हैं।
तब से आडवाणी का गढ़ा हुआ राम मंदिर विवाद का चुनावी मुद्दा जब-जब बीजेपी की सरकार बनी, तब-तब अहम साबित हुआ। अपने ओजस्वी भाषणों के ज़रिये लोगों को लामबंद कर देने वाले आडवाणी को आज एकांत ने अपनी ओर लामबंद कर लिया है।
बीजेपी को दो सीटों से 282 तक पहुंचाने में आडवाणी ने अपनी पूरी उम्र खपा दी। आज जिस पीएम मोदी की वजह से आडवाणी अपनी पार्टी से किनारे कर दिए गए हैं, गुजरात दंगों के बाद इसी मोदी के लिए वह वाजपेयी से भीड़ गए थे जब वह नरेंद्र मोदी को गुजरात के सीएम पद से हटाना चाहते थे।
देश कुछ भी कहे, उनकी पार्टी उन्हें माने या ना माने लेकिन आडवाणी आज भी इस देश राजनीतिक धरोहर हैं। उनके भीतर इस देश की राजनीति की तमाम अनकही बातें सिमटी हैं। मेरी उनसे यही गुज़ारिश है कि वह इन्हें जनता के बीच ज़रूर लाएं और खुब किताबें लिखें। ताकि मेरे जैसे और भी राजनीति के छात्र उन्हें पढ़कर अपने खजाने को और मज़बूत कर पाएं।
नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य विजय त्रिवेदी की किताब ‘यदा-यदा ही योगी’ से लिए गए हैं।