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काला दिल

कभी कभी सारे रिश्ते खून से निकल कर आँखों में उतर आते हैं और फिर बह जाने को तैयार खड़े हो जाते हैं |

 

सहर होने पर अपना ही पीछा करना चाहती हूँ,
ये सब आवारगी लेकर रक़ीब के घर चल पड़ना चाहती हूँ |
इन खुदा के बन्दों का सबब कुछ तो हो,
रिश्तेदारों का अपने अब मैं अंजाम चाहती हूँ |
क़तार में लगे खरीदारों से तो बस सही दाम चाहती हूँ ,
बिक्री होने पर उन्ही नज़्मों का एक बाजार चाहती हूँ |
बदन पर चुप रहने से तो छाले पढ़ गए,
आखिर लबों को मैं अपने आज़ाद चाहती हूँ |
बज़्म में मेरी सब आन खड़े हों,
मौत का अपनी सूरत-ए-हाल इस तरह चाहती हूँ |

 

–  मिर्ज़ा

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