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रोटी कपड़ा मकान से जीवन है और भाषा से अस्तित्व

बीना स्टेशन से जबलपुर के लिए ट्रैन छूटने में महज 10 मिनट बचे थे और मैं होटल में खाना खा रहा था। खाना खाकर फुर्ती से स्टेशन की ओर निकल पड़ा कि थोड़ी दूरी पर राह चलते कुछ लोग जानी पहचानी भाषा में बात करते हुए सुनाई दिए, मैं रुका और रुककर तसदीक किया। वे लोग गोंडी में ही बात कर रहे थे। सागर जिले का बीना तहसील गोंडी भाषी नहीं है, वे कहीं बाहर से परिवार सहित मजदूरी करने आये हुए थे, उनके बच्चे भी थे जो बड़ों संग गोंडी में ही बात कर रहे थे। यही गोंडी भाषा तेजी से विलुप्त हो रही है। मैं रुका हुवा था, सुन रहा था और सोच रहा था कि बात करूं उनसे, अपनी ही भाषा में।

इन्होंने ही भाषा को जीवित रखा है वार्ना पढ़ी लिखी अभिजात्य वर्ग तो भाषा की गुलामी को ही अपनी शान मानते रहे हैं।

आरक्षण के सहारे नौकरी पाकर इन मज़दूरिपेशा लोगों को दुत्कारने की वजह भी बखूबी गिनाते हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक,शैक्षणिक और आर्थिक संपन्नता से लोगों के बीच की दूरी उन्हें इस राह तक ले आती है, जिस राह पर मुझ जैसे बेबस आदमी से सामना हो जाता है और सब अपनी अपनी राह निकल पड़ते हैं कुछ रोटी के लिए कुछ बोटी के लिए।

अगले ही पल, मैं दिमाग में बहुत कुछ लिए उनकी बातों को और उन सबको अनसुना करते हुए स्टेशन की ओर चल पड़ा।

ये वे लोग हैं जिन्हें धर्म से पहले काम और भगवान से पहले रोटी चाहिए है, इनकी यह जरूरत जिंदगी भर यही बने रहने वाली है।

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