सरकार की मनमानी जारी रही तो लिखित संविधान तथा संविधान द्वारा उपबन्धित कड़े प्रावधानों और व्यवस्थाओं का औचित्य क्या रह जायेगा?
नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा डायरेक्ट/सीधे बिना किसी परीक्षा के 9 जॉइंट सेक्रेटरी (IAS) बनाये गये हैं। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि खुली प्रतियोगिता की निर्धारित प्रक्रिया को दरकिनार करके 9 जॉइंट सेक्रेटरी देश पर थोपे गये हैं। जिनमें 1 भी SC, ST, OBC वर्गों के नहीं हैं। शायद मोदी सरकार की दृष्टि में यही—’सबका साथ और सबका विकास’ है।
वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों और अन्य अनेक संवैधानिक प्रावधानों का लगातार अतिक्रमण किये जाते रहने पर, मोदी की गोद में बैठा, गोदी मीडिया तो चुप्पी धारण करना अपना जरूरी धर्म समझता है। जो भारतीय लोकतंत्र के लिये अत्यधिक गंभीर खतरा है। जिस पर देश के इंसाफ पसंद बुद्धिजीवियों को तुरंत गंभीरता पूर्वक चिंतन-मनन करने की जरूरत है।
विचारणीय सवाल यह भी है कि यह सिर्फ इतनी सी बात नहीं है कि आज वंचित/MOST (Minority+OBC+SC+Tribals) समुदायों के हितों के विरुद्ध ही सरकारी तानाशाही के फरमान जारी हुए हैं। इस मनमानी सीधी भर्ती से स्वघोषित उच्च जातियों/अनारक्षितों के प्रतिभाशाली बच्चों के अवसरों को भी छीना गया है। यदि हम देश के लोग आज चुप रहे तो आने वाले समय में दूसरी सरकारें भी संविधान को धता बतलाकर किसी भी प्रकार की मनमानी करने से रोकी नहीं जा सकेंगी!
सरकार की मनमानी से अधिक गम्भीर तो इस बारे में देशभर के वंचित/MOST समुदायों की चुप्पी भी आश्चर्यनजक है! आरक्षित वर्गों के राजनीति प्रतिनिधि और प्रशासनिक प्रतिनिधि तो चुप हैं ही। मगर संघ लोक सेवा आयोग के मार्फत प्रथम श्रेणी सेवाओं में आरक्षित पदों पर नियुक्ति प्राप्त कर चुके अधिकारियों और, या नियुक्ति पाने के इच्छुक प्रत्याशियों की ओर से इस बारे में चुप रहना विशेष चिंता का विषय है।
ऐसे में यह सवाल उठाना क्या उचित नहीं होगा कि आरक्षण की सीढी पर चढकर उच्च प्रस्थिति (Status) धारण करके सुख-सुविधाओं का सपरिवार उचित-अनुचित लाभ उठाने की चाहत तो सबकी है, लेकिन नाइंसाफी के विरुद्ध आवाज उठाना, इनको जरूरी क्यों नहीं लगता?
क्या यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं कि बिल्ली के गले में घण्टी कोई नहीं बांधना चाहता, बेशक बिल्ली जीवनभर सारा दूध पीती रहे? हजारों सालों से कुछेक बिल्लियां सरेआम दूध पीती ही रही हैं! इतिहास उठाकर देखें तो कोई बिरले ही फूले, मुंडा, अम्बेडकर, कांशीराम जैसे पुरोधा पैदा हुए हैं, जिनको अपना सब कुछ दाव पर लगाने का जुनून सवार था! बेशक ऐसे महापुरुषों में से अधिसंख्य का अंत सुखद नहीं रहा!
अत: केन्द्र सरकार की संविधान विरोधी मनमानी नीतियों और वर्तमान हालातों का यदि लोकतांत्रित एवं संवैधानिक तरीके से सफलतापूर्वक कड़ा सामूहिक विरोध नहीं किया गया तो सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि लिखित संविधान तथा संविधान द्वारा उपबन्धित कड़े प्रावधानों और व्यवस्थाओं का क्या होगा? संवैधानिक संस्थानों का क्या होगा और अंतत: संविधान के होने का औचित्य क्या रह जायेगा?
अंत में एक बार फिर से वही सवाल जो मेरी ओर से हर बार उठाया जाता रहा है! आखिर कब तक सिसकते रहोगे? बोलोगे नहीं तो कोई सुनेगा कैसे? लड़ोगे नहीं तो जीतोगे कैसे?
हमारा मकसद साफ!
सभी के साथ इंसाफ!
जय भारत! जय संविधान!
नर नारी सब एक समान!