Site icon Youth Ki Awaaz

“काँग्रेस और अरुण नेहरू का सुनियोजित कार्यक्रम था 1984 का सिख कत्लेआम”

सिख दंगा

सिख दंगा

भूतपूर्व पेट्रोलियम सेक्रेटरी ‘अवतार सिंह गिल’ ने 2014 में एक सनसनीखेज़ खुलासा किया था। उनका कहना था कि उनके एक मित्र ललित सूरी ने उन्हें आगाह किया था कि सिख कत्लेआम 01 नवंबर से शुरू होगा और 03 नवंबर तक बिना रोक थाम के चलता रहेगा। ललित सूरी का यह बयान महत्वपूर्ण इसलिए भी था क्योंकि वह होटल व्यवसायी होने के साथ – साथ राजीव गाँधी के अच्छे मित्र भी थे।

ललित सूरी ने गिल को सावधान करके अपने दोस्त की जान ज़रूर बचा ली थी लेकिन 1984 के सिख कत्लेआम को एक सोची समझी साज़िश और प्रक्रिया के तहत अंजाम देने पर हामी भी भर दी थी। ललित सूरी ने आगे कहा, “अरुण नेहरू ने दिल्ली में सिख कत्लेआम की मंजूरी दे दी है ओर यह कत्लेआम शुरू भी हो गया है। मारने का तरीका यह अपनाया जाएगा कि सिख नौजवानों को पकड़ो, उनके गले में टायर डालो, केरोसिन छिड़को और आग लगा दो। इससे हिंदू समुदाय का गुस्सा शांत हो जाएगा।”

सूरी ने गिल को सावधान करते हुए कहा, “अरुण नेहरू के पास गुरुद्वारा वोटिंग लिस्ट है जिसमें गिल का नाम नहीं है लेकिन फिर भी गिल को सावधान रहना चाहिए।”

इस बात की पुष्टि दबी ज़ुबान में कई काँग्रेसी कर चुके हैं कि अरुण नेहरू ही ऑपरेशन ब्लू स्टार के प्रमुख रणनीतिकार थे। ऑपरेशन ब्लू स्टार से पहले ही अरुण नेहरू ने दिल्ली के सिख गुरुद्वारा वोटर लिस्ट को अपने अधीन कर लिया था ताकि अगर ऑपरेशन ब्लू स्टार का कोई भी प्रतिकर्म दिल्ली में देखा जाए तो तुरंत इस पर कार्यवाही की जा सके।

एक समय श्रीमती इंदिरा गाँधी के सचिव रहे और गाँधी परिवार के बेहद करीबी आर.के. धवन ने इस बात की पुष्टि की है कि ऑपरेशन ब्लू स्टार चुनावी माहौल को रंग देने के लिए किया गया था।

1984 के समय अरुण नेहरू का गाँधी परिवार पर बहुत ज़्यादा प्रभाव था। आर.के. धवन और वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नायर दोनों के बयानों से यह साफ ज़ाहिर है कि श्रीमती इंदिरा गाँधी श्री हरमिंदर साहिब पर किसी भी तरह के बलपूर्वक सरकारी ऑपरेशन के बिल्कुल खिलाफ थी। इंदिरा गाँधी आखिरी मौके तक इसके खिलाफ रही लेकिन राजीव गाँधी, अरुण नेहरू और अरुण सिंह की ज़िद की वजह से उन्होंने ब्लू स्टार के लिए हामी भरी थी।

इंदिरा गाँधी। फोटो साभार: सोशल मीडिया

जब ब्लू स्टार ऑपरेशन के बाद इसकी पहली तस्वीरें श्रीमती इंदिरा गाँधी को दिखाई गई तब वह बहुत ज़्यादा चिंतित और दुखी थी। उन्होंने राजीव गाँधी से कहा था कि इस बलपूर्वक ऑपरेशन से उनकी छवि को गहरा धक्का पहुंचा है। यह भी चर्चा में अक्सर बना रहता है कि ब्लू स्टार से पहले भी ब्लू स्टार की तर्ज पर कई बार सरकारी बलपूर्वक योजनाओं को श्रीमती इंदिरा गाँधी के सामने रखा गया लेकिन वह कभी भी इसके लिये सहमत नहीं हुई।

श्रीमती इंदिरा गाँधी एक अनुभवी राजनेता थी। 1971 की जंग हो या काँग्रेस में समय- समय पर पर बगावत के सुर हो, हर जगह वह अपने अनुभव से और ज़्यादा लोकप्रियता से उभर कर आई थी। यहां तक कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद देश में लगाई गई इमरजेंसी के बाद हुए आम चुनाव में श्रीमती इंदिरा गाँधी की हार ज़रूर हुई थी लेकिन जनता दल के रूप में गठित हुई सरकार अपना कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई थी।

इसके परिणामस्वरूप 1980 के चुनाव में इंदिरा गाँधी फिर केंद्र की सत्ता में अपने आप को स्थापित करने में कामयाब रही। इसी चुनाव में अरुण नेहरू रायबरेली से लोकसभा के सांसद चुने गए। इस चुनाव में कांग्रेस की जीत के लिए अरुण नेहरू की नीतियां भी बहुत कारगर सिद्ध हुई। अरुण नेहरू काँग्रेस में एक ऐसी आवाज़ बन कर उभर रहे थे जिसको नकारना मुश्किल था और राजीव गाँधी के रूप में उन्हें काँग्रेस में पूरा समर्थन भी मिल रहा था।

धवन आगे बताते हैं कि ऑपरेशन ब्लू स्टार श्रीमती इंदिरा गाँधी की आखिरी लड़ाई नहीं थी लेकिन राजीव गाँधी की यह पहली और आखिरी निष्फल लड़ाई ज़रूर थी। संजय गाँधी की अचानक हुई मौत के बाद श्री राजीव गाँधी राजनीति में आए और वह अब पंजाब के पूरे मसले को अपनी निगरानी में देख रहे थे चाहे फिर वह शिरोमणि अकाली दल के नेताओं से हो रही बातचीत हो या फिर ऑपरेशन ब्लू स्टार।

1984 के सिख कत्लेआम की वजह श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या बताई गई जो कि श्रीमती इंदिरा गाँधी के ही सिख अंगरक्षकों द्वारा की गई थी और इसकी एक मात्र वजह ऑपरेशन ब्लू स्टार ही था। यहां यह भी समझने की ज़रूरत है कि इस समय तक राजीव गाँधी ज़रूर राजनीति में आ गए थे लेकिन अभी भी उनके पास राजनीतिक अनुभव की कमी थी। अगर 1984 के सिख कत्ले-आम का ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो राजीव गाँधी का कम राजनीतिक अनुभव और अपने सहयोगियों पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा अहम वजह ज़रूर साबित होंगे।

1984 के सिख कत्लेआम के बाद हुए आम चुनाव के तुरंत बाद समाज-सेवी अमिया रॉय के अनुसार इस सिख कत्लेआम में काँग्रेस पार्टी के कुल मिलाकर 150 नेता शामिल थे। इसमें बड़े नेता, लोकसभा सांसद और पार्षद मौजूद थे जो यह साबित करता है कि सिख कत्ले-आम एक सोची समझी साज़िश के तहत करवाए गए कत्ले-आम थे।

सिटीज़न फ़ॉर डेमोक्रेसी में सिख कत्लेआम को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई। इस रिपोर्ट को अमिया रॉय, औरोबिंदो घोष, ए.डी. पंचोली ने तैयार किया था।

इस रिपोर्ट में लिखा गया है कि श्रीमती इंदिरा गाँधी पर हुए जानलेवा हमले की खबर सुबह 10:30 बजे रेडियो के माध्यम से बताई गई थी। इसी दिन शाम तक किसी भी सिख पर कोई जानलेवा हमला हुआ हो इसकी खबर की पुष्टि नहीं हुई है। सिख कत्लेआम  की शुरुआत 01 नवंबर के दिन शुरू हुई थी। अमिया यह भी लिखती हैं कि इस कत्लेआम  को हिंदू और सिख समुदाय के बीच हो रहे दंगों की भूमिका में पेश करने की कोशिश की गई लेकिन हकीकत में हिंदू समुदाय के आम लोग सिखों को बचाने की पूरी कोशिश कर रहे थे।

अफवाहों पर भी अमिया लिखती हैं कि पानी की टंकी में सिख समुदाय द्वारा ज़हर मिलाए जाने की अफवाह के साथ साथ पंजाब से सिखों से भरी आ रही झेलम एक्सप्रेस की अफवाहों को बहुत तेज़ी से समाज में फैलाया जा रहा था। एक बहुत भयावह सच अमिया ने 1984 के आम चुनाव के तुरंत बाद लिखा था कि 31 अक्टूबर 1984 की रात को दिल्ली सेंट्रल, बाहरी इलाके और यमुना पार इलाकों में बहुत सारी जगह पर बैठक की गई जहां केरोसिन से लेकर ज्वलित पाउडर भी बांटे गए।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

बाहर के गांव से और दिल्ली से भी दंगाइयों की पहचान की गई जिन्होंने 01 नवंबर 1984 की सुबह से ही भीड़ की शक्ल में सिख समुदाय के घरों पर हमला करना शुरू कर दिया जहां दुकानें, गाड़ियां जलाई गई, गले में टायर डालकर सिख समुदाय के लोगों की हत्या की जाने लगी। सबसे पहले सिख समुदाय के धार्मिक स्थान गुरुद्वारा साहिब को दंगाइयों ने निशाना बनाना शुरू किया। पत्रकार जरनैल सिंह की किताब और 2005 में लोकसभा में पेश हुई नानावटी कमीशन की रिपोर्ट में भी अफवाहों का ज़िक्र किया गया है।

अमिया लिखती हैं कि एक तरफ सिख समुदाय को दंगाइयों द्वारा निशाना बनाया जा रहा था वही दूसरी तरफ अफवाहों को भी समाज में फैलाया जा रहा था। इस अफवाह को बहुत उग्र रूप में फैलाया जा रहा था कि पंजाब में सिख समुदाय द्वारा हिंदू समुदाय का कत्ल किया जा रहा है और हिंदू समुदाय के नागरिकों की लाशें रेल गाड़ी में भरकर भेजी जा रही हैं।

अमिया दंगों के इस पैटर्न की ओर भी इशारा कर रही हैं कि सब कुछ सुनियोजित था और इसे बहुत शातिर तरीके से ज़मीनी स्तर पर लागू किया जा रहा था। यहां अवतार गिल का 2014 में सिख कत्लेआम  के संबंध में अरुण नेहरू का नाम लिया गया। 1984 के अंत में अपनी खोजबीन के आधार पर अमिया यह साबित करने में कामयाब हो रही थी कि सिख कत्लेआम  कोई दो धार्मिक समुदायों के बीच हुआ दंगा नहीं था बल्कि काँग्रेस के सदस्यों, नेताओं द्वारा एक साज़िश के तहत किया गया कत्ले-आम था।

सिख समुदाय में यह बात प्रचलित है कि अगर इंदिरा गाँधी का कत्ल नहीं भी होता तब भी 1984 की 09 नवंबर के दिन गुरु नानक जयंती के उपलक्ष्य में सिख समुदाय को पाकिस्तान का हिमायती बताकर हिंदू और सिख समुदाय के बीच आपसी दंगों की शक्ल में सिख कत्लेआम  की अरुण नेहरू की योजना पूरी तरह से तैयार थी।

इस कत्लेआम  की प्रक्रिया को ऑपरेशन शांति का नाम दिया गया था। अब यह ज़रूर सोचने की ज़रूरत है कि भारत की कुल आबादी के 2% से भी कम आबादी वाला सिख समुदाय किस तरह चुनावी जीत के निशाने पर था। सिख समुदाय की लाशें बिछा कर चुनाव में विजयी होने की योजना थी जिसे श्रीमती इंदिरा गाँधी के कत्ल के बाद हकीकत का लिबास पहनाया गया।

Exit mobile version