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“महिलाओं का वजूद! ओह इससे इस समाज का कोई वास्ता नहीं”

महिलाएं

अभी पिछले महीने 8 मार्च को हमने महिला दिवस मनाया। बहुत से लोगों ने सोशल मीडिया के माध्यम से एक दूसरे को बधाइयां दी पर यह कितना सार्थक है, इसपर विचार करना ज़रूरी है।

यह बात आप और मैं बहुत अच्छे से जानते हैं कि अगर हम इस दुनिया में कुछ बोल सकते हैं, कुछ लिख सकते हैं, कुछ पढ़ सकते हैं या कुछ भी कर सकते हैं, तो यह संभव है समाज के उस हिस्से की वजह से जिसने इस समाज में बहुत अनादर झेला है।

जी हां, मैं बात कर रहा हूं महिलाओं की। हम यह भी बहुत अच्छे से सोच सकते हैं कि अगर समाज का यह तबका ना होता तो क्या हम होते? क्या यह समाज होता? यह देश होता? यह दुनिया होती? इन सारे सवालों का जवाब है, नहीं, बिलकुल नहीं।

जिनकी वजह से इस समाज का वजूद है, उनका इस समाज में क्या वजूद है?

फोटो सोर्स- Getty

क्या समाज ने उनको उतना आदर दिया, जितना उनको मिलना चाहिए था? तो जवाब है, नहीं। हां बेशक यह बात तो है कि लोगों के मन में थोड़ा सा परिवर्तन ज़रूर आया है पर क्या यह परिवर्तन उतने व्यापक तरीके से हुआ है जैसे उसे होना चाहिए था? तो जवाब है, नहीं। अभी भी समाज का एक बहुत बड़ा तबका है, जिसको लगता है कि औरत केवल घर के काम-काज के लिए ही बनी है।

यह समाज औरतों के इस धरती पर कदम रखते ही उन पर बंदिशे लगाने लगता है। यहां तक कि लड़कों की चाह में यह समाज लड़कियों को इस दुनिया में कदम भी नहीं रखने देता और गर्भ में ही उनकी हत्या कर देता है।

ताज्जुब होता है इस बात का कि एक पिता ऐसा कैसे कर सकता है? यह बात वह क्यों नहीं सोच पाता है कि अगर उसे जन्म देने वाली को भी गर्भ में ही मार दिया गया होता तो क्या वह आज यह घृणित कार्य करने के लिए इस दुनिया में होता। इससे भी ज़्यादा ताज्जुब तो इस बात की होती है कि आखिर एक स्त्री ही दूसरे स्त्री को कैसे मार सकती है। (मैं यहां बात कर रहा हूं उन सासों की जिन्हें संतान के रूप में केवल लड़का ही चाहिए होता है)

इतना कुछ होने के बाद भी अगर वह इस धरती पर आ जाती है तो फिर शुरू होता है बंदिशों का एक नया दौर। उनके खेलने पर बंदिश, उनके बोलने पर बंदिश, उनके बाहर निकले पर बंदिश, उनके घर से बाहर काम करने पर बंदिश। उनके हर उस काम पर बंदिश लगायी जाती जो कुछ पुरुषों को लगता है कि ये केवल उनके लिए ही बना है।

ऐसे लोगों के लिए यहां पर मैं अपनी ही लिखी एक कविता को कोट करना चाहूंगा-

ओ पुरुष, यह बात तू मान ले

गर रही ना बेटियां,

तो होगा न वजूद तेरा

यह बात तू जान ले।

अपने मन को, यह मोड़ दे

कोख की बेटियां,

मारना तू छोड़ दे।

यह बात बुरी तो लगेगी पर शत प्रतिशत सच है कि अभी भी समाज के कुछ पुरुषों को यह लगता है कि महिलाएं केवल बच्चा पैदा करने और संभोग करने के लिए ही बनी हैं। ये वही लोग हैं जो उन पर भद्दे कमेंट्स करते हैं, उनका शोषण करते हैं, उनका रेप करते हैं, यहां तक कि वे छोटी बच्चियों तक को नहीं छोड़ते।

मैंने काफी खोजबीन की तो मुझे NBRC की साईट पर 2016 की महिलाओं पर अत्याचार की एक रिपोर्ट मिली शायद इसके बाद की रिपोर्ट डाली नहीं या मुझे ही नहीं मिली, तो मैं यहां 2016 के रिपोर्ट का ज़िक्र कर रहा हूं।

इस रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में महिला अत्याचार पर कुल 3 लाख 38 हज़ार 954 मामले दर्ज हुए। 38 हज़ार 947 केस रेप के दर्ज हुए, जिसमें 4 हज़ार 882 केस के साथ मध्य प्रदेश पहले स्थान पर, 4 हज़ार 816 केस के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर तथा 4 हजार 189 केस के साथ महाराष्ट्र तीसरे स्थान पर रहा।

आप यह कल्पना कर सकते हैं कि ये संख्या कितनी बड़ी है। अब वक्त आ गया है कि समाज ऐसे लोगों का बहिष्कार करे जो महिलाओं का शोषण करते हैं।

यह बदलाव हो भी रहा है। अब बेटियां घर को चलाने के साथ-साथ देश को भी चला रही हैं। अपने देश की लोकसभा की अध्यक्ष महिला है, अपने देश की रक्षामंत्री महिला है और अपने देश की विदेश मंत्री भी महिला है। अब बेटियां अपना कारोबार चला रही हैं। अब बेटियां ट्रेन चला रही हैं, अब बेटियां फाइटर प्लेन चला रही हैं, अब बेटियां अंतरिक्ष में जा रही हैं, अब बेटियां हर वह कार्य कर रही हैं, जो इस समाज ने उन्हें पहले नहीं करने दिया था।

अंत में मैं अपनी ही कुछ पंक्तियों के साथ इस ब्लॉग को खत्म करना चाहूंगा-

पढ़ रही हैं बेटियां,

बढ़ रही हैं बेटियां।

तुम इनको कमज़ोर

ना समझना!

समाज की कुरीतियों से,

लड़ रही हैं बेटियां।

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