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“BJP के मैनिफेस्टो में रोज़गार के सवाल पर सन्नाटा युवाओं के लिए घातक है”

नरेन्द्र मोदी और अमित शाह

नरेन्द्र मोदी और अमित शाह

चुनावी राजनीति में जनता को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए राजनीतिक दलों का घोषणापत्र, वह दस्तावेज़ है जो चुनावी मशीन में तेल डालने का काम करता है। जो अब “संकल्प पत्र” या “प्रतिज्ञा पत्र” में बदल गया है। अगर कुछ नहीं बदला है तो जनता को दिखाया जाने वाला सब्जबाग। चुनाव खत्म होने के बाद तमाम राजनीतिक दल इस सब्जबाग पर कोई चर्चा नहीं करते मगर चुनाव में जाने से पहले घोषणापत्र पर हंगामा जरूर खड़ा करते है।

काँग्रेस के घोषणापत्र में “न्याय” और बाकी लोकलुभावन वादों से जनता का मोहंभग करने के लिए भाजपा ने जो “संकल्प पत्र” प्रस्तुत किया, उसमें शब्द संयोजन इतने घटिया किस्म के हैं कि मूड पर बाल्टी भर पानी डाल देती है।

मसलन, घोषणापत्र के अंग्रेज़ी संस्करण में महिला सशक्तिकरण चैप्टर में एक जगह लिखा है, “महिलाओं के खिलाफ अपराध किए जा सके इसके लिए हमने कानून बदलने के लिए कड़े प्रावधान किए है।”

विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी से इस तरह की गलतियां उम्मीद नहीं की जा सकती है। इस तरह की अनेक गलतियां कम-से-कम यह तो सिद्ध कर ही देती है कि भाजपा का चुनावी “संकल्प पत्र” हड़बड़ी में तैयार किया गया दस्तावेज़ तो ज़रूर है।

महिलाओं के मुद्दे पर भाजपा का निराशाजनक रवैया

वैसे भी अपने पूरे कार्यकाल में भाजपा सरकार महिलाओं के सवालों पर कितनी गंभीर रही है, इसकी गवाही महिलाओं से जुड़े तमाम वैश्विक आकंड़े दे देते हैं। साथ ही साथ उन्नाव, कठुआ, आसिफा और शेल्टर होम्स जैसे कई मामले मोदी सरकार के महिला अधिकार एवं सुरक्षा के मामले में आज़ाद भारत की सबसे असंवेदनशील सरकार की कलई खोल देती है।

इन तमाम मामलों में सरकार से पहले सर्वोच्च अदालतों को दखल देना पड़ा, जिसने आम लोगों के जनाक्रोश को कम किया। महिला आरक्षण विधेयक पर विपक्ष की सहमति के बाद मौन रहना, महिला आरक्षण पर स्टैंड स्पष्ट है।

राजनाथ सिंह, नरेन्द्र मोदी और अमित शाह। फोटो साभार: फेसबुक

मैटरनिटी लीव पर महिलाओं के हक में लाभकारी घोषणाओं के बाद उसके क्रियान्वयन में सर्तकता ने कामकाजी महिलाओं की तकलीफों में इज़ाफा ही किया है। यही स्थिति सेनेटरी पैड्स के मामले में भी दिखा जहां जीएसटी के दायरे से सेनेटरी पैड्स को बाहर लाने के लिए महिलाओं को सोशल मीडिया कैंपेन से लेकर कानूनी लड़ाई तक लड़नी पड़ी।

आज पेश किए गए “संकल्प पत्र” में समान नागरिक संहिता का फिर से उल्लेख महिलाओं के विषयों पर विविधता का साफ तौर पर अनदेखी का मुज़ायरा है, जो विवधता से भरे देश में कभी स्वीकार्य नहीं हो सकते हैं।

अंधराष्ट्रवाद और देशभक्ति का मुद्दा केन्द्र में

घोषणापत्र को ध्यान से पढ़ने पर लगता है कि भाजपा युवा जोश से लबरेज़ देश में युवाओं को अंधराष्ट्रवाद, देशभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विषयों में उलझा कर रखना चाहती है, इसलिए रोज़गार पर कोई चर्चा देखने को नहीं मिलती है, जो युवाओं के लिए घातक है। गोया, पार्टी को पता है कि रोज़गार के सवाल पर उसकी किरकिरी हो सकती है इसलिए इससे बचा गया है।

यह बहुत अधिक निराश करने वाली स्थिति है क्योंकि युवाओं के रोज़गार का सवाल देश के मुहाने पर विस्फोट करने को तैयार है। देश का प्रमुख राजनीतिक दल युवाओं के रोज़गार के सवाल से मुंह फेर कर कैसे खड़ी हो सकती है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि बीजेपी के मैनिफेस्टो में रोज़गार के सवाल पर सन्नाटा युवाओं के लिए घातक है।

पुराने मुद्दे दोहराये गए

भाजपा ने अपने “संकल्प पत्र” में राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता, नदियों के एकीकरण और सड़कों का महाजाल जैसे विषयों को फिर से दोहराया है, ज़ाहिर है इन मुद्दों से ही भाजपा का अस्तित्व खड़ा होता है। वह चाह कर भी इससे दूर नहीं जा सकती है।

इसलिए इनमें से कुछ विषयों को नए तरीके से तस्तरी में सजा कर पेश किया गया है, जिसमें राम मंदिर का मुद्दा सबसे पहले है। इस कोशिश में उन मुद्दों को अचानक से झटक दिया गया है, जो भाजपा के विकास की परिकल्पना की नींव थी। जैसे- स्मार्ट शहर, बुलेट ट्रेन, काला धन और अच्छे दिन।

उम्मीदों से परे है भाजपा का घोषणापत्र

इन बातों के साथ-साथ भाजपा का मौजूदा घोषणापत्र विपक्ष के लोकलुभावन योजना “न्याय” के बरक्स कोई काउंटर नैरेटिव नहीं खड़ा कर पाती है, जो थोड़ा आश्चर्य में डालता है। “न्याय” योजना पर जिस तरह सरकार का पूरा कुनबा हमलावर था, उम्मीद थी कोई बड़ी योजना का ऐलान सामने ज़रूर आएगा। क्या “न्याय” को चुनौति दे सकेगा राष्ट्रवाद का संकल्प, इसका जवाब तो 23 मई को ही मिलेगा।

बहरहाल, चुनावी शंखनाद के बाद चुनावी घोषणापत्रों की हकीकत जनता भी समझती है। आम जनता भी इसे बस रस्म अदायगी ही समझती है। इसलिए तमाम राजनीतिक दलों के घोषणापत्र मतदान पर कोई खास असर डाल सकेंगे, इसकी उम्मीद तब ही हो सकती है जब घोषणापत्र के वादों को चुनावी सभाओं में ज़ोर-शोर से उछाला जाए और आम जनता के मध्य बहस के लिए स्थापित किया जाए।

यह अब इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि वायदों को जुमला सिद्ध करने की कोशिशों में आम जनता के विश्वास को गहरी ठेस पहुंची है, जिसे फिर से बनाना एक चुनौति है।

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