Site icon Youth Ki Awaaz

फूलन देवी की माँ को क्यों जारी करना पड़ा चंबल मैनिफेस्टो?

फूलन देवी की माँ

फूलन देवी की माँ

चंबल घाटी में आंतक और खौफ का पर्याय बने सरगनाओं के खिलाफ जो भी खड़ा हुआ उसने उसका अंजाम भी भुगता। किसी भी चुनाव के फरमान जारी होते ही बीहड़ वासियों की रुह कांप जाती थी। उन दिनों बीहड़ में दुख, दर्द और दुत्कार ही नियति बन गई थी। असेवा में डकैतों के दिए गए घाव आज तक रिस रहे हैं।

लोकतंत्र के सबसे बड़े महापर्व में हमेशा वोट डालने वाले 44 वर्षीय राज बहादुर निषाद दुखी स्वर में कहते हैं, “पहले डकैतों ने ज़ुल्म किया, अब सरकार कर रही है।”

राज बहादुर की उम्मीदों पर ग्रहण 15 दिसंबर 1996 की सर्द रात को लगी। वह आठ बजे अपने चचेरे भाई संतोष के साथ अलाव ताप रहे थे तभी फक्कड़-कुसमा नाइन डकैतों के गैंग उन्हें पकड़कर असेवा घाट पार करके भरेह के पास जंगलों में ले गए। डाकुओं ने भारी मारपीट के बाद बड़ी बेरहमी से धारदार चाकुओं से उनकी दोनों आंखें निकाल ली। उन्होंने भीषण दर्द में लोगों से पैसे उधार लेकर अलीगढ़ में इलाज कराया। चंबल के इतिहास में इस तरह का कहर पहले किसी गांव पर नहीं बरपा था।

मैनिफेस्टो तैयार करने वाले शाह आलम बताते हैं कि बीते दो दशक के दौरान दर्जनों कुख्यात डकैत या तो ढेर कर दिए गए या आत्मसर्पण कर जेल पहुंच गए लेकिन इसके बावजूद आज भी यहां विकास की हवाएं नहीं बह पा रही हैं। सरकारी नुमाइंदे बीहड़ का रूख नहीं करना चाहते हैं। उनको बीहड़ का दर्द समझ में नहीं आता है।

बीहड़ वासियों की बूढ़ी आंखों में विकास के सपने तो पलते हैं पर हकीकत का रूप लेने से पहले ही कितनी आंखें बंद हो चुकी हैं। उम्मीदों पर ग्रहण है और भविष्य गर्त में नज़र आता है। विकास के ठेकेदार रसूख वाले बने बैठे हैं, जिनका मकसद महज़ विकास के नाम पर हर पांच साल बाद वोट लेना है। उन्हें इस बात से कुछ लेना देना नहीं है कि विकास की ज़मीनी हकीकत क्या है। तीन राज्यों में फैले चंबल घाटी की आठ सौ से अधिक जनता से बात करके चंबल जन घोषणा पत्र तैयार किया गया है।

फूलन देवी के गाँव से जारी किया गया मैनिफेस्टो

कभी वीरता, कभी बगावत का प्रतीक रहा चंबल बदहाली से बदलाव की राह देख रहा है। सीरत के साथ ही सूरत बदलने की कोशिश का शंखनाद भी कर दिया गया है। इस बदलाव की नींव बन सकता है ‘चंबल मैनिफेस्टो 2019’, जो जारी कर दिया गया है।

‘चंबल मैनिफेस्टो 2019’ बीहड़ से संसद तक का सफर तय करने वाली फूलन देवी के जालौन स्थित गाँव शेखपुरा गुढ़ा से जारी किया गया है। यह मैनिफेस्टो किसी और ने नहीं बल्कि फूलन देवी की माँ ‘मुला देवी’ ने जारी किया है। 2019 के चुनावों के लिए सभी राजनीतिक दल अपना मैनिफेस्टो जारी कर रहे हैं। वादों-दावों के दौर में ऐसा पहली बार हुआ है जब सदियों से कई गौरवपूर्ण और स्याह इतिहास को खुद में दफन किए चंबल का मैनिफेस्टो लाया गया है।

फूलन देवी की माँ को इसलिए चुना गया

बीहड़ ने बागी, दस्यु से लेकर विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री तक दिए हैं लेकिन चंबल की सूरत वैसी ही रही। यहां तक कि कई इलाके ऐसे हैं जहां आज भी पानी नदियों से पीया जाता है। रोटी, कपड़ा और मकान तो छोड़िए यहां पीने का साफ पानी तक उपलब्ध नहीं है। फूलन देवी की माँ भी इस बदहाली को झेल चुके हैं। उनकी बेटी ने बीहड़ से लेकर संसद तक अपनी धमक पहुंचाई लेकिन वह दाने-दाने को मोहताज हैं। उन्हें गांव के लोग और सामाजिक संगठन खाना-पीना मुहैया कराते हैं। उनका कहना है कि उन्होंने चंबल जैसा बचपन में देखा था वह आज भी वैसा ही है।

चंबल एक ऐसा इलाका है जहां दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बड़े पैमाने पर सामने आती हैं। सामंती सोच के लोगों ने दलितों के मानवाधिकारों को सदियों से कुचल कर रखा है। बीहड़ में शांति और फूलन देवी जैसी लड़कियों को ऐसे ही शोषण का सामना करना पड़ा जिससे तंग आकर उन्होंने बंदूक उठा ली। यहां आज भी दलित किसी सार्वजनिक हैण्डपंप, कुओं से पानी नहीं पी सकते। उन्हें घरों के सामने से गुज़रने पर चप्पल तक उतारना पड़ता है।

ऐसी और कई वजह हैं जिनके कारण यहां दलित शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहद पिछड़े हुए हैं। यहां सामाजिक न्याय हाशिए पर है। यूपीए शासन के दौरान एससी/एसटी कमीशन के अध्यक्ष रहे पीएल पुनिया ने यह माना था कि चंबल के बड़े हिस्से को समेटे हुए बुन्देलखंड दलितों के लिए बेहद संवेदनशील है।

फोटो साभार: फेसबुक

इसके साथ ही किसानों की समस्याएं तो बहुत ज़्यादा हैं ही। इस समय किसान एक और समस्या से जूझ रहे हैं। किसान के बैंक खाते में अगर मिनिमम बैलेंस नहीं होता है तो उस पर चार्ज लग जाता है। सरकार की किसी योजना के तहत अगर किसान के खाते में दो हज़ार रुपए आते हैं तो भारतीय स्टेट बैंक में तीन हज़ार रुपए तो मिनिमम बैलेंस रखने का नियम बना दिया गया है।

ऐसी स्थति में किसान या तो योजना के तहत रुपए निकाल नहीं पाता है और अगर निकालता भी है तो उस पर दंड लग जाता है। अधिकतर किसानों के खाते में बैलेंस मिनिमम से भी कम होता है। इसके अलावा मैसेज चार्ज सहित कई ऐसे चार्ज हैं जो किसानों पर लगा दिए जाते हैं, जिससे छोटे वर्ग के किसानों को बड़ी मुश्किल होती है।

तीन राज्यों के कई इलाकों को समेटे मैनिफेस्टो में फूलन देवी के यूपी के जालौन स्थित शेखपुरा गुढ़ा गांव से लेकर मध्यप्रदेश, राजस्थान के चंबल के विकास के लिए कई सुझाव और समस्याओं को बताया गया है। शिक्षा, रोज़गार, सड़क, पानी जैसी कई समस्याएं हैं, जिनकी वजह से चंबल के लोगों का जीवन स्तर आज भी बदहाल है। चंबल में फिल्म सिटी बनाने की भी मांग की गई है।

कुछ ऐसा रहा है चंबल का इतिहास

महाजनपद काल में इस धरा ने द्रौपदी की बगावत को देखा। तब पहली बार यहां चंबल के किनारे चमड़ा सुखाने की परंपरा को बंद कराया गया। शायद यह पर्यावरण बचाने का आदि संदेश था। मध्यकाल में भी दिल्ली की सत्ता कभी इस इलाके को काबू में नहीं रख सकी। दिल्ली के बागी तब चंबल के बीहड़ों में शरण लेते थे। फिर तो यहां बगावत का एक सिलसिला ही बन गया।

आज़ादी के आंदोलन में अंग्रेज़ों को सबसे बड़ी चुनौती चंबल के इलाकों में इसी रवायत के चलते मिली। इमरजेंसी भी चंबल की बगावत के आगे झुक गई थी। व्यक्तिगत उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ भी बगावत की अभिव्यक्ति चंबल में जारी रही। ‘बंदूक उठाकर बीहड़ कूदना’ सरकार, राजनीति और पुलिस के संरक्षण में पाले जाने वाले ज़ालिमों को चुनौती देना का मुहावरा बन गया।

चंबल पुरातात्विक सभ्यता की भी खान है। संसद का चेहरा यहां की इसी महान सभ्यता का मुखौटा है। बीहड़ के कोने-कोने में सैकड़ों साल के इतिहास की स्मृतियों को सीने में दबाए भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। 900 किमी लंबी चंबल के साथ दौड़ते बीहड़ों और जंगलों में क्रांतिकारियों, ठगों, बागियों, डाकुओं के ना जाने कितने किस्से दफन हैं। चंबल की यह रहस्मयी घाटी हिन्दी सिनेमा को हमेशा लुभाती रही है। लिहाज़ा इस ज़मीन को फिल्मलैण्ड कहा जाता है। आज़ादी के बाद इस पृष्ठभूमि पर बनी तमाम फिल्में सुपरहिट रही हैं।

पीला सोना यानि सरसों से लदे इसके खाई-भरखे, पढ़ावली-मितावली, बटेश्वर, सिंहोनिया के हज़ारों साल पुराने मठ-मन्दिर, सबलगढ़, धौलपुर, अटेर, भिंड के किले, चंबल सफ़ारी में मगर, घड़ियाल और डॉल्फिन के जीवंत दृश्य और चांदी की तरह चमकते चंबल के रेतीले तट और स्वच्छ जलधारा, और भी बहुत कुछ है चंबल में जिस पर फिल्मकारों और पर्यटकों की अभी दृष्टि पड़ी नहीं है। दस्यु समस्या का बहाना बना कर बहुत ही उर्वर चंबल की भूमि को एक साज़िश के तहत ‘डार्क ज़ोन’ में रखा गया है। सरकारें आती रही और जाती रही, कैलेंडर बदलते रहे, नहीं बदली तो सिर्फ पचनद घाटी की किस्मत।

राजनीतिक दलों को सौंपा गया चंबल विज़न डॉक्यूमेंट

चंबल की सूरत बदलने के लिए बेताब शाह आलम ने तमाम सामाजिक संगठनों के अलावा राजनीतिक दलों के उच्च पदाधिकारियों से मुलाकात की, जिनमें काँग्रेस, भाजपा, बसपा और सपा शामिल हैं। लखनऊ में एक दर्जन प्रतिनिधि मंडल के साथ मुलाकात के बाद शाह आलम ने कहा कि लोकसभा चुनाव में हर प्रत्याशी का चुनावी घोषणा पत्र स्थानीय मुद्दों पर होना चाहिए ताकि चुनाव जीतने के बाद उन मुद्दों के हल के लिए ठोस काम हो सके।

शाह आलम। फोटो साभार: फेसबुक

हमने देखा है कि कई सांसद पांच साल में सदन में एक भी क्षेत्रीय मुद्दा नही उठाते हैं। घोषणा पत्र नहीं होने की वजह से वे जवाबदेही से बच जाते हैं। बीहड़ के कई गाँवों में तो नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के पैर भी नहीं पड़े हैं। यहां तक कि लोकसभा के प्रत्याशी खुद वोट मांगने भी नहीं आते हैं। उनके प्रतिनिधि से काम चल जाता है। विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ शाह आलम बीहड़ की समस्याओं को उठाने के लिए चुनावी समर में जुटे हुए हैं।

चंबल मैनिफेस्टो में ये हैं सुझाव और मांगें

‘चंबल रेजिमेंट – नर्सरी आफ सोल्जर्स’ के नाम से विख्यात चंबल वह इलाका है जहां के लोग देश के लिए बलिदान हो जाने के जुनून की वजह से सबसे ज़्यादा संख्या में सेना और अन्य बलों में शामिल होते हैं। इस इलाके में शांति के दिनों में भी किसी ना किसी गाँव में सरहद पर तैनात किसी जवान को तिरंगे में लपेटकर लाया जाता है।

लिहाज़ा 17-18 मार्च 2010 को औरैया में दो दिवसीय बीहड़ फिल्म उत्सव किया गया था। इस उत्सव में ‘चंबल रेजिमेंट’ की मांग उठी थी। तब मई 2012 में भारतीय संसद की रक्षा समिति ने चंबल रेजिमेंट प्रस्ताव पर अपनी मुहर लगाई थी। चंबल मैनिफेस्टो में भारतीय सेना में चंबल रेजिमेंट को तत्काल लागू करने की वकालत की गई है।

बाकी मांगें इस प्रकार हैं:

ये मांगें इन तमाम ज़िलों की हैं

Exit mobile version