लोकसभा चुनाव की तारीख घोषित होते ही हर बार की तरह इस बार भी कोसी क्षेत्र में नेताओं के आने-जाने का सिलसिला शुरू हो चुका है। चुनावी वादों का दौर जारी है, जहां नेताजी चुनावी जुमले सुनाने में व्यस्त हैं।
वहीं, आम लोग इलाके के नेताजी टाइप लोगों पर नज़र रखे हुए हैं कि कौन नेता कैसा है। मतदाता, नेताजी को पुराने वादे याद दिलाते नहीं थकते। सरकार किसी की भी बने लेकिन हर दलीय नेताओं का कहना रहता है कि हमारे जीतने से रोज़गार बढ़ेगा और पलायन पर विराम लगेगा।
रोज़गार के अभाव में हो रहा पलायन
हाल-ए-हकीकत पर गौर करेंगे तो रोज़गार ना के बराबर है और पुरुषों को पलायन कर दूसरे राज्यों में रोज़ी-रोटी कमाने के लिए जाना पड़ रहा है। बिहार के कोसी अंचल में आज भी रोज़गार के अभाव में लोग पलायन कर रहे हैं। गनीमत है कि चुनावी आयोजनों पर यह सब याद आता है और चुनाव के बाद सब भूल जाते हैं।
महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से ज़्यादा
कोसी क्षेत्रों में हालिया लोकसभा चुनाव में भी महिलाएं पुरुषों पर भारी रहेंगी। हर केंद्र पर महिलाओं की कतार पुरुषों से लंबी होती है। बीते लोकसभा चुनाव के आंकड़ों पर गौर करें तो 60.96 % पुरुष मतदाता थे।
वहीं, महिलाओं का मतदान 67.07 % था। यह एक बात ज़ाहिर करता है कि पुरुष मतदाताओं का पंजियन ज़्यादा होने के बावजूद भी महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत तुलनात्मक अधिक था।
महिला सशक्तिकरण के खोखले दावे
चाहे आप शोर मचा लीजिए, सत्ता विकेंद्रीकरण और महिला सशक्तिकरण का फाग गा लीजिए लेकिन पंचायती संस्था के हर पंचायत में लोकसभा चुनाव के दौरान हकीकत यही है कि औसत प्रत्याशियों द्वारा पैसों के बल पर वोटरों को अपने पक्ष में किए जाते हैं।
अन्यथा कोई कारण नहीं था कि लोकसभा स्तर के चुनाव में कोसी के लोग समस्या की बात नहीं करते। कुछ दिन पहले जब पंचायतों में गाँवों के स्थानीय जनप्रतिनिधियों मुखिया, जिला परिषद और पंचायत समिति से कहा गया कि क्या वे चुनाव में कोसी नदी, कृषि, अस्पताल और रोज़गार इत्यादि की समस्या को उठा रहे हैं, तो वे भौंचक्के रह गए।
लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी और मतदाताओं की धांधली
लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी यह सोचकर चुनाव लड़ता है कि जीतने के बाद उसका बैंक बैलेंस और रूतबा दोनों बढ़ जाएगा। मतदाता यह देखता है कि कौन से उम्मीदवार उन्हें प्रति वोट सबसे ज़्यादा टका (रकम) दे सकते हैं और जीतने के बाद सरकारी मुफ्तखोरी भी करवा सकते हैं।
खेतों में कुसहा त्रासदी के बाढ़ से बर्बादी साफ दिख रही है। तटबंध के अंदर और निम्न स्तर के गाँवों में अभी भी लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने को विवश हैं।
हालात यह है कि लोगों को अस्पताल और स्कूल तक नसीब नहीं है। एक बूढ़े व्यक्ति से जब मैंने सवाल किया तो उनका जवाब था, “पार्टी जब टका देगी तो लेबे करेंगे फिर वोट तो देना ही पड़ेगा। भोट नहीं देंगे, तो मुआवज़ा से भी वंचित कर देगा।”
बहरहाल, इस बार का बुलेटिन कुछ और है। जिसे शॉर्ट में कुछ इस तरह बयां किया जा सकता है।
“बिहार में लोकसभा चुनाव का महापर्व चल रहा है। प्रचार-प्रसार शांतिपूर्ण माहौल में हो रहा है। बिहार की महिलाएं अब बहुत जागरूक हो गई हैं। चुनावी तिकड़म में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं, जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।”