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“मेरे लिए मोदी की फिल्म और नमो टीवी पर चुनाव आयोग का फैसला सराहनीय है”

लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व के चुनावी प्रचार में सेना का राजनीतिकरण, ट्रेन-हवाई यात्रा में टिकटों और डिस्पोज़ल कपों पर प्रधानमंत्री की तस्वीरों का प्रयोग, बिना लाइसेंस के नमो टीवी पर प्रधानमंत्री की सभाओं का लाइव प्रसारण और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर बनी फिल्म के रिलीज़ को लेकर भारतीय चुनाव आयोग का चरित्र संदेह के घेरे में आ रहा था।

फोटो सोर्स- Youtube

यहां तक कुछ टेलीविज़न सीरियल भी आदर्श आचार संहिता के घेरे में आ चुके हैं, जो मोदी सरकार की योजनाएं और मोदी सरकार की तारीफों के पुल बांध रहे हैं। मोदी पर एक वेब सीरीज़ तक रिलीज़ की जा चुकी है, जो आचार संहिता का उल्लंघन है।

इस माहौल में स्वस्थ लोकतंत्र की मर्यादा का तकाज़ा समझते हुए चुनाव आयोग ने नमो टीवी के प्रसारण के साथ-साथ प्रधानमंत्री मोदी पर बनी फिल्म पर चुनाव परिणाम आने तक बैन लगा दिया है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।

इसका एक दूसरा पक्ष भी है कि नमो टीवी और प्रधानमंत्री मोदी की फिल्म पर बैन करके चुनाव आयोग ने एक बड़ी बहस को रिलीज़ कर दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि खेमों में बट चुका देश सोशल मीडिया और सूचना प्रसारण के तमाम प्लैटफॉर्म पर बेसिर-पैर की बहस ज़रूर करेगा। हालांकि यह कोई नई परिघटना नहीं है, इसके पूर्व भी चुनाव आयोग ने अमिताभ बच्चन की फिल्म पर प्रतिबंध लगाया था, जब कॉंग्रेस के टिकट पर वो तब के इलाहाबाद और आज के प्रयागराज में लोकसभा के प्रत्याशी थे। उस दौर में सोशल मीडिया जैसी चीज़ नहीं थी और सूचनाओं के प्रसारण के लिए दूरदर्शन, रेडियो और अखबारों के अतिरिक्त कोई माध्यम नहीं था।

फोटो सोर्स- Youtube

आज व्हाट्सएप, यू-टूयूब या आनलाइन फिल्म या नेताओं के भाषण लीक करके इस कमी को पाटने की कोशिश हो सकती है। हालांकि चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार के लिए सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर निगरानी की बात प्रमुखता से की है। ज़ाहिर है, सभी को पता है कि संचार व्यवस्था में ओपिनियन लीडर की स्पीच मतदाताओं का मत निमार्ण करती है, इसलिए नमो टीवी और नरेन्द्र मोदी पर बनी फिल्म पर रोक लगाने के लिए विपक्षी दल चुनाव आयोग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक दरवाज़ा खटखटा रहे थे।

कुछ लोगों का तर्क है कि चुनाव के दौरान उन सारे प्रतीकों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए जो राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह हैं और आम मतदाता उनका इस्तेमाल दैनिक जीवन में करते हैं। इन लोगों को यह पता नहीं है कि चुनाव के दौरान पार्टियां मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के तीकड़म भिड़ाती हैं।

इस चुनाव के दौरान मोदी-राहुल-सोनिया की तस्वीरों वाली साड़ियां तक देखने को मिल रही हैं। पर्व-त्यौहार के दौरान तो मिठाई-पतंग-पटाखे तक जन-प्रतिनिधियों या नेताओं के देखने को मिलते हैं, जिनकी छूट चुनाव आयोग देता है। ज़ाहिर है इस तरह के बे-सिर पैर की बाते करने वाले ना ही चुनाव की गंभीरता को समझते हैं, ना ही किसी भी लोकतंत्र में संचार व्यवस्था में लोगों के परसेप्सन बनाने में संचार माध्यमों के भूमिका के बारे में जानते हैं। उनको यह भी नहीं पता है कि पार्टियां चुनाव चिन्ह के रूप में लोकप्रिय प्रतीकों को इसलिए चुनती हैं, ताकि आम मतदाता अगर किसी पार्टी के प्रतिनिधि को नहीं पहचान रहा हो, तो चुनाव-चिन्ह को पहचानकर मत का प्रयोग कर सके।

फोटो सोर्स- फेसबुक

चुनाव आयोग के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए

चुनाव आयोग के मौजूद निर्णय से कुछ लोगों की असहमति इसलिए भी है, क्योंकि पूर्व में चुनाव आयोग ने कुछ गलतियां कर दी हैं, जिससे चुनाव आयोग के बारे में अधिकांश लोगों की राय चाभी वाले गुड्डे की तरह है। जब जो अधिक चाभी घुमाता है, गुड्डा उस अनुपात में नाचने लगता है। इन गलतियों में यूपी में चुनावों के दौरान पार्कों में लगी हाथियों की मूर्तियों को ढकने की घटना भी है।

इस बात से कोई इंकार नहीं है कि सोशल मीडिया के दौर में वायरल हो रही सूचनाओं को रोकना एक चुनौती है। परंतु, जहां तक हो सके चुनाव आयोग द्वारा आदर्श आचार संहिता का पालन करते हुए चुनाव कराने की कोशिश के लिए उनका हौसला अफज़ाई ज़रूर करना चाहिए। साथ-ही-साथ अगर आदर्श आचार संहिता के मायने बताने के लिए चुनाव आयोग को सख्त होने की ज़रूरत है, क्योंकि चुनाव आयोग कोई मज़ाक बनकर रह जाने वाली संस्था नहीं है।

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