Site icon Youth Ki Awaaz

“जो शासक जनता के विचारों से डरने लगे, समझ लो कि वह अपना विवेक खो चुका है”

जो शासक विचारों से डरने लगे, जो विचारकों को जेलों में बंद करने लगे, समझ लो कि वह अपना विवेक खो चुका है। अच्छा है कि हमारा देश शासक की उदारता से नहीं बल्कि कानून से चलता है। प्रख्यात विचारक और लेखक आनंद तेलतुंबड़े और सुधा भारद्वाज जैसे और भी नागरिक, समाजसेवी, आंदोलनकारियों के साथ जो हो रहा है, उससे हम सबको सतर्क हो जाने की ज़रूरत है।

सुधा भारद्वाज। फोटो सोर्स- फेसबुक

शासक को अपनी सत्ता जाने का डर सता रहा है। जब शासक के मन में यह डर बढ़ेगा तो, जिस प्रकार कंस देवकी की हर संतान को मार रहा था, ठीक वैसे ही यह शासक एक के बाद एक बलियां देगा। सावधान हो जाइए।

प्रजातंत्र, हमारा संविधान और इन दोनों से उपजी संस्थाएं ही हमारी असल विरासत और पूंजी हैं। अपने-अपने धर्मों को मानने की आज़ादी हो, अपनी मर्ज़ी का पेशा चुनने की आज़ादी हो, एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की आज़ादी हो, अपने विचारों के अनुसार राजनीतिक गतिविधि करने की आज़ादी हो, या फिर सामान्य रूप से अपनी बातों को ही कहने की आज़ादी हो, सब कुछ हमें संविधान, प्रजातंत्र और उनसे उपजी संस्थाओं से मिलता है। यहां तक कि हमें निजी संपत्ति का अधिकार भी इन्हीं से मिलता है।

राज्य बिना न्यायिक कार्यवाही के आपकी सम्पत्ति नहीं ले सकता। राज्य के खिलाफ आप न्यायालय भी जा सकते हैं। न्यायालय में भी कई श्रेणियां हैं। एक के बाद एक कई ऐसे प्रावधान हैं जो शासकों की कुटिल चालों से आपको बचाते हैं।

आनंद तेलतुंबड़े का अपराध क्या है? सुधा भारद्वाज का अपराध क्या है? इस देश में मुख्यमंत्री की नाक के नीचे से भोपाल गैस काण्ड का अपराधी फरार हो गया था। प्रधानमंत्री की नाक के नीचे देश की राजधानी में हज़ारों सिखों को कत्ल कर दिया गया था। प्रधानमंत्री फोन पर नहीं आये और बाबरी मस्जिद ढा दी गई थी।

इन सबके आगे लिखने और पढ़ने वाले, समाज के वंचित वर्गों के लिए काम करने वाले इन नागरिकों का क्या दोष है? “वसुधैव कुटुम्बकम” कहने वाले लोग, क्यों अपने ही देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन कर रहे हैं? ये प्रश्न साधारण नहीं हैं। ये बड़े गंभीर प्रश्न हैं, जो सीधे हमारे भविष्य से जुड़े हुए हैं।

यदि आज का शासक गद्दी पर बैठा है, तो वह इस संविधान और प्रजातंत्र के कारण बैठा है। यदि आज का शासक अपनी निर्धन पृष्ठभूमि से उठकर शासक बन जाने पर गर्व करता है, तो उसे तो यह इल्म होना ही चाहिए कि यह सब कैसे सम्भव हो पाया है।

बड़ी मेहनत लगती है समाज से नफरत खत्म करने में। हम हमारी नागरिकता छोड़कर पता नहीं क्या-क्या हो जाना चाह रहे हैं। वो सब होकर हम सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे से नफरत करना चाहते हैं। हमारी नागरिकता में बहुत शक्ति है। हमें इस शक्ति को पहचानना होगा, इसका इस्तेमाल करना होगा।

नागरिकता का अर्थ किसी का भक्त हो जाना नहीं है, ना तो किसी व्यक्ति का, ना किसी राष्ट्रीय मिथक का। नागरिकता का अर्थ है सहअस्तित्व और सहभागित। यदि हम हमारी नागरिकता के सही मायने नहीं समझे और इसी गति से अपनी संकीर्ण पहचानों के दायरे में बंधकर हिंसक और भीरू बनते चले गए, तो हम सब एक दिन जेलों में बंद होंगे। अपने ही भीतर की जेलों में। हर एक आदमी खुद में बंद होगा। खुद में बंद होने की घुटन संग्राम पैदा कर देगी जो हमारी सभ्यता को तार-तार कर देगी।

Exit mobile version