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अंबेडकरवाद के प्रसार में दलित पैंथर मूवमेंट की भूमिका

अंबेडकर

अंबेडकर

दलित पैंथर से आजतक का दलित युवकों के संगठनों का सफर रोमांचकारी रहा है पर आज तक हम बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाए हैं। हम दलित आदिवासियों के ऊपर हो रहे अत्याचार और हमारे संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं पर हम जातीय अंत की लड़ाई सफल नहीं कर पाए हैं और इसके अनेक कारण हैं।

मैं भी दलित युवा सामाजिक कार्यकर्ता हूं इसलिए युवा संगठनों की समस्या समझ सकता हूं। मैं भी इन समस्याओं से जूझ रहा हूं पर मेरे जीवन पर दलित पैंथर ने गहरी छाप छोड़ी है। मैं दलित पैंथर से प्रभावित हूं, इस संगठन ने देश में अंबेडकरवाद की नींव रखी है, यह कोई नकार नहीं सकता है।

फोटो सोर्स- Getty

डॉक्टर अंबेडकर के महापरिनिर्वाण के बाद शिक्षित महाराष्ट्र के युवाओं ने दलित पैंथर संगठन की स्थापित की। ये दलितों की पहली शिक्षित पीढ़ी थी। 70 के दशक में पढ़ाई के लिए मुंबई आए स्टूडेंट्स ने दलितों पर हो रहे अत्याचार और 1972 में संसद में पेश हुए पेरूमल रिपोर्ट जो देश में दलित आदिवासियों पर बढ़ते अत्याचार पर थी, इसे लेकर जे वी पंवार, नामदेव ढासाल, रजाभाउ ढाले इन युवाओं ने 1972 में दलित पैंथर नाम से युवाओं का संगठन स्थापित किया।

यह नाम अमेरिका में निग्रो लोगों के अधिकार के लिए लड़ रहे “ब्लैक पैंथर” संगठन से प्रभावित और प्रेरित होकर रखा था। दलित पैंथर के सिवाय और भी दलित युवाओं के संगठन थे, जैसे रिपब्लिकन स्टूडेंट एसोसिएशन, रिपब्लिकन क्रांति दल, युवक आघाड़ी पर दलित पैंथर में वैचारिक प्रतिबद्धता थी। इस संगठन ने बाबा साहब अंबेडकर द्वारा लिखित किताबों और विचारों को आवाम तक पहुंचाया और गांधीवाद, साम्यवाद, समाजवाद से अंबेडकरवादी विचारों की तुलना की और अंबेडकरवाद की नींव रखी।

इन्होंने अंबेडकर के विचारों पर मराठी और अंग्रेज़ी में लेख लिखे, लिंटल मैगज़ीन मूवमेंट चलाया और अंबेडकर के विचारों का प्रचार किया। 15 अगस्त 1972 को राजा भाऊ ढाले ने साधना मैगज़ीन में शोषण के 25 साल नाम से मराठी में लेख लिखा। इस लेख से दिल्ली का दरबार भी हिल गया था।

इस लेख से पुणे में दंगा भी हुआ था, राजा भाऊ ढाले पर देशद्रोह का मुकदमा भी दर्ज हुआ। दलित पैंथर के कार्यकर्ताओं की उम्र 20 से 25 वर्ष की थी। इनके भाषण, लेख, कविता, ज्ञापन लिखने का तरीका इन सब में विद्रोह था। जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ इसी संगठन ने साम्यवादी विचारों को नकारकर अंबेडकरवादी विचारों को सामने लाया। वर्ग अंत नकार कर जाति अंत के संघर्ष को आगे बढ़ाया।

इन युवाओं को नहीं था किसी का समर्थन

इस युवा संगठन ने अंबेडकरवादी मूवमेंट को संस्कृति दी। आज इसी संगठन की बदौलत अंबेडकरवादी मूवमेंट आगे बढ़ रहा है। ये सभी पैंथर युवा थे, ना इन्हें उस वक्त के दलित समाज के राजनेताओं ने समर्थन दिया, ना समाज के आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्तियों ने। ये सभी युवा गरीब घर से थे। राजा भाऊ ढाले को नौकरी मिली थी मगर मूवमेंट के कारण छोड़ दी। ये हमेशा आर्थिक तंगी में रहें। बहुत से कार्यकर्ताओं पर मुकदमे भी उस वक्त हुए और ज़मानत के लिए भी ये पैसे जोड़ नहीं पाते थे, इसी कारण नामदेव ढासाल और राजा भाऊ ढाले के बीच वैचारिक मतभेद उत्पन्न हुआ और सिर्फ 4 सालो में ये विद्रोही संगठन टूट गया।

1978 में हुआ दलित पैंथर का पुनर्गठन

इसके बाद एस.एम प्रधान के नेतृत्व में भारतीय दलित पैंथर का गठन 1978 में औरंगाबाद में हुआ। इसके पहले अध्यक्ष अरुण कांबले बने इस संगठन में रामदास आठवले। गंगाधर गाडे युवा नेता थे तो दूसरी तरफ दलित पैंथर को बंद करके राजा भाऊ ने मास मूवमेंट नाम का युवाओं का संगठन बनाया। नामदेव ढासाल ने आर्थिकता से तंग आकर शिवसेना के मुखपत्र सामना में संपादक का काम करना शुरू किया और दलित पैंथर नाम से ही संगठन चलाया।

आगे चलकर भारतीय दलित पैंथर के औरंगाबाद के मराठवाड़ा विद्यापीठ को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर नाम देने का आंदोलन 16 साल चलाया। इसका नेतृत्व रामदास आठवले जी कर रहे थे, उस वक्त उनकी उम्र 26 साल थी।

इस आंदोलन को भी आर्थिक तंगी थी, रामदास आठवले गरीब परिवार के युवा थे। मुंबई के छात्रावास में रहना और आंदोलन के लिए बगैर टिकट के सफर करना, उनकी आर्थिक स्थिति विकट होते हुए भी उन्होंने 16 साल नामांतरण का आंदोलन चलाया। बाद में आर्थिकता से तंग आकर कॉंग्रेस के साथ हाथ मिला लिया और राज्य के सामाजिक न्याय मंत्री बने।

उधर राजा भाऊ के मास मूवमेंट ने जल्दी ही दम तोड़ दिया। मराठवाड़ा में इसी बीच बहुजन युवा आघाड़ी संगठन बना लेकिन ज़्यादा दिन चल नहीं सका और भी छोटे-मोटे संगठन बने और बिखरे। इसका कारण 70 के दशक में कांशीराम जी के नेतृत्व में बनी बामसेफ भी है।

कांशीराम जी को अपनी उम्र के 37वें साल अंबेडकरवाद समझ में आया, जब वह पुणा में नौकरी कर रहे थे। यानी जवानी में नहीं उनका बुढ़ापा शुरू हो चुका था। तब बामसेफ के आंदोलन में सभी कर्मचारियों को पैसा देने को कहा और युवाओं के आंदोलन को पैसा जो कुछ भी मिलता था वो भी बंद हो गया। रिडिल्स का आंदोलन इसी बीच शुरू हुआ ये सम्यक आंदोलन युवाओं के संगठन ने किया।

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