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“बहुसंख्यक मत बटोरने के लिए उठाया गया कदम है साध्वी प्रज्ञा की उम्मीदवारी”

साध्वी पज्ञा

साध्वी पज्ञा

अचानक साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के सक्रिय राजनीति में कदम रखने से सभी उदारवादी दलों में हड़कंप मच गया है। मैं इसका औचित्य नहीं समझ पा रहा हूं। मेरी अल्प चेतना से मैं इसे बहुत बड़ा नहीं समझ रहा हूं। मुझे यह बहस निरर्थक जान पड़ती है।

क्या पहली दफा किसी बहुसंख्यक दहशतगर्द को सियासत में सहज एवं वैध बनाने का प्रयास हो रहा है? क्या पहली दफा बहुसंख्यक आतंकवाद एवं अल्पसंख्यक आतंकवाद के बीच एक दीवार खड़ी कर, संख्या बल के दूध से उनका अभिषेक कर, सारे खून के धब्बों को धो कर आराध्य तुल्य बनाया जा रहा है?

क्या पहली दफा किसी दहशतगर्द पर मसीहा होने का रंग चढ़ाया जा रहा है? क्या भारत में पहली दफा नवउदारवादी साम्राज्यवाद एवं ब्राह्मणवाद एक दूसरे से गांठ बांधे हुए पूंजी से संचालित संचार तंत्र के ज़रिये निर्दोषों के खून से सने चेहरों पर पोचारा कर चमकाता दिख रहा है? अगर नहीं तो ये सारी बहस ही बेबुनियाद है और फालतू का एक शोर है जो हर निर्दोष के कातिलों का सत्ता तक का सफर सुगम बना देती है।

किसी भी अपराध के पीछे मौजूद करता के कारक तत्वों की जांच पड़ताल हमने कभी की ही नहीं है। जब तक कारक तत्व नहीं तलाशे जाएंगे, तब तक इस समस्या के मूल तक नहीं पहुंचा जाएगा।

जो व्यक्ति एक इंसान के लिए क्रांतिकारी है, वह दूसरे इंसान के लिए आतंकवादी हो सकता है

यह कथन मौजूदा हालात में बहुत प्रासंगिक है। अगर हम समय की सुई कुछ वर्ष पीछे मोड़ दे तो ऐसे तमाम चेहरे नज़र आएंगे जिनके सामने प्रज्ञा ठाकुर के गुनाहों का कद बहुत ही छोटा है और वे अब पाक साफ हो कर सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हैं।

यह भी कह सकते हैं कि जिस बहुसंख्यक आतंकवाद को पूंजी के दम पर वैधता मिल चुकी है और जिसके प्रचार, प्रसार में संचार तंत्र अपनी भूमिका बखूबी निभा कर तमाम ऐसे चेहरों को लोकतंत्र में स्थापित कर चुका है, उस लीग में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर बहुत ही जूनियर है।

पाक साफ होने के क्रम में उनके अथक परिश्रम को कौन भूल सकता है, जहां उनके सत्ता पर बढ़ते कदम, भारत की संपत्ति का निजीकरण एवं गैरबराबरी के समाजीकरण से कदम ताल कर रहे थे। संघ द्वारा संचालित हिंदुत्व, दुनिया में नवउदारवाद के बाद परदे के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से पूंजीवादी साम्राज्यवाद, इन सबका एक ही ध्येय है।

ऊंच-नीच की खाई, जिसे साम्राज्यवाद वर्ग विषमता से बरकरार रखता है, उसे संघ वर्ण व्यवस्था से बरकरार रखती है। इस फर्ज़ी मज़हबी खेल का ध्येय वर्ग चेतना को बिसराना है, जिससे आम जनता अपनी समस्याओं को लेकर सत्ता से सवाल ना कर सके।

यह बात गौर करने लायक है कि संघ ने अपने शुरुआती दिनों में ही फासीवादी विचारधारा को आत्मसात कर एक धर्म, एक देश, एक भाषा का ध्येय सामने रखकर यूरोपीय परिभाषा का राष्ट्रवाद भारत में स्थापित करना चाहा था।

फोटो साभार: Twitter

वह भी उस देश में जहां हर 50 कि.मी. पर बोलियां बदल जाती है, जिस देश में अनेक भाषाएं हैं, जहां अनेक मज़हब एवं उनके मानने वाले अनुयायी हैं, जहां अनेक जाति एवं जनजाति मौजूद हैं, जहां उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक सारा भूभाग ही बदल जाता है। ऐसे देश में एक धर्म, एक देश, एक भाषा वाला यूरोपीय राष्ट्रवाद ना सिर्फ अव्यावहारिक है, बल्कि यहां सदियों से रह रहे बाशिंदों के साथ क्रूर अन्याय भी है।

इन्द्रधनुष के सातों रंग की तरह भारत का राष्ट्रवाद समावेशी है, जहां सभी रंगों को खिलने का समान अवसर मौजूद है। नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के क्रूर नस्लीय विद्वेष एवं अश्वेत के दमन के दौर के बाद हर नस्ल को बराबरी का अधिकार प्रदान कर एक इन्द्रधनुषीय राष्ट्र बनाने की परिकल्पना की थी।

गौरतलब है कि भारत में जो राष्ट्रवाद अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद से आज़ादी के संघर्ष के दौरान विकसित हुआ, उसकी तस्वीर मौजूदा राष्ट्रवाद से बिल्कुल अलग थी। उस दौर में भारत का निम्न तबका ऊंचे वर्ग एवं धन कुबेरों के मुकाबले दमित, शोषित एवं उपेक्षित था। यह निम्न तबका अपने आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में अमूलचुक बदलाव के सपने के तहत, हर मज़हब एवं जात पात की दीवारों को गिरा कर मुक्ति संघर्ष में एक ही छत्री के नीचे संघर्षरत, संगठित एवं सक्रिय था।

उस खूबसूरत संघर्ष से जो हमें जो आज़ादी मिली, उसका राष्ट्रवाद अलगाव का नहीं बल्कि सबको साथ जोड़ते हुए अलग-अलग धर्म एवं जातियों के बीच प्रेम और सौहार्द कायम कर, सभी के लिए एक समावेशी माहौल तैयार करने का था।

इसकी झलक हमें भारत के संविधान की प्रस्तावना में मिल जाती है, जहां “हम, भारत के लोग” स्पष्ट अक्षरों में लिखा है, ना कि “हम हिंदू या मुसलमान भारत के लोग।” यही “हम” इस भूभाग में सभी को जोड़ता हुआ हमारे राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है।

एक नज़र संघ के राष्ट्रवाद पर

संघ का योगदान आज़ादी के संघर्ष में नगण्य और आज़ादी से विश्वासघात कर अंग्रेज़ों के मुखबिर बनने का रहा है। 1938 में आरएसएस के गुरु गोलवरकर ने अपनी पुस्तक ‘वी आर आवर नेशहुड डिफाइंड’ में नाज़ियों की और उनके नस्लीय सिद्धांत की प्रशंसा की थी।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि संघ नाज़ी जर्मनी का भद्दा साम्राज्य भारत में भी कायम कर यहां के अल्पसंख्यक समुदायों का वही हाल करना चाहती थी जो हिटलर ने यहूदियों को जर्मनी में गैस चैम्बर में ठूंस कर किया था।

यही है उनका राष्ट्रवाद जो उन्होंने यूरोप में फासीवाद के उदय से प्राप्त किया, जिसने विभीषिका के मंज़र का सृजन कर एक आबादी अपने उदर में निगल ली। वही राष्ट्रवाद जिसके दामन पर अब भी करोड़ों निर्दोषों के खून के धब्बे मौजूद हैं। वही राष्ट्रवाद जो एक मुखौटा है और जिसका असली चेहरा फासीवाद है।

जब प्रज्ञा ठाकुर का नाम भोपाल से भाजपा के उम्मीदवार के तौर पर सामने आया तो फिज़ूल का गुबार जो बनाया जा रहा है, उससे फायदा सिर्फ हिंदुत्व फासीवाद को मिलेगा। मालेगाँव बम ब्लास्ट की मुख्य अभियुक्त का भाजपा से प्रत्याशी बनाया जाना अप्रत्याशित नहीं है, बल्कि एक सोची समझी रणनीति के तहत, उग्रवादी हिंदुत्व के ज़रिये चुनाव का ध्रुवीकरण कर बहुसंख्यक मत बटोरने के लिए उठाया गया कदम है।

हमारे देश में हर अपराध से मुक्ति की कसौटी चुनाव ही मानी जाती है, जिसके साथ कदम ताल करती है हमारी लचर न्यायिक एवं जांच व्यवस्था। अगर ऐसे प्रत्याशी चुनावी प्रयाग में डुबकी लगाकर जीत जाते हैं तो उनके सारे खून माफ हो जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे 2002 के खून के धब्बे धो दिए गए, एक राज्य के गृह मंत्री ‘हरेन पांड्या’ के दिन दहाड़े कत्ल की खबर मीडिया से गायब हो गई, ज़ाकिया जाफरी को इंसाफ मिलने की उम्मीद लचर न्यायिक व्यवस्था तोड़ती चली गई, कौसर बी की हत्या का कोई कारण पता नहीं चला, गुजरात में फर्ज़ी मुठभेड़ों के सिलसिलों के पीछे असली गुनहगारों को छुपाने का प्रयास होते आया है।

ठीक उसी प्रकार मालेगांव बम ब्लास्ट, समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट का केस कमज़ोर कर दिया गया और न्याय का मज़ाक बना दिया गया। वो तमाम चेहरे जिनके लिए सर्वोच्चय न्यायालय ने “आधुनिक युग का नीरो” कहा था, जिनके बाहर होने के औचित्य पर इंडिया टुडे कवर पेज पर सवाल करता था, वे आज ना सिर्फ बेगुनाह हैं बल्कि उनको उन्हीं मीडिया संस्थानों एवं पूंजीपतियों के सांठगांठ द्वारा देश में बहुसंख्यक आबादी का मसीहा बनाया जा चुका है।

फोटो साभार: Twitter

मसीहा बनाने की प्रक्रिया बहुसंख्यक आबादी को मिथ्या प्रलोभन देने, मिथ्या गौरव का अहसास कराने एवं अल्पसंख्यकों को हर समस्या का मूल कारण बता कर नफरत एवं हिंसा को समाज में वैध बनाने से हो कर गुज़रती है। इस कार्यक्रम के तहत विगत पांच सालों में भीड़ द्वारा अल्पसंख्यकों पर हिंसा को सहज बना दिया गया है।

यह कार्यक्रम धर्मनिरपेक्ष भारत में ध्रुवीकरण की ओछी सियासत की नींव बनी, जो आज गिद्धों एवं चीलों की तरह उदारवादी मनुष्यता का जिस्म नोच कर हर बाशिंदे को आदमखोर बना रही है।

पाश ने अपनी कविता “सबसे खतरनाक” में बहुत ही खूबसूरती से इस समस्या के मर्म को छुआ है। पाश लिखते हैं,

“सबसे खतरनाक वो चांद होता है

जो हर हत्‍याकांड के बाद

वीरान हुए आंगन में चढ़ता है

लेकिन आपकी आंखों में

मिर्चों की तरह नहीं पड़ता।”

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