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कस्तूरबा गाँधी के त्याग का यह देश सही मूल्यांकन कब करेगा?

महात्मा गाँधी और कस्तूरबा गाँधी

महात्मा गाँधी और कस्तूरबा गाँधी

“बा” यानि माता कस्तूरबा, जिनके बारे में कोई स्वतंत्र छवि महात्मा गाँधी की तरह नहीं बन पाती है। कस्तूरबा गाँधी के सानिध्य में रही महिलाओं ने उनके जिस व्यक्तित्व को उभारा है, वह ममता से भरा हुआ है। स्कूली किताबों में उनके बारे में बस इतनी जानकारी मिलती है कि महात्मा गाँधी से उनका विवाह 13 वर्ष की आयु में हुआ था और वह महात्मा गाँधी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में हम साया की तरह थीं।

अगर ध्यान से देखें तो कस्तूरबा गाँधी और महात्मा गाँधी का जीवन एक सफल दाम्पत्य का बेजोड़ उदाहरण है। इससे इतर “गाँधी” और “गाँधी माई फादर” सिनेमा ने भारतीय आम जन-मानस में अधिक छवि बनाई है। “गाँधी” सिनेमा में पुणे के आगा खां नज़रबंद शिवर में बापू के सामने कस्तूरबा के नश्वर देह त्याग का भावविभोर दृश्य है।

ब्रोंकाइटिस और एम्फायसेमा से जूझती कस्तूरबा 22 फरवरी 1944  को बापू के साथ 62 वर्ष के सहजीवन का साथ छोड़ देती हैं। यह छवि एक कर्मठ महिला की थी, जो बापू के संग आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी करने के साथ-साथ सूत भी काटती है और शराबबंदी के लिए महिलाओं को संगठित भी करती है।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी। फोटो साभार: Twitter

“गाँधी माई फादर” में ट्रेन में सफर के दौरान एक स्टेशन पर हरिलाल, बापू के बड़े पुत्र अचानक आते हैं और कस्तूरबा से मिलते हैं। कुछ फल देते हुए बापू से कहते है, “आज आप जो कुछ भी हैं, मेरी ‘बा’ की वजह से हैं।”

सारी भीड़ बापू के लिए जयकारा लगा रही है और हरिलाल लगातार “कस्तूरबा गाँधी की जय” का नारा लगा रहे  थे। यह छवि पुत्र-पिता के मध्य फंसी एक माँ-पत्नी की है, जो पति धर्म को निभाते हुए पुत्र का त्याग कर देती है मगर पुत्र के टीस से उबर नहीं पाती हैं।

मैं इन दोनों छवियों से अगल सेवाग्राम आश्रम में “बा कुटीर” को देखने के बाद कस्तूरबा के बारे में नए सिरे से सोचने को विवश हुआ। सेवाग्राम आश्रम के बगल में कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल भी है, जो हो ना हो  “बा” के किसी खास व्यक्तित्व का आभास देता है।

जिस दौर में महिलाओं को पिता, पति और पुत्र से जोड़कर ही उनके अस्तित्व को परिभाषित किया जाता था, उस दौर में आश्रम में अलग से “बा कुटीर” का होना बताता है कि कस्तूरबा, बापू की हमसाया होते हुए भी एक अलग अस्तित्व की हस्ती थी, जिनके बारे में सीमित जानकारी ही लोगों तक पहुंची सकी है।

कस्तूरबा का जन्म जिस दौर में हुआ, उस समय जन्म का पंजीकरण नहीं होता था और ना ही लड़कियों की जन्मतिथि को याद रखना कोई ज़रूरी कार्य माना जाता था। इसलिए उनकी जन्मतिथि 11 अप्रैल 1869 मान ली गई है, जो बापू के जन्म से कुछ महीने अधिक है। ‘बा’ का परिवार पुराने ख्यालों का था, इसलिए वह पढ़-लिख नहीं पाईं। विवाह के बाद गाँधी जी ने ‘बा’ को पढ़ाने की कोशिश की।

एक जीवनसाथी के रूप में विरले स्वभाव का परिचय देती हुई “बा” बापू के भोजन से लेकर दिनचर्या की हर चीजों का ख्याल रखती। समाचार पत्रों को भी पढ़ती और बयान को तोर-मरोड़ कर लिखे जाने पर टिप्पणी भी करती।

कस्तूरबा के व्यक्तित्व का प्रभाव इतना अधिक था कि बापू भी कोई ऐसा कार्य नहीं कर पाते जिसे उनका दिल और मस्तिष्क स्वीकार नहीं कर पाता। कोई भी कार्य करने से पहले बापू को उस कार्य के पक्ष में तर्क देकर उनकी सहमति लेनी पड़ती थी। बापू खुद भी कहते हैं, “सत्याग्रह का रहस्य कस्तूरबा से सीखा है। वह उन्हें सत्याग्रह की कला और उसके विज्ञान का गुरू मानते थे।”

गाँधी जी ने अपने जीवन के बहुत सारे प्रयोग किए, दरिद्रता का व्रत, बह्मचर्य का प्रयोग, आश्रम के जीवन में भोजन बनाने से लेकर शौचालयों तक की सफाई खुद करने का निर्णय, इन सभी बदलावों को कस्तूरबा ने स्वेच्छा से स्वीकार्य किया। आश्रम जीवन अपनाने के बाद गाँधी जी कस्तूरबा को “बा” यानि माँ कहने लगे थे और कस्तूरबा उन्हें “बापू” कहने लगी थीं। कस्तूरबा ने धीरे-धीरे गाँधी जी के नज़रिये से देश-समाज और जीवन को देखना समझना शुरू कर दिया था।

प्रारंभ में कस्तूरबा अछूत माने जाने वाले लोगों को आश्रम के सदस्यों के रूप में स्वीकार करने में कठिनाई महसूस करती रहीं मगर बाद में इसपर भी उन्होंने विजय प्राप्त की। एक अछूत बच्ची को गोद भी लिया और उसका विवाह भी करवाया।

मोहनदास करमचंद गाँधी जो बापू बने, महात्मा गाँधी हुए और भारत के राष्ट्रपिता तक माने गए। उनके जीवन और संघर्षों पर कमोबेश करोड़ों शब्द लेखकों, पत्रकारों और विचारकों ने ज़रूर खर्च किए होंगे मगर कस्तूरबा को लेकर एक दरिद्रता कचोटती है।

कस्तूरबा का पूरा का पूरा व्यक्तित्व और जीवन यही सिद्ध करता है कि एक सामान्य तथा लगभग अशिक्षित लड़की एक महान महापुरुष को विकसित करने की प्रक्रिया में अपने पति की सहायता किस प्रकार कर सकती है।

काश! भारत या विश्व के सिनेमा ने गाँधी को कस्तूरबा के चश्में से देखने की कोशिश की होती, तो शायद एक भारतीय जो रूपहले पर्दे की छवियों से अपनी राय मज़बूत करता है, कस्तूरबा के संघर्ष और त्याग के बारे में सही मूल्यांकन कर पाएगा। कस्तूरबा, गाँधी जी के जीवन की वह परछाई हैं, जिन्होंने अपनी तमाम कमज़ोरियों के साथ मोहन दास के महात्मा बनने की यात्रा को बेहद करीब से देखा है।

नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य ‘गाँधी वाङ्मय’ से लिए गए हैं।

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