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संसद में सिर्फ महिलाएं नहीं, बल्कि नारीवादी महिलाएं जानी चाहिए- कमला भसीन

विश्वस्तर पर अगर भारत की एक्टिव पॉलिटिक्स में महिलाओं की स्थिति की बात करें तो भारत 193 देशों में 141वें स्थान पर है। यह आंकड़ा कई सवाल खड़े करने वाला है। इस मुद्दे पर हमने वुमेन एक्टिविस्ट और प्रख्यात सोशल वर्कर कमला भसीन से बातचीत की।

इति- क्या वजहें हैं कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर देखने को नहीं मिलती है?

कमला भसीन- यह दुनिया का दूसरा देश था, जहां महिला प्राइम मिनिस्टर बनी थी लेकिन आगे चलकर संसद में महिलाओं की भागीदारी 12 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं देख पाए। जबकि पड़ोसी देश अफगानिस्तान की संसद में 20 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं, नेपाल में  29.5 फीसदी महिलाएं हैं।

जब पहला स्टेट बना, जब राज्य बना, जैसे रोम और ग्रीस में बना, वहां महिलाओं और दासों को राजनीति में आने की इजाज़त नहीं थी। इसी वजह से औरतों को वोट के लिए भी लड़ना पड़ा।

मेरा यह मानना है कि संसद में सिर्फ औरतों का ही नहीं बल्कि हर तबके का प्रतिनिधित्व हो, वहां दलित भी हो, आदिवासी भी हो, गरीब भी हो, वहां अमीर भी हो। हमारी संसद में सभी अल्पसंख्यकों की कमी है, ऐसे में देश कभी आगे नहीं बढ़ सकता।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा ही शर्मसार करने वाला है

यह देश महिलाओं को समझता क्या है? इस देश का एक बड़ा नारा, जो हर जगह आपको दिखता है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ। इससे शर्मसार करने वाला नारा दुनिया में क्या हो सकता है। बेटी बचाओ, किससे? अपने मॉं-बाप से, अपने परिवारों से?

यह वह देश है, जहां बेटी को जीने तक नहीं दिया जाता है। आज भी 20 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 वर्ष से पहले कर दी जाती है। आज भी 57 प्रतिशत हमारी लड़कियां कुपोषण का शिकार हैं।

संसद में राजनीतिक लोकतंत्र होने के लिए पहले परिवार को लोकतांत्रिक होना ज़रूरी है

हम नारीवादी सोच वाली औरतों के लिए राजनीति का थोड़ा बड़ा मतलब है। राजनीति का मतलब यह नहीं है कि 5 साल में एक बार जाकर वोट देकर आ जाओ या संसद में बैठ जाओ। राजनीति, पावर की बात है। जहां भी कोई व्यवस्था है, जहां भी कोई संस्था है, जैसे परिवार वहां भी राजनीति है। सत्ता किसके पास है? संसाधन किसे मिलता है, सुविधा किसे मिलती है। जबतक परिवार में राजनीति लोकतांत्रिक नहीं होगी, तब तक संसद में लोकतांत्रिक कैसे होगी?

अगर मैं परिवार में औरत हूं और मुझे परिवार में कहा गया कि मैं पराया धन हूं, मेरा कन्यादान होगा, जिससे मेरी शादी होगी उसे मैं पति कहूंगी। पति का मतलब वो मेरे मालिक है, अगर यह मेरी सोच है तो क्या मैं संसद में पहुंचकर सब पुरुषों के साथ खड़ी हो पाउंगी?

एक तरफ हमारा संविधान है जिसे हमने किताब में सीमित करके रख दिया, तो दूसरी तरफ हमारी परंपराएं हैं।

मेरा मानना है कि लोकतांत्रिक राजनीति परिवारों से शुरू करनी होगी, स्कूलों से शुरू करनी होगी, हर पंचायत से शुरू करनी होगी। तब हम दलितों को, अल्पसंख्यकों को, आदिवासियों को, महिलाओं को बराबर मानेंगे। जब दिल में धर्म नहीं, संविधान होगा।

इति- मोदी सरकार के पास बहुमत होने के बावजूद महिला रिज़र्वेशन बिल पास नहीं होने की क्या वजह मानती हैं आप?

कमला भसीन- कॉंग्रेस या बीजेपी महिला आरक्षण नहीं लेकर नहीं आ पाई, इसका मतलब यह है कि उनके अंदर का पुरुष तंत्र अभी ज़िंदा पड़ा है। कहने की बात अलग है, करने की बात अलग है, वरना इतनी बड़ी बहुमत वाली पार्टी आसानी से यह बिल ला सकती थी। जो नंबर दो की पार्टी है कॉंग्रेस, उसने भी कहा है कि हम इसके हक में है, तो उसने भी पांच साल निकाल दिए मगर कहां आया बिल? इसमें सोचने की ज़रूरत ही नहीं, नहीं चाहते थे इसलिए नहीं लाए।

महिलाओं को एकजुट होने की ज़रूरत है

फोटो सोर्स- कमला भसीन फेसबुक वॉल

इसके लिए हम महिलाओं को एकजुट होना पड़ेगा लेकिन सवाल यह है कि क्या हम महिलाएं एक हैं? क्या हम महिलाएं जातीयों में, पार्टियों में नहीं बंटी हुई हैं। कौन सी महिला है, जो अपनी पार्टी के खिलाफ जाकर नारीवादी बातें कर सकती है? कौन सी महिला है, अगर उसकी पार्टी का नेता #Metoo में पकड़ा गया हो, तो उस महिला ने कहा हो कि मैं इस पार्टी की अहम नेता हूं, इस व्यक्ति को पार्टी से निकाला जाए, हमने तो नहीं सुना।

हमेशा महिलाओं का हक पीछे रह जाता है, पार्टी का हित आगे हो जाता है, धर्म का हित आगे हो जाता है, परंपराओं की हित आगे हो जाता है।

इसलिए मैं हमेशा से कहती हूं कि सिर्फ महिला संसद में आने से चीज़ें बेहतर नहीं होंगी। मैं चाहती हूं कि अधिक नारीवादी महिलाएं संसद में पहुंचे। नारीवादी महिला स्त्री पुरुष समानता की बात करेगी, नारीवादी महिला कास्ट के चक्कर में पीछे नहीं हटेगी। मैं नारीवादी महिला ही नहीं मैं नारीवादी पुरुष भी चाहती हूं, क्योंकि यह जो सोच है कोई जिस्मानी सोच नहीं है। नारीवाद से हमारा मतलब है, “समानता और सिर्फ समानता”।

इति- चुनाव प्रचार में या पार्टी के अन्य कार्यों में महिलाओं की भागीदारी बड़ी संख्या में होती है लेकिन चुनाव में गिनी चुनी महिलाएं ही उतरती हैं, यह स्थिति लेफ्ट पार्टियों में भी है। इसकी क्या वजह है?

कमला भसीन- वामपंथी राजनीति में भी महिलावाद की कितनी बात हुई है? वुमेन राइट की कितनी बात हुई है? 30-35 सालों से ही इनकी वुमेन फ्रंट ने आवाज़ उठानी शुरू की है। पितृसत्ता सिर्फ राइट विंग में नहीं लेफ्ट विंग में भी है।

इन सभी पार्टियों में महिलाएं काडर के लेवल पर एक्टिव हैं मगर लीडरशीप में कितनी हैं? सीपीआई, सीपीएम की लीडरशीप में कितनी महिलाएं हैं?

साड़ी में एक महिला बैठी है, वह मेरे लिए काफी नहीं है। चाहे वह साड़ी में हो, पतलून में हो, समानता की बात करे। चाहे वह तिलक लगाकर बैठे या टोपी पहनकर वो समानता की बात करे। वह संविधान के मूल्यों की बात करे। इस दिशा में लेफ्ट को भी अभी बहुत काम करना है।

फोटो सोर्स- कमला भसीन फेसबुक पेज

इति- राजनीति में नेपोटिज़्म और महिलाओं की स्थिति पर आपकी क्या राय है?

कमला भसीन- मैं फिर कहूंगी कि राजनीति में भी वही इंसान है, जो बेटा चाहता है, बेटी चाहता ही नहीं। फिर उसका कन्यादान चाहता है। मध्यप्रदेश में तो कन्यादान योजना है। मतलब आप शिक्षा दान योजना नहीं चला रहे हो, आप नौकरी दान योजना नहीं चला रहे, बेटी के लिए संपत्ति दान योजना नहीं चला रहे हैं। कॉंग्रेस भी सत्ता में आई तो वह भी कन्यादान योजना को आगे ले जा रही है।

जीते हुए सांसद, सरकार संविधान के मूल्यों को नहीं समझते। बेटी कोई चीज़ है क्या कि उसका दान दोगे? दान होने से पहले वह अपने प्रेजेंट मालिक यानि पिता का नाम लेती है और दान होने के बाद वह अपने पति का नाम लेती है। यह तो परिस्थिति है फिर इस बात पर परेशान होना कि एक औरत, जो आरक्षण की वजह से मुखिया बनकर बैठी है वो घूंघट ओढे बैठेगी और उसका पति सत्ता चालएगा तो यह बेवकूफी है।

मेरा तो मानना है कि इस संविधान में पति शब्द को ही गैरकानूनी घोषित कर देना चाहिए। पति का मतलब मालिक और भारत के संविधान में मेरा कोई मालिक नहीं हो सकता, जीवनसाथी हो सकता है।

इति- इन दिनों जब सपना चौधरी के राजनीति में आने की खबर आई तो सबने उनका काफी मज़ाक बनाया, प्रियंका गॉंधी, सोनिया गॉंधी, स्मृति ईरानी, वसुंधरा राजे इन सभी को महिला होने की वजह से कई तरह के कमेंट्स का सामना करना पड़ता है। क्या हमारा समाज राजनीति में महिला उम्मीदवारों को एक्सेप्ट करना ही नहीं चाहता है?

कमला भसीन- अगर कोई डांसर है, एक्टर है, उसके ट्विटर पर 10 लाख फॉलोवर्स हैं, बस इसके बल पर उसे राजनीति में लाया जाए, मैं इसपर भी सवाल उठाती हूं।

उसका क्या रिश्ता है राजनीति से। कल तक उसका राजनीति से कोई संबंध नहीं था मगर आप बस इस आधार पर उसे राजनीति में ले आएं कि उसके फॉलोवर्स हैं। जबकि वह वर्कर, वह एक्टिविस्ट जो 10 साल से धक्के खा रही है आपकी पार्टी में, उसे आज भी नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।

राजनीतिक पार्टियां इस आधार पर औरतों को लाएंगी कि उनका चेहरा कैसा है, वह हेमा मालिनी है, उसको लोग जानते हैं। अरे, उसको लोग एक्टर के तौर पर जानते हैं।

यह बात औरत के बारे में हो या क्रिकेटर के बारे में इनको बस इसलिए लाया जाता है कि इनका चेहरा जाना पहचाना है और हमारी जनता बेवकूफ है। वो क्रिकेट में छक्के मार रहा है तो क्या राजनीति में भी मारेगा? इस तरह अचानक किसी को ऊपर ले आना दिखाता है कि पार्टी में कितनी डेमोक्रेसी है।

इति- क्या पार्टियों को महिलाओं के लिए अलग से घोषणापत्र जारी करना चाहिए? अगर हां, तो उस घोषणापत्र में किन ज़रूरी मुद्दों को शामिल किया जाना चाहिए?

कमला भसीन- मुझे यह फर्क नहीं पड़ता कि अलग घोषणापत्र हो या एक ही घोषणापत्र हो। नीयत में समानता होनी चाहिए और नीयत में समानता सिर्फ स्त्री पुरुष में नहीं, जातीय आधार पर भी होनी चाहिए। जो सामान्य घोषणापत्र हो, उसमें भी कोई दिक्कत नहीं है, बस सेलेक्शन में समानता हो, महिलाओं को सीट देने में समानता का नियम दिखाई दे।

अब ममता बनर्जी ने वेस्ट बंगाल में 33% से ज़्यादा सीट देने की बात कही। उड़ीसा में बीजेडी ने भी महिलाओं को अलग से सीट देने की बात कही है। यह इतना बड़ा कदम है और मैं यह उम्मीद करती हूं कि यह कदम बाकि पार्टियों को भी प्रभावित करेगा और संसद को भी प्रभावित करेगा।

इति- आपका आदिवासी महिलाओं के साथ भी काम रहा है। आपको लगता है कि राजनीतिक पार्टियों द्वारा आज भी आदिवासियों के मुद्दे को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है?

कमला भसीन- अगर हमारे देश में एक प्रतिशत लोग 60 प्रतिशत संसाधन पर बैठे हैं तो आदिवासी दलित वे हैं, जिनके संसाधन अमीरों के पास धड़ल्ले से पहुंचाए जा रहे हैं और इनको रोटी के लाले पड़े हैं।

इनको राजनीति में तब तक नहीं लाया जा सकता है, जब तक इनके पास खाने के लिए ना हो, इनके लिए शिक्षा ना हो। अभी पहले इस दिशा में काम करने की ज़रूरत है, उनको भी एकजुट होने की ज़रूरत है।

यहां प्रेशर कुकर वाली पॉलीटिक्स अपनानी पड़ेगी। प्रेशर कुकर में हम क्या करते हैं, दबाव ऊपर से भी लाना पड़ता है, दबाव नीचे से भी लाना पड़ता है। तो नीचे से जब आग जलेगी, औरतों की शक्ति की आग, आदिवासियों की शक्ति की आग, अल्पसंख्यकों की शक्ति की आग और ऊपर से संविधान की आग लगेगी, तब जाकर प्रेशर कुकर में कुछ ऐसा पकेगा, जो हर नागरिक को अधिकार से, समानता दे।

इति- पार्टियों में महिलाओं के लिए अलग से विंग क्या महिला को साइड करने के लिए बनाए जाते हैं?

कमला भसीन- निर्भर करता है कि महिला विंग का इस्तेमाल किस तरह किया जा रहा है। कॉंग्रेस की महिला विंग या बीजेपी की महिला विंग की ज़िम्मेदारी है कि महिलाओं का एजेंडा पूरे टाइम एक्टिव रहे पर इसका मतलब यह नहीं कि पूरी पार्टी इसको भूल जाए।

इन विंग का मतलब है कि पूरी पार्टी को यह नहीं भूलने दिया जाए कि महिलाओं के मुद्दे हैं, इस बारे में उनको याद दिलाते रहा जाए। महिला विंग होना कोई गलत चीज़ नहीं है, वो इंट्रीग्रेटेड होनी चाहिए, वो मेन स्ट्रीम का हिस्सा होनी चाहिए। इन महिला विंग का काम होना चाहिए अधिक-से-अधिक महिला को लीडर बनाकर लाना, उनको तजुर्बा देना कि लीडर कैसे बनती हैं। उनको हौसला देना और पार्टी की मेन स्ट्रीम में लाना। अगर विंग बनाकर सिर्फ पीछे ढकेल रहे हैं, वह गलत है लेकिन विंग बनाकर मेन स्ट्रीम में भी तो ला सकते हैं।

इति- महिला जब बिना सिंदूर लगाकर वोट मांगने जाती है, तो उनसे सवाल किया जाता है कि आप भारत से हैं या नहीं? महिला कैंडिडेट को लेकर वोटर्स में जो स्टीरियोटाइप है, वह कैसे टूटेगा?

कमला भसीन- मैं बार-बार परिवार पर आ जाती हूं, जब घर की बहू को बेटी जैसा जीना अलाउड होगा, बेटियों को बेटों जैसी आज़ादी होगी, तभी इस तरह के स्टीरियोटाइप टूटेंगे।

हम देखते हैं कि जिन महिलाओं ने कभी सिर नहीं ढके, राजनीति में घुसते ही सिर ढकने लग जाती हैं। यहां आकर आप हमें आज़ादी सिखाओ, यहां आकर आप हमें घुंघट सिखा रही हैं, सिंदूर सिखा रही हैं।

बांग्लादेश में जो दो महिलाएं प्राइम मिनिस्टर बनी, उनमें से एक बड़े फौजी की बीवी थी, जिन्होंने कभी सिर नहीं ढका। जिस दिन पॉलीटिक्स में आईं वह अपना सिर ढकने लगी। दूसरी शेख हसीना, जिन्होंने कभी सिर नहीं ढका था, पॉलिटिक्स में आई सिर ढकने लगी। अगर वे मानती हैं कि ये देश हमें ऐसे कबूल करेगा तो अगर आप देश नहीं बदलोगी तो कौन बदलेगा?

जब राजीव गांधी की निर्मम हत्या हुई तो मेरे मन में एक बात आई कि राहुल और प्रियंका देश के नैशनल टेलीविज़न पर मिलकर उनका अंतिम संस्कार कर दें तो देश को कितना बड़ा संदेश जाएगा। मगर ऐसा नहीं हुआ।

ऐसे परिवार जिन्होंने धर्म जाति के बाहर शादी की है, ऐसे परिवार अगर पितृसत्तामक समाज को खुश करने के लिए समानतावादी सोच को पीछे ढकेलते रहेंगे, तो बदलेगा कौन? वह पितृसत्ता अपना लेते हैं वोट के लिए, जाति सत्ता अपना लेते हैं वोट के लिए, औरत को फिर पीछे लाकर खड़ा कर देते हैं, वोट के लिए।

इति- एक आखिरी सवाल, आपके हिसाब से एक लीडर और पॉलीटिशियन में क्या फर्क है?

कमला भसीन- गांधी लीडर थे पॉलीटिशियन नहीं थे, न्यूजीलैंड की प्राइम मीनिस्टर लीडर है, पॉलीटिशियन नहीं हैं। हर पॉलीटिशियन को लीडर होना चाहिए, कोई भी पॉलीटीशियन पावर हथियाने वाला नहीं होना चाहिए। हर पॉलीटियशन को गांधी जैसा नेता होना चाहिए, जिसका मूल्य सत्य हो, अंतिम व्यक्ति उसका मूल्य हो, क्योंकि राजनेता कसम तो संविधान पर हाथ रखकर लेते हैं, मनुस्मृति पर हाथ रखकर तो नहीं लेते हैं।

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