देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा भ्रष्टाचार है, जिसमें सरकारी कर्मचारियों से लेकर अधिकारियों तक बड़े पैमाने में संलिप्त होते हैं। जिसका नकारात्मक असर हमारी अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है।
भ्रष्टाचार की बीमारी ने देश के सिस्टम के पुर्जे़-पुर्जे़ में अपनी जगह बना ली है। यह हमारे देश के विकास को हाशिए पर धकेलने के साथ ही विकास में बाधक बन रही है, जिसके आखिरी चरण में पता चलता है कि देश विनाश की राह पर चल पड़ा है।
सरकारी पद का हो रहा दुरुपयोग
सरकारी तंत्र की खामी है कि सरकारी पद पर बैठे कर्मचारी से लेकर बड़े स्तर के अधिकारी अपने सरकारी पद का दुरुपयोग करते हैं। यह भी देखा गया है कि अधिकारी कागज़ी कार्रवाई में लोगों को उलझाकर भ्रष्टाचार से बचने के विकल्प तलाश लेते हैं।
लोकपाल से भ्रष्टाचार पर अंकुश
सरकार द्वारा लोकपाल समिति की गठन के बाद भ्रष्टाचार में संलिप्त लोगों पर नकेल कसने की उम्मीद जताई जा रही है। किसी भी स्तर के सरकारी-कर्मचारी, बड़े-से-बड़े अधिकारी, यहां तक कि सांसद, मंत्री, प्रधानमंत्री एवं पूर्व प्रधानमंत्री के खिलाफ भी भ्रष्टाचार से जुड़े मसले की शिकायत की जा सकेगी और दोषी व्यक्ति पर कानूनी कार्रवाई भी होगी, जिसके बाद नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा।
लोकपाल के लिए पांच सदस्यों की समिति लेकिन विपक्ष नदारद
लोकपाल के चयन में पांच सदस्यों की समिति होती है, जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा स्पीकर, लोकसभा नेता प्रतिपक्ष, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश और राष्ट्रपति द्वारा कानूनविद शामिल होते हैं। लोकसभा में काँग्रेस औपचारिक रूप से विपक्षी दल नहीं हैं।
चयन समिति में सिर्फ चार सदस्य ही रहे, जिसमें विपक्ष नदारद रहा। मज़बूत पक्ष और विपक्ष स्वस्थ लोकतंत्र का आधार होता है मगर लोकपाल के चयन में विपक्ष का प्रतिनिधित्व ना होना चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता को फीका करता है।
अन्ना का योगदान सदैव स्मरणीय
भ्रष्टाचार के खिलाफ आमजनता की आवाज़ उठाने वाले समाजसेवी अन्ना हज़ारे का योगदान सदैव स्मरणीय रहेगा। यह उनके दृढ़-संकल्पित इरादों का परिणाम है कि काफी जद्दोज़हद के बाद लोकपाल समिति का गठन हुआ और पिनाकी घोष के रूप में भारत को उसका लोकपाल मिला।
इतिहास के पन्नों को टटोलने पर पता चलता है कि लोकपाल विधेयक को कानूनी जामा पहनाने की लड़ाई 1968 से लिखी जा रही थी और 1 जनवरी 2014 को औपचारिक रूप से लोकपाल समिति ने कानूनी आकार लिया।
सीबीआई और अन्य निदेशालयों के होते लोकपाल क्यों?
सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय जैसी जांच एजेंसियों के रहते हुए भी लोकपाल समिति के गठन की आवश्यकता क्यों पड़ी? पिछले कई वर्षों से इन एजेंसियों की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े होते रहे हैं।
ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि क्या लोकपाल समिति की स्वायत्तता और विश्वसनीयता को सरकार और सतारूढ़ राजनीतिक दलों द्वारा हस्तक्षेप तो नहीं किया जाएगा?
लोकपाल गठन में देरी क्यों?
जनवरी 2014 से लोकपाल समिति को कानूनी मान्यता प्राप्त होने के बाद भी लोकपाल के गठन में पांच वर्ष की देरी क्यों? अगर मौजू़दा सरकार भ्रष्टाचार के प्रति गंभीर थी तो यह निर्णय चुनाव के दौरान ही क्यों लिया गया? चुनावी समय में लोकपाल की नियुक्ति सरकार की भ्रष्टाचार के प्रति गंभीरता की पोल खोलती है। चुनाव से पहले लोकपाल की नियुक्ति को बीजेपी की रणनीति का हिस्सा भी कह सकते हैं।
लोकपाल की मांग लंबे समय से चली आ रही है। मैं इस व्यवस्था का स्वागत करता हूं। यह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में कारगर साबित होगा।
समिति के चार न्यायिक एवं चार गैर-न्यायिक सदस्य हैं। प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली चयन समिति ने न्यायिक एवं गैर-न्यायिक सदस्यों के साथ ही लोकपाल का चयन किया है। इसे स्वतंत्रत एवं निष्पक्ष रूप से भ्रष्टाचार के विरूद्ध कार्य करने का अधिकार प्राप्त है।