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“किसानों की कर्ज़माफी अगर खैरात है, तो कॉरपोरेट की ऋण माफी को क्या कहेंगे?”

किसान ऋण माफी

किसान ऋण माफी

खैरात शब्द आजकल राजनीतिक बहसों में बहुत सुनने को मिल रही हैं। लोगों का मानना है कि सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी, बेरोज़गारी भत्ता और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को दी जाने वाली अनेक प्रकार की सुवाधाएं खैरात में दी जाती हैं।

गौरतलब है कि जेजेपी नेता दिग्विजय चौटाला ने अभी हाल में एक राजनीतिक सभा को संबोधित करते हुए कहा कि चाहे काँग्रेस हो या बीजेपी पार्टी, किसानों को खैरात में रुपये देने का दावा कर रहे हैं लेकिन खैरात में देने से देश का भला नहीं होना है।

उन्होंने कहा, “किसान कमेरे वर्ग से ताल्लुक रखता है। यदि किसान का भला करना है तो उनकी फसल को सही दाम दें और उनके कर्जे माफ करें। आज प्रदेश की जनता बीजेपी व काँग्रेस को नकार चुकी है।”

सरकार अपने नागरिकों को एक सम्मानजनक जीवन देने के लिए नहीं है बल्कि सरकार में बैठे लोग हमारे मालिक हैं। वे हमारा शासन करने के लिए हैं। हमारी मूलभूत इच्छाओं और ज़रूरतों को पूरा करना उनका काम नहीं है। सरकार चलाना भी जनता पर एहसान है।

जनता सरकार की सहूलियत के लिए नहीं

यह मानसिकता हम सभी लोगों के दिमाग में घर कर चुकी है, जो परिचायक है उस सोच की जहां जनता यह भूल चुकी है कि देश, सरकार, सरकारी मशीनरी और नौकरशाही यह सब जनता की सुविधा के लिए है, ना कि जनता सरकार की सहूलियत के लिए है।

लोग अपने बेहतर भविष्य और कल्याण के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। जब अमीर या गरीब दुकान से सामान खरीदते हैं, तो सरकार द्वारा दुकानदार को दी जाने वाली राशि में ही टैक्स अदा करते हैं।

यह टैक्स इस भरोसे के साथ दिया जाता है कि सरकार हमारे सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार की रक्षा करेगी, जिसका अर्थ है जीवनयापन करने के उन सारे साधनों का मौजूद होना।

नागरिकों का खर्च सरकार वहन करे

हर मनुष्य को अपने व्यक्तित्व के सभी पहलू, ताकत और कमजो़री पहचानने का पूरा अवसर मिलना चाहिए। यह सरकार के जिम्मे आता है कि हर नागरिक के खाने-पीने, रहने, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार तक का खर्च सरकार वहन करे।

फोटो साभार: Getty Images

जिस व्यक्ति के पास दो वक्त के खाने की व्यवस्था ना हो, क्या उसे मरने के लिए सड़कों पर छोड़ देना चाहिए या भीख मांगने पर मजबूर करने वाली एक ज़िल्लत भरी ज़िंदगी जीना ही उसे नसीब होना चाहिए।

खैरात शब्द से इतनी दोस्ती क्यों?

हम अपने आस-पास, सड़क‌ और फुटपाथ पर कई बुजुर्गों, बच्चों, महिलाओं और विशेष योग्यजनों को देखते हैं, जो कुछ कमाने और काम करने की काबिलियत नहीं रखते।

क्या इन लोगों को जीवन जीने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए? क्या सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि इन लोगों का खर्च वहन करे ताकि वह भी सम्मानजनक जीवन जी सकें। अगर सरकार यह खर्च वहन नहीं कर सकती तो सवाल यह है कि आखिर ऐसी सरकार है ही क्यों?

जब भी कोई राजनीतिक दल या सरकार मिनिमम सोशल सिक्योरिटी स्कीम की पेशकश करती है और सबसे निचले तबके को मदद पहुंचाने की बात करती है, तो सभी लोगों को “खैरात” शब्द बहुत जल्दी याद आ जाता है।

अर्थव्यवस्था की चिंता नहीं

किसी को अर्थव्यवस्था की चिंता तभी होती है, जब सरकार बड़े कॉरपोरेट और पूंजीपतियों के हज़ारों-करोड़ों के लोन माफ कर देती है। अर्थव्यवस्था लचर हो जाती है और बैंकों के दिवालिया होने की नौबत आ जाती है, जो यह बात सिद्ध करती है कि हमें अपने देश के गरीबों से कोई सरोकार और अपनापन नहीं है।

गरीबों और किसानों को सशक्त बनाने वाले हर कदम पर हम सौ रोड़े अटकाते हैं। मैं पूछती हूं किसानों की कर्ज़माफी अगर खैरात है, तो कॉरपोरेट की ऋण माफी को क्या कहेंगे? कॉरपोरेट की कर्ज़माफी पर तो हम कोई सवाल ही नहीं उठाते हैं।

लोग बन रहे प्रो-कॉरपोरेट

यह बात किसानों की स्थिति पर भी लागू होती है। जब किसानों की कर्ज़माफी की बात आती है, तो पूरा मध्यमवर्ग एक स्वर में त्राहि-त्राहि करने लगता है लेकिन जब किसी अंबानी का हज़ार-करोड़ रुपए का कर्ज़ सरकार द्वारा माफ कर दिया जाता है तो किसी को आपत्ति नहीं होती।

प्रतीकात्मक तस्वीर: फोटो साभार: Getty Images

हम खुशी-खुशी प्रो-कॉरपोरेट बनते जा रहे हैं। अब तो यही माना जाए कि सरकार सिर्फ उसकी होती है जिसके पास पूंजी हो। किसी गरीब की नहीं जो उसके हक में काम करे, उसे सशक्त करे।

सभी को मिले सरकारी सुविधाएं

जो लोग काम करने के काबिल हैं, उन्हें रोज़गार दिया जाना चाहिए और जो तबका काम करने के काबिल ना हो उन्हें भी सरकारी सुविधाएं मिलनी चाहिए, जिसके उनका जीवन आरामदायक और बेहतर बन सके।

सरकार आपके लिए है। उसके हर रुपए-पैसे पर देश के नागरिकों का बराबर अधिकार है। जिन्हें लगता है कि सरकार आर्थिक रूप से पिछड़े  तबके की मदद करके खैरात बांट रही है, वे सिर्फ भक्त ही हो सकते हैं।

कॉरपोरेट आपकी जेब से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से पैसा चूसता रहता है। हम पूंजीवाद से शोषित हैं और सरकार के पल्ले झाड़ लेने से आए दिन भूख के कारण इस ज़ालिम दुनिया से विदा लेते हैं। हमें किस तरफ खड़ा होना चाहिए यह हमें ही तय करना है।

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