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तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें फलां-फलां वादे दूंगा

Woman in political rally

कभी एक भारतीय नेता ने आह्वान किया था कि तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। वह दौर अंग्रेज़ों का था, हम गुलाम थे। आज आज़ादी मिल चुकी है। आज कई नेता आह्वान नहीं बल्कि लालच दे रहे हैं, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हे राम मंदिर दूंगा। या फिर तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें न्याय दूंगा (रु 72000) वगैरह वगैरह।

कॉंग्रेसी घोषणापत्र आने के बाद सबकी निगाहें थी भाजपा के घोषणापत्र पर। भाजपा के पिटारे से आखिरकार वही निकला, राम मंदिर और धारा 370।

कभी-कभी लगता है कि देश के नेता हमें बेवकूफ नहीं बना रहे हैं बल्कि हम खुद ही अपने निजी और तुच्छ स्वार्थों की वजहों से बार-बार हर बार बेवकूफ बन रहे हैं। आखिर हम हमेशा पार्टियों से ये लोकलुभावन, मुफ्त वाली घोषणाओं की अपेक्षा क्यों करते हैं?

कभी हम 15 लाख के चक्कर में वोट डालते हैं, कभी कर्ज़माफी के लिए। इन सबसे जनता का कितना भला हुआ है और कितना नेताओं का यह तो सबको पता ही है।

आज दुनिया के शीर्ष दस सबसे प्रदूषित शहरों में आधे से ज़्यादा अपने देश के शहर हैं। क्या किसी भी राजनीतिक पार्टी ने अपनी घोषणापत्र में इसे वरीयता दी है? राजधानी दिल्ली की हालत भी बद्तर दो चुकी है।

देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री हर ज़िले में गायों के लिए गौशालाएं बनवाने की बात कह सकता है लेकिन हर ज़िले में एक नया पुस्तकालय बनवाने की बात सोच भी नहीं सकता। उसपर से हम भी इन लोकलुभावन वादों से ही खुश होते हैं। हम उन वादों से ही खुश होते हैं, जो हमें खुद फायदा पहुंचाते हैं। हमारी जाति और हमारे धर्म को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करें। हम देश को ऊपर उठाने के लिए अपने निजी हितों की बलि देना ही नहीं चाहते हैं।

सत्याग्रह न्यूज़ पोर्टल अपने एक लेख में दोनों घोषणापत्रों की तुलना करते हुए लिखता है

कॉंग्रेस और भाजपा दोनों के घोषणापत्र लोकलुभावन घोषणाओं से भरे पड़े हैं और दोनों आर्थिक सुधार या राजकोषीय हालात पर कोई गंभीर बात करते नहीं दिखते। आर्थिक जानकार कहते हैं कि चुनावी आरोप-प्रत्यारोप की बात अपनी जगह है लेकिन लोक-लुभावनवाद आर्थिक नीतियों में पुरजोर तरीके से अपनी वापसी कर चुका है। सामाजिक सुरक्षा और जीवन स्तर में सुधार के लिहाज़ से कॉंग्रेस और भाजपा दोनों के घोषणापत्र में कुछ अच्छी बातें भी हैं पर इस मोर्चे पर बहुत कुछ आने वाली सरकार की नीति और नीयत पर निर्भर करता है। लेकिन इन सबके साथ अर्थशास्त्री यह चिंता भी जताते हैं कि अगर इन योजनाओं को ठोस मकसद के बजाय सिर्फ सियासी लाभ के लिए इस्तेमाल किया गया तो आर्थिक सुधार बेलगाम हो सकते हैं और राजकोषीय हालत भी।

यहां प्रश्न यह भी है चुनाव आयोग ने घोषणापत्रों को सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर क्यों बचा रखा है। सरकार बनने पर उनको पूरा करने की जवाबदेही पार्टियों की क्यों नहीं बना रखी है? अंत में मैं देश की जनता से और खासतौर पर युवाओं से कहना चाहूंगा कि इन सभी बातों पर विचार कर और जागरूक बनकर देश के नेताओं का चुनाव करें, ना कि इनके जुमलेबाज़ी से।

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