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“बेहोश पत्रकार की मदद करना फैंस के लिए गौरव की बात है”

राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी

राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी

इन दिनों एक तस्वीर तेज़ी से वायरल हो रही है जिसमें केरल में घायल पत्रकार को संभालते राहुल गाँधी और उनके जूते के साथ कुछ सामान अपने हाथ में उठाये प्रियंका गाँधी नज़र आ रही हैं।

मैंने वह खबर भी पढ़ी है जब भाषण के दौरान मंच पर किसी के बेहोश होकर गिर जाने के बावजूद मोदी भाषण नहीं रोकते और अपने जुमलों की तान छेड़ना जारी रखते हैं।

पुलवामा जैसे दुखदायी घटना के बाद भी अपने सभाओं में ‘मेरा बूथ सबसे मज़बूत’ करने वाला शख्स क्या जाने कि जिस घर मे कोई मरता है, उस घर से वोट नहीं, उनका दुःख मांगना चाहिए। सैनिकों के साथ दिवाली मना कर फोटो खिंचवाने वाला क्या जाने कि जवानों के घर में इस बार की होली किस तबियत से मनाई गई होगी। पत्रकारों पर छापा मरवाने वाले क्या जाने कि बेहोश पत्रकार की मदद करना फैंस के लिए कितने गौरव की बात है।

आप पूछ सकतें हैं कि मैं प्रधानमंत्री मोदी पर सीधा-सीधा क्यों बोल रहा हूं। वह इसलिए कि सारी दुनिया राहुल-प्रियंका की तुलना मोदी से करती है। मैं ऐसे में संस्कारों और शिक्षा के पलरों में भी इन्हीं दोनों को ही रखूंगा। आप माने या ना माने, शिक्षा व्यक्तित्व स्तर और आपकी भाषा पर गहरा प्रभाव डालती है और यह मैंने मोदी को लगातार सुनते रहने के बाद प्रियंका गाँधी के पिछले भाषणों को सुन कर महसूस किया है।

इंदिरा गाँधी। फोटो साभार: Twitter

भारत के इतिहास में अहंकार और गुरुर में डूबी शायद ही कोई राजनीतिक पार्टी ऐसी होगी जिसने अपने खिलाफ बोलने वालों पर इस भयावह तरीके से हमले करवाये होंगे। इंदिरा गाँधी का दौर भी गिनवाया जाता है मगर मेरा प्रश्न यह है कि उन्होंने विपक्ष पर दमन किया, हालांकि वह भी गलत था मगर उन्होंने उस दौर में आम नागरिक के घर गुंडे नहीं भेजे।

2014 से पहले जब काँग्रेस की सरकार थी, उस वक्त क्या आपको मनमोहन सिंह या राहुल गाँधी का मज़ाक उड़ाने पर किसी ने चार गालियां दी? अगर नहीं, तो अब मोदी को फेंकू कहने पर गालियां किसके समर्थन पर दी जा रही हैं?

एक साधारण सी बात है, बेरोज़गारी बढ़ा कर इस सरकार ने समाज के विभिन्न तबकों में बेरोज़गार युवाओं और टीवी का इस्तेमाल करते हुए उन युवाओं को गुंडों में परिवर्तित किया हैं, जो अब किसी भी विचार पर सही या गलत का निर्णय ऑन द स्पॉट कर देते हैं।

ज़्यादा समझना हो तो 90 के दशक की कोई भी फिल्म देख लीजिए। कैसे विरोधी के घर पर सत्ताधारी नेता भीड़ भेजता है, उस भीड़ में चंद गुंडे शामिल करता है, अपने मनचाहे परिणाम को अंजाम देता है फिर दोष उस भीड़ पर लगाकर अपना पल्ला झाड़ लेता है।

कई दफा देखा गया है कि आम जनता भी हिन्दुत्व का नारा बुलंद करते हुए समाज में अशांति फैलाते हैं। ऐसे में वे इन घटनाओं को आड़े तिरछे तर्कों से जस्टिफाई करने लगते हैं। अपराध की मारी भी जनता, अपराधी भी जनता और अपराध का बचाव करने वाली भी जनता। मौजूदा वक्त में देश में कुछ ऐसा ही हो रहा है।

मुझसे अक्सर लोग पूछतें हैं, “भाई मोदी कुछ भी करे मगर विकास तो कर ही रहे हैं। मोदी के कार्यकाल में कोई घोटाला नहीं हुआ है। तुम इतने भ्रष्ट काँग्रेस को क्यों चाह रहे हो ?”

मेरा इतना सा ही जवाब है कि विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है मेरे दोस्त। सत्ता सिर्फ इसका गति निर्धारण करती है। मेरे सामने की सड़क 2 के बदले 5 साल में बनें उससे फर्क नहीं पड़ता मगर मैं अपने पड़ोस में धर्म का झंडा उठाने वाला दंगाई नहीं चाहता जो कल को किसी के भी घर आग लगाकर आ जाए।

इंस्पेक्टर सुबोध। फोटो साभार: फेसबुक

अखलाक की मौत पर तर्क देते-देते हाल यह हो गया कि भीड़ ने बुलंदशहर के इंस्पेक्टर सुबोध की हत्या कर दी। बैठ कर सोचिए और इस बात को ध्यान में रखते हुए सोचिए कि विकास की अंधी रफ्तार में किसी को कुचला नहीं जाता। शहर रौशन करने के लिए बस्तियां नहीं जलाई जाती। बाकी इस लोकतंत्र में तो जनता ही मालिक है।

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