25 मार्च को रायपुर की चुनावी रैली में काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने ‘न्यूनतम आय’ देने का वादा कर दिया। उनके इस वादे के बाद आर्थिक और सामाजिक समस्या से जूझते देश के सामने एक नई तरह की बहस खड़ी हो गई।
कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इससे जीडीपी पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और इस योजना का बजट खर्च 3.5 लाख करोड़ रुपए तक जा सकता है। यदि राहुल गाँधी जी अपनी न्यूनतम आय योजना को ज़मीनी स्तर पर प्रभावशाली तरीके से लागू कर सके तो उनके इस प्रयास की तुलना डॉ. भीम राव अंबेडकर के आरक्षण के प्रयास से की जा सकती है।
डॉ. अंबेडकर ने आरक्षण द्वारा सामाजिक बराबरी की तो पहल की लेकिन आर्थिक बराबरी और संसाधनों में बराबरी का प्रयास अभी भी असफल ही है। सामाजिक बराबरी के नाम पर कई सामाजिक दलालों का भी जन्म हुआ, जिन्होंने संसाधनों का केंद्रीकरण किया जिसके कारण बड़े पैमाने पर आर्थिक गैर बराबरी पैदा हुई।
आज के समय में आरक्षण का लाभ लेने के लिए भी कम से कम एक बुनियादी संसाधन तो चाहिए ही जो कि आज भी समाज के एक बड़े हिस्से के पास नहीं है। इसका कारण योजना के लाभ का केंद्रीकरण है।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट की माने तो शायद यही कारण है कि आज आरक्षण का लाभ केवल 4% परिवारों तक सिमट कर रह गया है जबकि राजनीतिक क्षत्र-छाया में सामाजिक दलाल खुद ही आर्थिक गैर-बराबरी को बढ़ाते जा रहे हैं। ऐसे में यदि कोई ऐसी योजना आए जो कि सीधे-सीधे ज़रूरतमंदों तक पहुंचे तो आर्थिक गैर बराबरी को दूर करके आरक्षण को भी विस्तार दिया जा सकता है।
2011 में मनमोहन सिंह जी की सरकार ने सामाजिक, आर्थिक जनगणना कराई थी, जिसकी रिपोर्ट 2015 में प्रकाशित की गई। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 74.5% ग्रामीण परिवारों की मासिक आमदनी 5000 रुपए से भी कम है यानि 2011 सेंसस के अनुसार 13.34 करोड़ परिवारों की मासिक आमदनी 5000 रुपए से भी कम है। इसके साथ ही 56% ग्रामीण लोगों के पास खेती योग्य ज़मीन भी नहीं है और शहरों में 35% आबादी गरीबी रेखा से नीचे का जीवन जी रही है।
वित्त राज्य मंत्री ने संसद में बताया कि मोदी सरकार उद्योगपतियों का 2.72 लाख करोड़ रुपए का कर्ज़ राइट ऑफ कर चुकी है जिसमें से सिर्फ 29 हज़ार करोड़ रुपए ही वापस वसूले गए हैं। यह आंकड़े एक अलग भारत की तस्वीर बयान करते हैं।
भारत में पहले से ही काफी सब्सिडी चल रही है जिसका बोझ पहले से ही देश के करदाताओं पर है। इसे ध्यान में रखते हुए काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी से न्यूनतम आय योजना को लेकर कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए।
किसी भी योजना में राजनीतिक दल खुद से कोई व्यक्तिगत पूंजी नहीं लगाते हैं। पूंजी का मुख्य स्रोत आम लोगों से वसूला गया टैक्स ही होता है। ऐसे में क्या इस योजना से भारत की जनता पर अतिरिक्त टैक्स का बोझ पड़ेगा? यदि नहीं तो वैकल्पिक मॉडल क्या होगा? यदि हां तो कितना टैक्स बढ़ेगा और क्या इससे महंगाई भी बढ़ेगी?
गरीबों की संख्या के आंकड़े जुटाने के लिए उनकी क्या योजना है? क्या ताज़े आकड़ों के लिए कोई नई सामाजिक, आर्थिक जनगणना होगी?आय के आंकड़े जुटाने के लिए क्या योजना होगी? 2011 में आई एन.एस.एस.ओ. की रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 83% लोग असंगठित क्षेत्रों में कार्य करते हैं। सरकार उनकी आमदनी की गणना कैसे करेगी?
समय सीमा अक्सर महत्वपूर्ण होती है। अक्सर देखा जाता है कि नेतागण चुनावी वादे तो कर देते हैं लेकिन योजनाओं को ज़मीन पर लागू करते-करते अगले चुनाव आ जाते हैं और योजना सफल नहीं हो पाती है। ऐसे में योजना कितने समय के लिए होगी और आंकड़े इकट्ठा करने से लेकर योजना को लागू करने में कितना वक्त लगेगा?
भारत में एक ही परिवार में भी अक्सर आय के स्तर में काफी अंतर होता है। ऐसे में क्या इस योजना का लाभ उन्हें भी मिल पाएगा? भारत में किसी भी जन केन्द्रित योजना को ज़मीन पर लागू करने में विफलता की मुख्य वजह भ्रष्टाचार होती है जैसे कि किसानों की कर्ज़ माफी के बीच भी ऐसी खबरें मिल जाती हैं कि मंडी के दलालों के कारण किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पा रहे हैं। ऐसे में सरकार ऐसी क्या व्यवस्था बनाएगी जिससे योजना का लाभ बिना पक्षपात के वास्तविक ज़रूरतमंदों तक पहुंच सके?
7वें वेतन आयोग के बाद सरकारी कर्मचारी के लिए न्यूनतम आय 18000 हज़ार रुपए निर्धारित की गई है यानि रोज़ के 600 रुपए। ऐसे में सरकार न्यूनतम आमदनी कैसे निर्धारित करेगी?
नोट: लेखक भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद में रिसर्च फेलो हैं।