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धर्म और वोट की राजनीति आखिर कब तक?

योगी आदित्यनाथ और मायावती

योगी आदित्यनाथ और मायावती

हम पहले चरण के चुनाव प्रचार के आखिरी दिन का ज़िक्र कर रहे हैं, जहां उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन सपा, बसपा और रालोद की मेरठ के देवबंद में चुनावी रैली में मयावती ने मुसलमानों को काँग्रेस या किसी अन्य दल को अपना वोट नहीं देने की बात कही।

मायावती का यह भी कहना था कि बीजेपी और काँग्रेस चाहती है मुस्लिम वोटों में बंटवारा हो जाए। इस दौरान मायावती ने मुस्लिमों से केवल गठबंधन को वोट करने की अपील की थी। उस पर पलटवार करते हुए भाजपा के स्टार प्रचारक और सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी कहां थमने वाले थे।

उन्होंने मायावती के बयान पर पलटवार करते हुए कहा, “महागठबंधन के पास अली हैं तो हमलोगों के पास बजरंगबली हैं। योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि अगर काँग्रेस, सपा और बसपा को अली पर विश्वास है तो हमें भी बजरंग बली पर विश्वास है।

गौरतलब है कि आचार संहिता उल्लंघन मामले में चुनाव आयोग ने योगी आदित्यनाथ और मायवती को नोटिस जारी करते हुए जवाब मांगा है।

ऐसे में क्या यह समझा जाए कि विकास, रोज़गार और भ्रष्टाचार के मुद्दे से हटकर अब भी राजनीतिक पार्टियां वोट के लिए धर्म की राजनीति करना नहीं छोड़ सकती हैं? देखने वाली बात यह होगी कि इसी तरह के बयान 2014 के लोकसभा चुनाव में भी सुनने को मिले थे मगर इसका पूरा लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिला था। क्योंकि 80 में से 71 सीटों पर इनका कब्ज़ा रहा था।

अब देखना होगा कि इस बार अली के नाम लेने वालों को जनता अपना आशीर्वाद देगी या बजरंगबली का आशीर्वाद मिलेगा। हलांकि इस बयान पर चुनाव आयोग ने संज्ञान लिया है। मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने स्थानीय प्रशासन से इस संबंध में रिपोर्ट भी मांगी है। आखिर क्यों उत्तर प्रदेश में किसी भी स्तर का चुनाव ‘ध्रुवीकरण’ की राजनीति में तब्दील हो जाता है? उत्तर प्रदेश के लिए यह कोइ नई बात नहीं है।

जनसंख्या और धर्म

उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 19.3% मुस्लिम आबादी है, वहीं, हिंदुओं की जनसंख्या लगभग 79.73% है। ऐसे में धर्म के नाम पर राजनीति लाज़मी है। ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम वोट अधिक हैं। शहरों में 32% मुस्लिम वोट हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में यह 16% है।

प्रदेश के उत्तरी क्षेत्रों में मुस्लिम बेल्‍ट की बाहुलता केंद्रित है। ऐसा माना जाता है कि यह वोट बैंक काँग्रेस या सपा के पक्ष में ही रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में इस वोट बैंक का 66% हिस्‍सा सपा और काँग्रेस के खाते में गया। वहीं, 21% हिस्‍सा मायावती की बीएसपी के पास गया।बाकी, अन्‍यों में विभाजित हो गया था। आंकड़े यह भी कहते हैं कि जिन जगहों पर मुस्लिम वोट ज़्यादा हैं, वहां हिंदू वोट बड़े पैमाने पर बीजेपी के ही खाते में गए हैं।

बीएसपी सुप्रीमो मायावती। फोटो साभार: Getty Images

काँग्रेस का मानना है कि मुस्लिम समुदाय का वोट उनका है। ऐसा इसलिए मानती है काँग्रेस क्योंकि भाजपा केवल हिंदूवादी राजनीति के ज़रिये कट्टरपंथी विचारधारा को अपनाती है। दूसरी तरफ सपा भी मुस्लिमों को अपना फिक्सड वोट बैंक मानती है। इससे पीछे दलितों की हितैषी कहलाने वाली पार्टी बसपा भी कहां हटने वाली हैं, उसका भी मानना है कि मुस्लिमों के हक की बात सिर्फ बसपा ही करती आई है।

इसलिए हर चुनाव के आते ही सभी मुस्लिम समुदाय के नाम पर राजनीति शुरू कर देते हैं। इन चीज़ों से भाजपा भी कहां दूर रहने वाली है।अपने संकल्प पत्र में तो तीन तलाक और सिविल कोड के नाम पर कानून बनाने का वादा तक कर दिया है।

हालांकि भाजपा को पिछ्ली विधानसभा के चुनाव में 2014 लोकसभा चुनाव से अधिक मुस्लिम वोट प्राप्त हुआ था। कहीं ना कहीं भाजपा इस वोट बैंक को अपनी तरफ और भी बढ़ाना चाहेगी। इसी को देखते हुए भाजपा का यह भी कहना है कि पिछली विधानसभा चुनाव में मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा को वोट दिया था। उसका उदाहरण भी देखने को मिला है।

मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में भाजपा को अन्य दलों से ज़्यादा वोट मिले थे। अब इसके मायने इस लोकसभा में क्या होंगे, यह तो 23 मई को चुनाव परिणाम आने के बाद ही बताया जा सकता है। बहरहाल, चुनावों में नेताओं के बीच जुबानी जंग जारी रहने वाली है। इस पर चुनाव आयोग भी लगाम लगाने में सफल साबित होता नहीं दिख रहा है।

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