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क्या राजनीति में आगे बढ़ने की सीढ़ी बनकर रह गया है आरक्षण?

आरक्षण

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आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जिसकी नींव अब राजनीति का महल बनाती जा रही है, जिसे ना तो तोड़ा जा सकता है और ना ही बदला जा सकता है। क्या आरक्षण राजनीति की विरासत बनक रह गई है या अपने उस विशेष उद्देश्य को प्राप्त कर पाई है, जिसे ध्यान में रख कर उसके बीज बोए गए थे? क्या ये बीज एक फलदार पेड़ का रूप धारण कर पाए हैं या सिर्फ एक शो प्लांट बन कर रह गए हैं?

वैसे एक इल्ज़ाम तो यह भी है कि रेस के घोड़े की रफ्तार कम करने के लिए आरक्षण रुपी बेड़ियों का सहारा लिया गया। भारत में आरक्षण का उद्देश्य सत्ता, शिक्षा और नौकरी के मामलों में सभी वर्गों को समान भागीदारी उपलब्ध कराना है, जिसके तहत अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया। संविधान के 15वें16वें अनुच्छेद के तहत पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

1942 में डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने एससी, एसटी की उन्नति के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की, जिसके बाद वह 1947 में संविधान सभा के अध्यक्ष भी बने। 13 दिसम्बर 1946 को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा की बैठक में अल्पसंख्यक और अन्य पिछड़े वर्गों के हितों के संरक्षण में एक प्रस्ताव रखा, जिसका अधिकतर सदस्यों ने समर्थन भी किया।

इसके बाद संविधान ने सरकारी शिक्षण संस्थानों की खाली सीटों तथा सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों की नौकरियों में एससी/एसटी के लिए 15% और 7.5% आरक्षण तय किया, जो 10 वर्षों के लिए था और उसके बाद इसके हालात की समीक्षा करने की बात कही गई।

आरक्षण पर मतभेद

देश में आरक्षण को लेकर दो मत हैं। पहला वह आरक्षण जिसके हिमायती अम्बेडकर हैं, जिसका उद्देश्य जातिवाद को समाज से खत्म करना था और पिछड़ी जातियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़कर इनके विकास को बढ़ावा देना था। साथ ही इनका यह भी कहना था कि अगर पिछड़ी जातियां आगे बढ़ जाती हैं और अपने आप को काबिल सिद्ध कर लेती हैं तो इनका आरक्षण हटा दिया जाएगा।

किसी हद तक यह सोच सही भी थी। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के पास उस वक्त किसी तरह की कोई आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक संपत्ति नहीं थी, इसलिए आरक्षण उनके लिए ज़रूरी था।

वहीं, आरक्षण को लेकर जो दूसरा मत है, वह है मंडलवादी आरक्षण। यह आरक्षण प्रणाली अम्बेडकरवादी आरक्षण से पूरी तरह अलग है। मंडलवादी आरक्षण जातिवाद को हटाने की बजाए जाति के प्रतिनिधित्व की बात करता है। हालांकि, शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में सीटें विभिन्न मापदंड के आधार पर आरक्षित होती हैं।

फोटो साभार: Getty Images

विशिष्ट समूह के सदस्यों के लिए सभी संभावित पदों को एक अनुपात में रखते हुए कोटा पद्धति को स्थापित किया जाता है। जो इन समुदाय के तहत नहीं आते हैं वे केवल शेष पदों के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, जबकि आरक्षित समुदाय के सदस्य सभी संबंधित पदों (आरक्षित और सार्वजनिक) के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं।

भारत में कई तरह के आरक्षण लागू होते हैं, जिनमें से तीन प्रमुख हैं, एससी/एसटी, ओबीसी और महिलाओं के लिए आरक्षण। साथ ही जाति के आधार पर, लिंग के आधार पर, धर्म के आधार पर, तथा आदिवासियों के लिए भी इसे अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया है।

वहीं, सरकार ने शिक्षण संस्थानों एवं नौकरियों में इसका एक अलग आधार निर्धारित किया गया है। इसके अलावा स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार, शारीरिक रूप से विकलांग, खेल हस्तियों, एनआरआई आदि के लिए भी कई जगहों पर अलग-अलग पैमाने के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था है।

आरक्षण के समर्थन में तर्क

आरक्षण के समर्थन और विरोध में अनेक तर्क दिए जाते हैं। एक पक्ष की ओर से दिए गए तर्कों को दूसरे पक्ष द्वारा खंडित किया जाता है। आरक्षण समर्थक यह तर्क देते हैं कि सदियों तक कुछ जातियों को वंचित रखा गया है, उस खाई को भरने के लिए आरक्षण ज़रूरी है।

आरक्षण भारत में एक राजनीतिक आवश्यकता है क्योंकि मतदान करने वाली विशाल जनसंख्या का प्रभावशाली वर्ग आरक्षण को स्वयं के लिए लाभ के रूप में देखता है। सभी सरकारें आरक्षण को बनाए रखने और बढ़ाने का समर्थन करती है।

आरक्षण कानूनी और बाध्यकारी है। गुर्जर आंदोलनों (राजस्थान, 2007-2008) ने दिखाया कि भारत में शांति स्थापना के लिए आरक्षण का बढ़ता जाना आवश्यक है।

आरक्षण के विरोध में तर्क

वहीं, आरक्षण विरोधियों का तर्क है कि जाति आधारित आरक्षण संविधान द्वारा परिकल्पित सामाजिक विचार के एक कारक के रूप में समाज में जाति की भावना को कमज़ोर करने की बजाए उसे बनाए रखता है।

आरक्षण संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति का एक साधन है। कोटा आवंटन भेदभाव का एक रूप है, जो कि समानता के अधिकार के विपरीत है।

आरक्षण के कारण अधिक योग्य उम्मीदवार भी बाहर हो जाते हैं और कुछ लोग कम अंक लाकर नौकरी या शिक्षण संस्थान में प्रवेश पा लेते हैं। इससे गुणवत्ता, काबीलियत, कुशलता की साफ कमी देखने को मिल रही है। प्रतिभाशाली अभ्यर्थी इस व्यवस्था के आगे अपने आप को मजबूर होते देख निराशा में जा रहे हैं।

इसके अलावा, ज़रूरतमंद को पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है। आरक्षित वर्ग में ही क्रिमी लेयर तैयार हो जाते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी इसका भरपूर लाभ उठाते हैं। आरक्षण समाज को बांटने का काम कर रहा है। आरक्षण की व्यवस्था में ऊंची जाति वालों को संपन्न मान लिया जाता है, चाहे इस वर्ग में कितनी भी बेरोज़गारी और गरीबी क्यों न हो।

आरक्षण को लेकर क्या है नज़रिया?

आरक्षण को लागू करना और इसे बनाए रखना कितना सही या गलत है, इसमें मतभेद हो सकते हैं। हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि जिस उद्देश्य से आरक्षण शुरु किया गया था वह उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया है। कुछ विशेष वर्गों को तो निश्चित रूप से लाभ मिला है और उनकी जीवन शैली का नवनिर्माण हुआ है लेकिन इसका जिस प्रकार राजनीतिकरण हुआ है, वह गलत है।

अब तो चाहे वह अम्बेडकरवादी आरक्षण नीति हो या मंडलवादी, ये दोनों एक दूसरे से मिलते-जुलते नज़र आ रहे हैं। अब जातिवाद का मुद्दा खत्म होने की बजाए जातिकरण वोट बैंक पर हावी होता जा रहा है। आरक्षित वर्ग के कुछ खास लोग ही आरक्षण का सही लाभ उठा पा रहे हैं लेकिन पिछड़े, शोषित, दबे-कुचले इससे अभी भी वंचित हैं। उन्हें आरक्षण और इसके लाभ की जानकारी भी सही से नहीं है।

अम्बेडकरवादी आरक्षण की यह बात तो लागू होनी ही चाहिए कि एक बार जो आरक्षण का लाभ ले चुका है उसे आरक्षित श्रेणी से हटा दिया जाए ताकि अन्य वंचितों को इसका लाभ मिल सके। अमूमन ऐसा होता है कि एक बार आरक्षण के लाभ से पद की प्राप्ति के बाद वही तबका बार -बार आरक्षण को सीढ़ी बना लेता है, जबकि उसे इसकी ज़रूरत नहीं होती और ऐसे में एक विशेष तबके का निर्माण होता है जिसे क्रीमी लेयर कहते हैं।

फोटो साभार: Getty Images

1979 में बने मंडल आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया कि 1980 तक देश में 2399 पिछड़ी जातियां हैं, जिसमें 837 अत्यंत पिछड़ी हैं। वहीं 1992 में अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 52% मानी गई। पिछले दो दशक में कई अन्य पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण में शामिल किया गया लेकिन इससे निकाले कोई नहीं गए। इसका तो मतलब यही निकलता है कि जो आरक्षण में शामिल हुए, उनमें से कोई भी प्रगति की ओर नहीं जा पाए।

तो फिर यह आरक्षण क्या सिर्फ हाथी के दांत की तरह एक ढोंग बन कर रह गया है? क्या इन दांतों के ज़रिए आपसी खाई खोदने का काम किया जा रहा है? प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अगर लिंग, धर्म, समुदाय या क्षेत्र पर आधारित आरक्षण को आधार मान लिया जाता है तो इसे गलत नहीं ठहराया जा सकता है पर नौकरी या शिक्षण संस्थानों में दिए जाने वाले आरक्षण की मंशा समझ नहीं आती है।

कैसा होना चाहिए आरक्षण?

आज तक के आरक्षण के अनुभव से तो यही कहा जा सकता है कि नौकरी एवं दाखिलों में किसी तरह के आरक्षण की बजाए समाज के वंचित वर्गों को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए।

उन्हें बेहतर शिक्षा, कोचिंग, किताब और अन्य सामग्री से सहायता करनी चाहिए। उनको आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से आगे लाने के लिए सरकार को ठोस योजना बनानी चाहिए। शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में जाने के लिए सबके लिए खुली प्रतिस्पर्धा ही एकमात्र पैमाना होना चाहिए।

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