यह चर्चा शुरू करने से पहले हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि चोर गिरोह क्या होता है। सोचिए कि आप एक चोर गिरोह के मुखिया हैं और आपकी एक टीम है। आपकी टीम जनता की खुशियों में सेंध लगाती है। आप अपने गिरोह को शक्ति प्रदान करने के साथ-साथ अपना भी विकास करते हैं, तो इस चोर गिरोह को हम राजनीतिक दल कह सकते हैं। इस पूरी प्रकिया को हम राजनीति कह सकते हैं।
अब हमलोग राजनीति का मतलब सरल शब्दों में समझने की कोशिश करते हैं। जनता के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर को ऊंचा करने की प्रक्रिया राजनीति कहलाती है लेकिन आज की राजनीति की परिभाषा बिल्कुल इसकी उल्टी है। अब राजनीतिक पार्टियों की सामाजिक और आर्थिक स्तर को ऊंचा उठाना ही राजनीति कहलाती है।
राजनीति और चाटुकारिता का चोली-दामन का साथ
राजनीति की परिभाषा आजकल राजनीतिक पार्टियां तय करती हैं, ना कि जनता और ना ही हमारा संविधान। पुराने ज़माने से ही राजनीति और चाटुकारिता का चोली-दामन का साथ रहा है। राजतंत्र के दिनों में राजा लोग भाट लोगों से अपने विजय की गाथाएं गंवाया करते थे।
कई राजा तो कवियों द्वारा अपनी वीरता के किस्सों को कविता के रूप में सुना करते थे। वास्तव में प्रशंसा सत्ताधारियों की खुराक हुआ करती है, जिससे उनका मनोबल बढ़ता है लेकिन वही प्रशंसा जब अपनी सीमा लांघ जाती है तो चाटुकारिता की श्रेणी में आ जाती है।
राजशाही के लोकशाही में तब्दील होने के बाद भी इस प्रथा का अंत नहीं हुआ है। कोई ना कोई ऐसे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ज़रूर होते हैं जो इस हानिकारक बीमारी के शिकार होते हैं। हम यह कह सकते हैं कि इसकी भी अपनी एक बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका है।
नेहरू के समय की दिलचस्प कहानी
भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से एक दिलचस्प किस्सा जुड़ा है। उनके शासन काल में एक कैबिनेट मंत्री हुआ करते थे ‘सत्यनारायण सिंह’, जो प्रतिदिन नेहरू जी के कोट पर गुलाब लगाना नहीं भूलते थे जिससे उनकी उत्थान की गाड़ी कभी नहीं रुकी।
राजशाही से लोकशाही में तो भारत प्रवेश कर चुका है लेकिन अभी भी ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियां राजशाही के रोग से ग्रसित हैं। उन्हें लगता है कि पार्टी का संचालन करना और एक मज़बूत नींव प्रदान करना सिर्फ और सिर्फ उनकी ज़िम्मेदारी है।
उन्हें लगता है कि सिर्फ वे ही प्रधानमंत्री और मुख्यमंंत्री के सही उमीदवार हैं क्योंकि उनके शरीर में खून नहीं बल्कि राजनीति का वह काला पानी बहता है जो शायद देश को काला कर दे। अगर आप भी ऐसा सोचते हैं तो आप भी एक राजनीतिक पार्टी के मुखिया बन सकते हैं और आपके आने वाले वंशज़ भी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बन सकते हैं।
जनता इस गलतफहमी में रहती है कि राजनीति उनके हाथ में है लेकिन दरअसल राजनीति सिर्फ उनका शिकार करती है। उन्हें लगता है कि चूंकि वे ही राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवारों का फैसला करके सरकारें चुनते हैं तो सब कुछ उन्हीं के हाथों में है। उन्हें पता नहीं है कि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
उनके हाथ में कुछ नहीं है, सिवाए एक वोट के। वे ना तो सरकार बनाते हैं और ना ही उम्मीदवार चुनते हैं क्योंकि उमीदवार तो पार्टियां चुनती है। प्रधानमंत्री के उम्मीदवार भी सांसद चुनते हैं। आम जनता बस वोट देती है और वो भी उन्हें जिन्हें उसने खड़ा ही नहीं किया है। यह सब एक साज़िश के तहत बुना गया माया जाल है।