चुनावी सरगर्मी तेज़ हो चुकी है। राजनीतिक दल जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं। चुनावी रैलियों में कहीं “अली-बजरंग बली” का शोर है, तो कोई वोट ना देने पर श्राप देने की धमकी दे रहा है। इस चुनावी शोर में कहीं ना कहीं आम आदमी के मूलभूत मुद्दे गुम से हो गए हैं। देश में लगभग 65% जनता युवा है, तो मुद्दा भी उन्हीं से जुड़ा हुआ है, रोज़गार और शिक्षा का मुद्दा।
इन सबको देखते हुए मैंने भी कई स्टूडेंट्स से बात की, जिनमें से कुछ बीए, एमए की पढ़ाई कर रहे थे, तो कुछ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स थे। उनसे बातचीत के दौरान उनका सबसे बड़ा प्रश्न यही था, “अब इसके बाद क्या”?
जिस तरह से 2 करोड़ रोज़गार प्रतिवर्ष देने की बात कही गई थी, उस हिसाब से पिछले 45 वर्षों में बेरोज़गारी का सबसे निचला स्तर अभी के साल में है, तो रोज़गार कहां है? यदि हम रोज़गार की बात करें तो स्टूडेंट्स ने साफ कहा,
- हमें जाति, धर्म की राजनीति नहीं चाहिए।
- उनका मानना है कि जो भी सांसद सरकार में जनता का प्रतिनिधित्व करे वह सिर्फ पढ़ा-लिखा ही नहीं, लोगों की संवेदनाओं, समस्याओं को संजीदगी से समझने और उचित मंच पर रखने वाला होना चाहिए।
- ऐसा प्रतिनिधि जो शिक्षा, रोज़गार और युवाओं के सुंदर भविष्य का वादा कर सके, ना कि चुनाव जीतने के बाद वादा तोड़े।
मैंने जिन भी स्टूडेंट्स से इस दौरान बात की तो उन्होंने बताया,
हम स्टूडेंट्स के लिए जाति या धर्म चुनावी मुद्दा नहीं होता है, हमें उन्मादी राष्ट्रवाद नहीं विकास और रोज़गार चाहिए होता है।
हर एक स्टूडेंट का मानना होता है कि जो भी व्यक्ति उनका प्रतिनिधित्व करे वह उनके मुद्दों को हल करने हेतु हर संभव प्रयास करे, मंदिर-मस्जिद से ज़्यादा स्टूडेंट्स के लिए अच्छी शिक्षा और रोज़गार की बात करे।
स्टूडेंट्स ने कहा,
समय की मांग है कि युवाओं की सोच व सामर्थ्य का अधिकतम प्रयोग राजनीति में हो, जिससे प्रतिभाओं का पलायन रोककर उनका अधिकतम उपयोग देश के विकास में किया जाए। सभी दलों को अपनी सोच बदलनी चाहिए और युवाओं को अधिकतम मौका देना चाहिए।
यदि लखनऊ की बात करें तो हर साल लगभग 15 से 20 हज़ार से ज़्यादा छात्र-छात्राएं स्नातक की पढ़ाई पूरी करके निकल रहे हैं। इनमें 60 प्रतिशत से ज़्यादा नौकरी की तलाश शुरू करते हैं। इनमें से ज़्यादातर दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े शहरों की ओर नौकरी के लिए रुख करते हैं। इसके अलावा, नौकरी की तलाश में पूर्वांचल से लखनऊ आने वाले युवाओं की संख्या काफी ज़्यादा है।
शिक्षा स्तर दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा है, इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद भी युवा 10 से 12 हज़ार की नौकरी करने के लिए मजबूर हैं। छात्रों/युवाओं को नौकरी के लिए दूसरे शहर की ओर पलायन करना पड़ता है, ऐसे में युवाओं की मांग है,
- राजनेता अपने-अपने क्षेत्रों में उद्योग लगाने के लिए पहल करें।
- इससे युवाओं को उनके गृह जनपद में ही रोज़गार के अच्छे अवसर मिले सकेंगे।
- इससे पलायन से मुक्ति तो मिलेगी ही बल्कि किसी भी शहर पर पलायन करके आने वाली जनसंख्या का बोझ भी कम होगा।
स्टूडेंट्स का कहना है कि राजनीतिक पार्टियों को अपने घोषणापत्र पर ठीक से काम करने की ज़रूरत है। यहां देश की अर्थशास्त्र को मज़बूती देने की बजाए लोक लुभावने वादे किए जा रहे हैं। ज़रूरी है कि हकीकत में बुजु़र्ग, युवा, बेरोज़गारों और आधी आबादी के लिए काम करने वाली सरकार होनी चाहिए।
स्टूडेंट्स ने आगे बताया
- उच्च शिक्षण संस्थानों में शोध बजट एवं सुविधाओं में बढ़ोत्तरी किए जाने की ज़रूरत है।
- सरकार द्वारा रोज़गार के साधनों में वृद्धि की जानी चाहिए।
- आम आदमी की मूलभूत सुविधाओं के बारे में सवाल होने चाहिए ।
आखिर रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य व पर्यावरण चुनावी मुद्दा क्यों नहीं? क्यों ना जाति, धर्म, मंदिर और मस्जिद के नाम पर बांटने वालों को किनारे किया जाए? इस बार केवल और केवल विकास व रोज़गार के नाम पर वोट दिया जाए।