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अंधभक्त हुए बिना, आलोचना करना क्यों ज़रूरी है?

मैंने बीते दिनों भगत सिंह की किताब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ पढ़ी। भगत सिंह ने जेल में चार पुस्तकें और एक पर्चा लिखा था। उनकी चार किताबें तो नहीं मिल पाई मगर उनका एक पर्चा जून 1931 में साप्ताहिक अखबार ‘द पीपुल’ में प्रकाशित हुआ था। उसी पर्चा को एक छोटी सी किताब की शक्ल दी गई है, जिसका नाम है ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’।

मैं अपने इस लेख में इस किताब की नहीं बल्कि इस किताब में लिखी सिर्फ कुछ लाइनों पर बात करूंगी। इस किताब में कुछ लाइनें हैं,

आप किसी प्रचलित विश्वास का विरोध करके देखिए, किसी ऐसे नायक या महान व्यक्ति की अलोचना करके देखिए, जिसके बारे में लोग यह मानते हो कि वह कभी कोई गलती कर ही नहीं सकता, इसलिए उसकी आलोचना की ही नहीं जा सकती। आपके तर्कों की ताकत लोगों को मजबूर करेगी कि वे अंहकार कहकर आपका मजाक उड़ाएं। इसका कारण मानसिक जड़ता है।

इन लाइनों को यकीनन आप आज की राजनीति से जोड़ रहे होंगे और यह सच भी है। ये लाइनें राजनीतिक पार्टी के भक्तों पर मज़बूती से अपनी पकड़ बना रही है। मैं जब भी राजनीति पर किसी भक्त से बात करती हूं, तो हमारे तर्कों का मज़ाक बनाया जाता है।

मैं उन सभी भक्तों को इस किताब में आगे लिखी लाइनों के रूप में जवाब देना चाहती हूं। इस किताब में आगे लिखा है,

आलोचना और स्वतंत्र चिंतन ​क्रांतिकारी के दो अनिवार्य गुण होते हैं। यह नहीं कि महात्मा जी महान हैं, इसलिए किसी को उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए, चूंकि वे पहुंचे हुए आदमी है, इसलिए राजनीति, धर्म, अर्धशास्त्र या नीतिशास्त्र पर वे जो कुछ कह देंगे, वह सही ही होगा। आप सहमत हो या ना हो पर आपको कहना ज़रूर पड़ेगा कि यही सत्य है।

इस पूरे लेख को लिखने का मकसद सिर्फ एक था, आपको भगत सिंह की भाषा में यह बताना कि आलोचना और स्वतंत्र चिंतन करना ज़रूरी है। फिर चाहे वो कोई भी मुद्दा या महान व्यक्ति क्यों ना हो।

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