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8.3 करोड़ मतदाताओं के लिए वायु प्रदूषण चुनावी मुद्दा क्योंं नहीं है?

वोटर्स

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कुछ महीनों बाद सर्दी के गुनगुने माहौल में किसानों के पराली जलने के बाद, प्रदूषण की समस्या अचानक से मुख्यधारा की मीडिया के लिए बहस का मुख्य मुद्दा बनने वाली है। इसके लिए तमाम राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्रों में कितने शब्द खर्च किए हैं, उसपर बहस या कोई शोर अभी नहीं है। ज़ाहिर है मुख्यधारा की मीडिया उन्हीं मुद्दों पर चुनावी बहसों पर शब्द खर्च करना चाहती है, जिसपर प्रमुख राजनीतिक दल चाहते हैं।

धूम्रपान से भी अधिक खतरनाक वायु प्रदूषण

राजनीतिक दल भी जानते हैं कि भले ही मौजूदा वक्त में  अमेरिका स्थित हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट (एचईआई) और इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवेल्यूएशंस (आईएचएमई) की ओर से जारी स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर, 2019 रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण धूम्रपान से भी अधिक खतरनाक साबित हो रही है।

वायु प्रदूषण के कारण 2017 में दुनियाभर में 49 लाख लोगों की मौते हुई हैं। वहीं, भारत की बात करें तो वायु प्रदूषण की वजह से मौतों का आंकड़ा 12 लाख है मगर हर पांच साल के बाद हो रहे चुनाव में मतदाताओं के आकंड़े और वोट प्रतिशत तो बढ़ ही रहे हैं।

वोटरों के लिए वायु प्रदूषण तो मुद्दा ही नहीं

मौजूदा लोकसभा चुनाव में ही चुनाव आयोग के आकड़ों के अनुसार कुल 89.60% मतदाता हैं, जिनमें 47.47% पुरुष और 43.13% महिला मतदाता हैं, इसके साथ-साथ 8.3 करोड़ नए मतदाता हैं, जिनमें 1.5 करोड़ 18-20 वर्ष की आयु वाले मतदाता हैं।

इन मतदाताओं के लिए अभी तक सिर्फ रोज़ी-रोटी या छद्म राष्ट्रवाद का सवाल ही महत्वपूर्ण है। स्वच्छ प्रदूषण रहित हवा के लिए कई कंपनियों ने एयर प्यूरीफायर तो बना ही है, जिसका प्रचार सिने अभिनेता-अभिनेत्री अपनी मुस्कानों के साथ करते रहते हैं और अब तो एसी और पेन्ट बेचने वाली कंपनियों ने यह दावा प्रस्तुत किया है कि उनका उत्पाद घर में मौजूदा बैकटरिया को खत्म कर देता है।

जल, जंगल और ज़मीन से जुड़े मसलों की अनदेखी

ऐसा पहले भी देखा गया है कि हिमालय, गंगा तथा पर्यावरण ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर ज़मीन, पानी और जंगल से जुड़े सवाल भी महत्वपूर्ण नहीं बन पाते हैं। इस तरह की विकास की नीतियां बनती रही हैं, जो पर्यावरण की सेहत के लिए भी ठीक नहीं है। सीमित संसाधनों या महानगरों में कम जगह होने के बाद भी हम वायु प्रदूषण के दबाव को कम कर सकते हैं। इसके कुछ विकल्प पर्यावरणविद उपलब्ध कराते रहते हैं, जिसका उपयोग आम लोगों द्वारा किया जा सकता है।

ऐसी कोशिशों से बदलाव संभव है

मसलन, कोक-पैप्सी के बड़े बोतलों को उलटा काटकर हाइपर निडल थ्योरी का इस्तेमाल करके सीमित संसाधनों के माध्यम से एक छोटी शुरुआत तो की जा सकती है। सोशल मीडिया या इस्ट्राग्राम पर इस तरह के प्रयोगों के बारे में शॉर्ट वीडियोंऔर फोटो शेयर होते रहते हैं।

अगर 200 घरों की एक सोसाइटी में सभी लोगों ने अपने घरों में इस तरह से चालीस-पचास छोटे पौधे लगाएंगे, तो सोसाइटी में प्रदूषण के कारण मौजूद कार्बन डाई-आक्साइड की मात्रा में कमी तो की ही जा सकती है।

हालांकि यह सही है कि यह वायु प्रदूषण जैसी समस्या के आगे इस तरह की पहल एक तिनका उठाने जैसा ही है मगर हमारे पास और कोई विकल्प भी नहीं है क्योंकि सरकारें वायु प्रदूषण की सम्स्या से निपटने के लिए एक मंत्रालय भर बनाकर खुश रहना चाहती हैं और उन्हें चुनावों में भुनाना चाहती हैं। ‘नामामि गंगे’ जैसी परियोजना और गंगा सफाई के लिए बनाया गया मंत्रालय कैसे काम करता है, इसका उदाहरण सबों के पास है।

फोटो साभार: Twitter

प्रदूषण जैसी समस्या चुनाव का मुद्दा बने, इसके लिए हमें धर्म, जाति और तमाम छद्म मुद्दों से उपर उठना होगा। मानवता की रक्षा और प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग के लिए हरित क्रांति जैसे आनंदोलन चलाने होंगे।

हिल स्टेशनों या पहाड़ों पर जाकर राहत महसूस करने वाले लोगों को प्रकृति के प्रति संवेदना और प्रेम विकसित करना होगा। जब हम प्रदूषण जैसी समस्या से निपटने के लिए समर्पित हो चुके होंगे, तब सरकारों को भी इस विषय पर सोचना ही पड़ेगा।

यदि ऐसा करने में हम सफल नहीं होंग तो प्रकृति अपना विकराल रूप ले चुकी होगी और सरकारें नए निमार्ण कार्य में कंपनियों के साथ मिलकर मुनाफे की तलाश में जुट जाएंगी। इन सबके बीच हम पुन: प्रकॄति के विध्वस में अपने बरबाद होने के इतंज़ार में खड़े रहेगे।

नोट: आंकड़े इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया के वेबसाइट से लिए गए हैं।

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